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असहाय तंत्र को न्यायपालिका से आस: धनबल के दम पर बने जनप्रतिनिधि फैलाते हैं 'गंदगी'
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जनता से रिश्ता वेबडेस्क| तिलकराज| राजनीतिक परिदृश्य की सफाई में सियासी दलों की हीलाहवाली को देखते हुए इसका बीड़ा उच्चतम न्यायालय को ही उठाना पड़ेगा। आखिर देश में कानून का राज स्थापित करना उसी की नैतिक जिम्मेदारी है। संविधान ने इसीलिए उसे इतना शक्तिशाली बनाया है।
यशपाल सिंह। सुप्रीम कोर्ट को भारतीय संविधान का संरक्षक माना जाता है। ऐसे में यदि उसके परिसर के समक्ष ही कोई युवती न्याय की आस में निराश होकर आत्मदाह कर ले तो यह कितनी बड़ी विडंबना कही जाएगी। पिछले महीने ऐसा ही एक भयावह मंजर देखने को मिला जब दुष्कर्म पीड़िता एक युवती और उसके साथी ने सुप्रीम कोर्ट के सामने खुद को आग के हवाले कर दिया। इससे पहले उन्होंने फेसबुक लाइव के माध्यम से अपनी पीड़ा भी व्यक्त की थी। इस पीड़ा में दोहरी विडंबना यह थी कि वह एक जनप्रतिनिधि द्वारा सताई गई थी और दूसरे उसे देश में न्याय के सबसे बड़े परिसर के सामने यह आत्मघाती कदम उठाने पर विवश होना पड़ा। लड़की के पिता की मौत पहले ही हो चुकी थी। परिवार में मां और एक पंद्रह साल का भाई है। उनका कोई सहारा नहीं बचा।
दिवंगत युवती छात्रसंघ राजनीति में सक्रिय थी। इसी सिलसिले में वह अतुल राय के संपर्क में आई, जो फिलहाल मऊ से लोकसभा सदस्य हैं। राय पर ही युवती ने अपने उत्पीड़न का आरोप लगाया था। यह घटना मई 2019 की है। दो माह बाद पुलिस ने आरोप-पत्र भी दाखिल कर दिया, परंतु मामला अभी भी लंबित है। वह भी तब जब निर्भया कांड के बाद ऐसे मामलों में फैसले बहुत तेजी से आने लगे थे। उनमें कुछ तो एक पखवाड़े या महीने भर में ही निपट गए
सांसद राय की पृष्ठभूमि पर गौर करें तो वह संदिग्ध रही है। ऐसे में उन्हें मामलों को उलझाने की कला बखूबी मालूम रही होगी। दोनों पक्षों ने एक-दूसरे के खिलाफ खूब कानूनी दांवपेच आजमाए। इनमें लड़की के विरुद्ध जालसाजी और हनीट्रैप का मामला दर्ज किया गया। अदालत ने इसका संज्ञान लेकर उसके खिलाफ गैर-जमानती वारंट भी जारी कर दिया। ऐसे में 22 साल की एक असहाय युवती के पास आत्मदाह के अलावा कोई और विकल्प नहीं रहा।
आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों की एक खास फितरत होती है। वे संगीन अपराधों से अपनी हनक बनाते हैं। फिर अवैध धंधों के जरिये बाहुबली से धनपशु बन जाते हैं। उनका अगला पड़ाव बनती है राजनीति, ताकि उनके आपराधिक साम्राज्य को संरक्षण मिल सके। यह खराब चलन पिछले कुछ समय में ही आम हुआ है। उससे पहले अधिकांश अपराधियों को या तो सजा हो जाती थी या वे मुठभेड़ में मार गिराए जाते थे। अपराधियों की हनक पर पुलिस का इकबाल भारी पड़ता था। राजनीतिक दल भी अपराधियों से कुछ दूरी बनाकर चलते, लेकिन पिछली सदी के अंतिम दशक से राजनीति की इस गरिमा में गिरावट आरंभ हो गई। इसका ही परिणाम है कि आज 43 प्रतिशत से अधिक जनप्रतिनिधियों पर गंभीर मामले दर्ज हैं। जब तक ऐसे जघन्य अपराधियों के संसद और विधानसभा पहुंचने पर अंकुश नहीं लगेगा, तब तक ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति होती रहेगी जैसी बीते दिनों सुप्रीम कोर्ट के सामने घटी।
