सम्पादकीय

ऊष्मावान लेखक…

Rani Sahu
21 April 2023 5:13 PM GMT
ऊष्मावान लेखक…
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दो साहित्यकार थे। दोनों पक्के दोस्त थे। एक का नाम मगन लाल तथा दूसरे का नाम छगन लाल था। दोनों स्वयं को साहित्य का सपूत तथा महान लेखक मानने की भूल भी पाले हुये थे। एक साहित्यिक गोष्ठी में मैंने दोनों को देखा, दोनों मित्रधर्म का निर्वाह बखूबी कर रहे थे। मगन लाल ने छगन लाल को महान बताया तो छगन लाल ने मगन लाल को एकमात्र ऊर्जावान लेखक ठहराया। उन दोनों का मानना था कि राज्य में तमाम साहित्यकारों की ऊर्जा समाप्त हो गई है तथा यदि ऊष्मा बची है तो केवल उन दोनों के पास। उनका तर्क था कि लघु पत्रिकाएं बन्द हो जाने से साहित्य की बहुत हानि हुई है, यदि आज वे होतीं तो वे दोनों अपनी रचनायें उनमें छपवाकर अपनी ऊष्मा को और अधिक तेज बनाये रखते। परन्तु व्यावसायिक पत्र-पत्रिकाओं के दलदल में फंसकर साहित्य का सत्यानाश हो गया है तथा उनके लिए व्यर्थ का ‘काम्पीटीशन’ बढ़ गया है। मित्रों की लघु पत्रिकाओं में छपना आसान होता है तथा उन्हें किसी संघर्ष व साधना की जरूरत नहीं होती। मैं सदैव महान साहित्यकारों का अनुगामी रहा हूँ तथा उनसे कुछ सीखने की लालसा भी रखता हूँ। इसलिए एक दिन मैंने उनसे साक्षात्कार का मूड बनाया और जा पहुँचा छगन लाल जी के निवास पर।
मगन लाल जी भी वहीं मिल गये। दोनों पहुँची हुई आत्माओं को एक साथ पाकर मन गदगद हो गया। दोनों को सादर प्रणाम के बाद मैंने अपना मन्तव्य बताया तो वे बल्लियों उछल गये और बोले-‘भाई पूछो, हम तो साहित्य-चर्चा को सदैव लालायित रहते हैं।’ मैंने कहा-‘मगन लाल जी साहित्य में बड़ा घान-मसान हो रहा है, आपकी क्या राय है इस बारे में?’ मनचाहा प्रश्न पाकर खुल पड़े दोनों। एक साथ ही बिलबिलाये-‘वाह शर्मा जी क्या प्रश्न पूछा है-आपने भी। व्यावसायिक लेखकों ने साहित्य की तो कब्र खोदकर ही धर दी है। हर कोई लेखक बन गया है। किसी जमाने में हम दो-चार लेखक थे।
आज दो चार सौ हो गये हैं। इतनी संख्या में भी कोई लेखक होते हैं? परन्तु दुर्भाग्य साहित्य का कि हर ऐरा-गैरा नत्थू-खैरा साहित्य लिखने लगा है। लोगों की किताबें आने लगी हैं। पच्चीस कवितायें लिखीं कि कविता-संकलन छपा डालेंगे। हम दोनों को देखा, अभी तक एक पुस्तक भी नहीं आई है। हम अभी तक अपने लेखन को धार दे रहे हैं तथा ऊष्मा प्रदान कर रहे हैं।’ ‘यह ऊष्मा से आपका क्या तात्पर्य है?’ मगन लाल मेरी नासमझी पर कुटिलता से हँसे और बोले-‘यह थोड़ा साहित्यिक मसला है शर्मा जी। आप नहीं समझेंगे। फिर भी मैं आपको समझाऊँ-मानवीय व सामाजिक संवेदनाओं से जुड़ी रचनाओं की गर्मी को ऊष्मा कहते हैं। आज पत्रिकाओं की स्थिति को देखिये-हर किसी की रचनाएँ छप रही हैं।’ ‘तो क्या, ये लोग जो छप रहे हैं, वे लेखक नहीं हैं?’ मैंने पूछा। ‘हो सकता है वे अपने आपको लेखक मानते हों, लेकिन हम नहीं मानते।’ इस बार छगन लाल बोले। ‘लेकिन क्यों?’ ‘वह इसलिए कि उनकी रचनाओं में ऊर्जा नहीं है। वे सर्वहारा के दर्द को समझ ही नहीं रहे हैं।’ मैं बोला-‘जो भी लिखता है-वह अपने आसपास को देखकर ही लिखता है, इसलिए यह कैसे हो सकता है कि उनमें सामाजिक संवेदना ही नहीं है।’ ‘होगा, लेकिन वैसी ऊष्मा नहीं है, जैसी मेरी व छगन लाल जी की रचनाओं में पाई जाती है।’ फिर वे छगन लाल जी से ‘हाँ’ भरवाने के लिए बोले-‘क्यों छगन लाल जी, मैं सत्य ही कह रहा हूँ न।’
पूरन सरमा
स्वतंत्र लेखक
By: divyahimachal
Rani Sahu

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