सम्पादकीय

इस कांग्रेस से लड़ने की उम्मीद बेमानी, क्या पार्टी में बदल रहा है सत्ता का केंद्र

Gulabi
20 Sep 2021 5:03 PM GMT
इस कांग्रेस से लड़ने की उम्मीद बेमानी, क्या पार्टी में बदल रहा है सत्ता का केंद्र
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पिछले हफ्ते के दो राजनीतिक घटनाक्रमों ने एक बार फिर साबित कर दिया कि भारतीय जनता पार्टी ही वास्तव में ‘पार्टी विद डिफरेंस’ है

ब्रजबिहारी। पिछले हफ्ते के दो राजनीतिक घटनाक्रमों ने एक बार फिर साबित कर दिया कि भारतीय जनता पार्टी ही वास्तव में 'पार्टी विद डिफरेंस' है। पहली घटना गुजरात में हुई, जहां भाजपा ने न सिर्फ मुख्यमंत्री बदल दिया, बल्कि देश के इतिहास में संभवत: पहली बार पूरा का पूरा मंत्रिमंडल नए चेहरों से भर दिया। परिवार की तरह ही पार्टी में थोड़ी कुनमुनाहट हुई, लेकिन फिर सब अपने काम में जुट गए। दूसरा घटनाक्रम पंजाब में हुआ, जहां कांग्रेस के मुख्यमंत्री को मजबूरी में त्यागपत्र देना पड़ा और उसके बाद मीडिया में पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह के जो उद्गार सामने आए, उसने पार्टी की छीछालेदर कर दी। लेकिन सबसे ज्यादा सटीक टिप्पणी तो राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के ओएसडी और उनका इंटरनेट मीडिया अकाउंट देख रहे लोकेश शर्मा ने इन शब्दों में की, 'मजबूत को मजबूर किया जाए, मामूली को मगरूर किया जाए, जब बाड़ ही खेत को खाए, उस फसल को कौन बचाए।'


