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- ढोलरू गायकों को
सोमवार के पहले दिन अपनी परंपरा ढूंढता चैत्र महीने का अंदाज, ढोलरू गायकों की बाट जोहता हुआ प्रतीत हो रहा, फिर भी हिमाचल के बड़े भूभाग को इंतजार है कि कोई ढोलक की थाप पर सुना दे, 'ए जी, पहला जां नां लैणा नारायणे दा नां।' लोक गायन की इस परंपरा को हालात, बेरुखी और आर्थिक मजबूरियों ने इतना अवसरवादी बना दिया है कि अब एक जाति विशेष को अपने कलात्मक पक्ष का बोध निराश करता है। बिलासपुर, हमीरपुर, कांगड़ा, चंबा के अलावा मंडी, ऊना व सोलन के कुछ भागों में चैत्ता लोकगायन परंपरा अब सिमटती हुई विरासत है। आश्चर्य यह कि इसे सरकार और भाषा, कला एवं संस्कृति विभाग ने भी मरने के लिए छोड़ दिया है या यह मान लिया गया कि गीत-संगीत की यह रिवायत अवसरवादी है। सवाल यह भी कि अगर इसी प्रदेश में बजंतरी समाज के लिए सरकार निरंतर प्रयास के साथ हर साल मानदेय राशि में बढ़ोतरी करते हुए, इस वर्ष पूरी तरह निहाल हो सकती है, तो प्रश्रय का यह खजाना ढोलरू गायकों के लिए भी तो खुलना चाहिए।
क्रेडिट बाय दिव्याहिमाचल