दिसंबर 2012 में दिल्ली में घटित वीभत्स निर्भया कांड के बाद केंद्र सरकार ने जस्टिस जेएस वर्मा की अध्यक्षता में एक उच्चस्तरीय समिति बनाई थी। उन्हें देश के आपराधिक कानूनों की समीक्षा कर सुझाव देने को कहा गया था कि उनमें क्या सुधार किए जाएं कि दुष्कर्म जैसे अपराधों में त्वरित कार्रवाई कर कठोर सजा दी जा सके। उनकी रिपोर्ट पर कुछ छोटे-मोटे सुधार भी हुए, परंतु उनका भी कोई विशेष प्रभाव नहीं दिख रहा। जस्टिस वर्मा की रिपोर्ट में चुनाव सुधारों पर अलग से एक महत्वपूर्ण अध्याय था, जिस पर खास ध्यान नहीं दिया गया। स्वतंत्रता की स्वर्ण जयंती के अवसर पर संसद ने राजनीति के अपराधीकरण के खिलाफ एक कानून अवश्य पारित किया था, लेकिन उसके क्या परिणाम निकले यह किसी से छिपा नहीं।
ऐसे में केंद्रीय चुनाव आयोग के पास कुछ विशिष्ट अधिकार तो होने ही चाहिए। जैसे कि उक्त मामले में ही जब सांसद अतुल राय निर्वाचित होने के बाद भी किसी न्यायालय से जमानत न मिलने के कारण शपथ ही नहीं ले पा रहे थे, तो आयोग उनके आपराधिक इतिहास की छानबीन करता और यह पता लगाता कि उन्हें किसी राजनीतिक दल से टिकट कैसे मिल गया। अगर मात्र धनबल-बाहुबल के आधार पर टिकट दिया गया तो संबंधित दल पर कुछ वर्षो के लिए उसका सिंबल निलंबित करने की कार्रवाई की जाती या इस आशय का कोई नोटिस दिया जाता।
दरअसल, धनबल के दम पर बने जनप्रतिनिधि समाज से लेकर सरकारी तंत्र में गंदगी फैलाते हैं। इस मामले में शुचिता बनाए रखना सरकार और चुनाव आयोग की जिम्मेदारी है। जबकि ऐसी कोई पहल अदालत को ही करनी पड़ती है। गत वर्ष हुए बिहार विधानसभा चुनावों में प्रत्याशियों का आपराधिक इतिहास न प्रकाशित करने/या आयोग को सूचना न देने पर सुनवाई करते हुए उच्चतम न्यायालय की एक बेंच ने स्पष्ट रूप से कहा था, 'अपराधीकरण रोकने के लिए सरकार ने न कुछ किया और न कुछ करेगी।' बाद में उसने दोषी पार्टियों पर पांच-पांच लाख रुपये तक का जुर्माना भी लगाया।
वहीं, सियासी दलों का तो यह हाल है कि अगले वर्ष होने वाले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले एक पार्टी प्रदेश के हर जिले में फूलन देवी की प्रतिमा स्थापित करना चाहती है। वह भी तब जब उनके ¨हसक अतीत के बारे में सभी जानते हैं। इसी प्रकार कानपुर के कुख्यात बिकरू कांड के आरोपित विकास दुबे के इर्दगिर्द भी जातीय अस्मिता का विमर्श खड़ा कर राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश हो रही है। जबकि सभी जानते हैं कि दुबे से उसकी जाति के लोग भी कम आतंकित नहीं थे।
इससे स्पष्ट है कि राजनीतिक परिदृश्य की सफाई का बीड़ा उच्चतम न्यायालय को ही उठाना पड़ेगा। आखिर देश में कानून का राज स्थापित करना उसी की नैतिक जिम्मेदारी है। संविधान ने इसीलिए उसे इतना शक्तिशाली बनाया है। देश के मौजूदा मुख्य न्यायाधीश महोदय के साहसिक बयानों ने आशा की एक किरण भी दिखाई है। बीते दिनों उन्होंने स्पष्ट कहा था कि, 'न्यायपालिका को एक के अधिकारों की रक्षा के लिए अत्याचारी समूहों की सामूहिक शक्ति से निडर होकर लड़ने के लिए तैयार रहना होगा।' जेएस वर्मा ने भी अपनी रिपोर्ट में कहा था कि 'संसद में जब तक दागी लोग बैठेंगे तब तक देश के लिए कानून बनाने की शैली और तौर-तरीकों पर विश्वास करना संभव नहीं होगा।' सुप्रीम कोर्ट के समक्ष हुआ आत्मदाह कांड इसका ज्वलंत उदाहरण है। इससे सीख लेकर सुधार की पहल आरंभ की जानी चाहिए।