अपने ट्वीट के कारण कांग्रेस के इस नेता को भले ही इस्तीफा देना पड़ गया हो, लेकिन उनका नाम पार्टी को पटरी पर लाने के लिए बलिदान देने वालों की सूची में दर्ज किया जाना चाहिए। इस समय कांग्रेस को अधिकाधिक संख्या में ऐसे ही नेताओं की जरूरत है। दुख की बात है कि पार्टी में इस श्रेणी का नेतृत्व तेजी से विलुप्त होता जा रहा है। समय-समय पर पार्टी में आवाज उठाते रहने वाले गुलाम नबी आजाद जैसे 'जी-23' के नेता हों या फिर शशि थरूर जैसे सांसद, पार्टी में ऐसे लोगों की संख्या गिनती की रह गई है।
पंजाब के घटनाक्रम के संदर्भ में शशि थरूर का पार्टी में स्थायी नेतृत्व की मांग करना समीचीन है, लेकिन पार्टी है कि तदर्थवाद के चंगुल से निकलना ही नहीं चाहती है। पंजाब के घटनाक्रम से एक बात तो स्पष्ट है कि कांग्रेस में सत्ता का केंद्र बदल रहा है। उन्हें विश्वास में लिए बिना कांग्रेस विधायक दल की बैठक बुलाए जाने पर नाराज कैप्टन अमरिंदर सिंह के फोन करने पर सोनिया गांधी का 'आइ एम सारी, अमरिंदर' कहना पूरी कहानी बयान कर रहा है। कांग्रेस में सोनिया के बजाय अब सबकुछ राहुल और प्रियंका वाड्रा के इशारे पर हो रहा है।
राजनीतिक गलियारों में अब चर्चा राजस्थान और छत्तीसगढ़ की भी हो रही है। छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और उन्हें चुनौती दे रहे स्वास्थ्य मंत्री टीएस सिंह देव के बीच हालिया दिल्ली दौरे के बाद संघर्षविराम नजर आ रहा है, लेकिन इसमें कोई शक नहीं है कि आग अभी पूरी तरह से बुझी नहीं है। राजस्थान में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत हाईकमान के बार-बार के निर्देश के बावजूद मंत्रिमंडल में विस्तार और राजनीतिक नियुक्तियां नहीं कर रहे हैं। सरकार के पौने तीन साल बीत चुके हैं। सचिन पायलट गुट का धैर्य कभी भी जवाब दे सकता है। उनके समर्थकों को यह बेजा नहीं लगता है कि पिछले विधानसभा चुनाव में सारी मेहनत सचिन ने की, लेकिन मुकुट गहलोत के सिर सज गया।
पार्टी में अपनी सत्ता स्थापित करने के क्रम में राहुल और प्रियंका एक-एक कर राज्यों में बदलाव कर रहे हैं। लेकिन इस कोशिश में वे राज्यों में पार्टी के किसी न किसी गुट की राजनीति का भी शिकार भी हो रहे हैं। इससे पार्टी कमजोर हो रही है। अब अगर पंजाब में पार्टी अगले विधानसभा चुनाव में जीत जाती है तब कोई सवाल नहीं उठेगा, लेकिन अगर पार्टी हार गई तो उसकी जड़ें और खोखली होंगी। कहने को कांग्रेस राष्ट्रीय पार्टी है, पर उसका अस्तित्व सिमटता जा रहा है। यह कहा जाए कि लगातार कमजोर हो रही कांग्रेस नरेन्द्र मोदी के सत्ता में आने के बाद से धराशाई होने की ओर अग्रसर है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
कैप्टन अमरिंदर सिंह को अपमानित कर पंजाब के मुख्यमंत्री के पद से हटाए जाने के बाद जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने ठीक ही कहा है कि इस कांग्रेस से अब लड़ने की उम्मीद करना बेकार है। जो पार्टी आपस में ही गुत्थमगुत्था है, वह भाजपा जैसी अनुशासित और विचारवान पार्टी से कैसे लड़ेगी। दिलचस्प बात है कि भाजपा और उसका नेतृत्व हमेशा चाहेगा कि कांग्रेस का नेतृत्व गांधी परिवार के हाथ में ही रहे। इससे उन्हें पार्टी पर हमला करने में आसानी होती है। यहां तक कि अगर एआइएमआइएम के नेता असदुद्दीन ओवैसी कहते हैं कि उत्तर प्रदेश में मुस्लिम इलाकों में स्कूल नहीं हैं तो इसका ठीकरा भी गांधी परिवार पर फोड़ा जा सकता है, क्योंकि स्वतंत्रता के बाद ज्यादातर समय तक देश में कांग्रेस की ही सरकार रही है। अगर कोई गैर गांधी पार्टी की कमान संभाले, जिसकी संभावना बहुत कम है, तो इसमें अब भी जान फूंकी जा सकती है। लेकिन समय की चाल बता रही है कि ब्रिटेन के एओ ह्यूम द्वारा शुरू की गई कांग्रेस को यह देश अब अपनाने को तैयार नहीं है।

मंडल और कमंडल की राजनीतिक चक्की में कांग्रेस इतना ज्यादा पिस चुकी है कि उसके पास अपना कोई हित समूह ही नहीं बचा है। उत्तर प्रदेश और बिहार ने तीन दशक पहले आखिरी बार कांग्रेस का मुख्यमंत्री देखा था। दक्षिण भारत में भी कहीं भी उसका प्रभाव बढ़ता नहीं दिख रहा है। पूर्वोत्तर में भाजपा उसे सत्ता से बाहर कर चुकी है। पश्चिम में महाराष्ट्र में जरूर वह महाविकास अघाड़ी सरकार में शामिल है, लेकिन उसका कोई फायदा पार्टी को होता नहीं दिख रहा है। स्थिति यह है कि कांग्रेस को कोई भी क्षेत्रीय दल अपने साथ गठबंधन में नहीं रखना चाहता है, क्योंकि वह संपत्ति के बजाय देनदारी बन चुकी है।
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