सम्पादकीय

समलैंगिकता ‘कुदरत’ के खिलाफ

Rani Sahu
20 April 2023 4:19 PM GMT
समलैंगिकता ‘कुदरत’ के खिलाफ
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By: divyahimachal
सर्वोच्च अदालत के पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने समलैंगिक शादी को कानूनी-सामाजिक मान्यता देने और ‘स्पेशल मैरिज एक्ट’ में संशोधन करने पर एक नई बहस शुरू की है। संविधान पीठ शादी की नई व्याख्या भी कर सकती है। कानून में ‘पुरुष’ और ‘स्त्री’ शब्दों के स्थान पर ‘जीवन-साथी’ शब्द स्थापित किया जा सकता है। ऐसी दलीलें सामने आई हैं। बहस से पहले यह सबसे अहम है कि क्या समलैंगिक यौन संबंध नैसर्गिक और प्राकृतिक हैं? क्या उन्हें ‘अनैतिक’ और ‘गलत’ करार नहीं दिया जाना चाहिए? सर्वोच्च अदालत ने 2018 में धारा 377 के तहत समलैंगिकता को ‘अपराध’ की श्रेणी से मुक्त किया था, लिहाजा उसे कुछ स्वीकृति मिली थी, लेकिन उसके मायने ये नहीं हैं कि प्रकृति की संरचनाओं से खिलवाड़ किया जाए। कुदरत ने सभी जीवों, प्राणियों में ‘नर-मादा’ की संरचना की है। उनके भीतर ऐसे समीकरण, प्रक्रियाएं तैयार की हैं कि दोनों का ‘मिलन’ एक और प्राणी को जन्म देता है। समलैंगिकों का जन्म भी इसी तरह हुआ है। जन्म और संरचना की यह प्रक्रिया एकदम ‘दैवीय’ लगती है। जिस तरह एक नए जीव का मस्तिष्क, चेहरा-मोहरा, शारीरिक अंग, हृदय और दूसरे हिस्से और उंगलियों पर लकीरें आदि हम देखते हैं, उन्हें कौन गढ़ता है? हम अचंभित होते रहते हैं कि ‘नर-मादा’ के मिलन से ही ऐसी संरचना कैसे बन जाती है? हमारे वेद, पुराण, उपनिषद आदि प्राचीन महाग्रंथों में जीव, प्राणी की संरचना, आत्मा और ब्रह्मांड के निरंतर निर्माण के संदर्भ में उल्लेख हैं और व्याख्याएं भी की गई हैं। कोई संविधान, कानून और व्यक्तिपरक बौद्धिकता ऐसी नैसर्गिक और प्राकृतिक संरचनाओं की समीक्षा नहीं कर सकते। यह व्यक्ति की क्षमताओं से बहुत परे है। उनके खिलाफ कानूनी प्रावधान स्थापित नहीं कर सकते। भारतीय सभ्यता और संस्कृति में ‘विवाह’ को एक पवित्र संस्कार माना गया है। यह एक सामाजिक संस्थान भी है। विवाह के जरिए वंश-वृद्धि को सामाजिक मान्यता और स्वीकृति मिली है। समाज और दुनिया ऐसे ब्याहता जोड़े को सम्मान की दृष्टि से देखते हैं।
जीव और मानवीय लैंगिकता उनके ‘जननांग’ से ही परिभाषित होती है। वैचारिक लैंगिकता उसके बाद ही आती है। अदालत कोई नई परिभाषा तय करना चाहती है, तो हम उसका भी आकलन करेंगे और फिर व्याख्या भी करेंगे। यह आधुनिक मतिभ्रम हो सकता है कि समलैंगिक होना भी ‘प्रगतिशील’ लगे। किन देशों में, किन स्थितियों में इसे कानूनी-सामाजिक-मानसिक मान्यता मिली है, उससे हमें ज्यादा सरोकार नहीं है। समलैंगिक भी भारत देश के नागरिक हैं, लिहाजा उनके मौलिक और संवैधानिक अधिकार भी सुरक्षित हैं। नर-नर और मादा-मादा का विवाह न तो मौलिक अधिकार है, अलबत्ता उन्हें भी शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, आजीविका आदि के अधिकार प्राप्त होने चाहिए। उनकी मनोविकृति शारीरिक स्तर पर है, उसका निदान किया जाना चाहिए। समलैंगिक संबंध और शादी के अधिकार और मान्यता का ही सवाल नहीं है। परिवार और संबंध से जुड़े पर्सनल लॉ, बच्चे गोद लेने का अधिकार, उत्तराधिकार एवं संपत्ति के अधिकार भी ऐसे संवेदनशील मुद्दे हैं, जिन पर बड़े विवाद पनपते रहे हैं और संबंधों का ताना-बाना भी बिखर सकता है। जिस स्तर पर समलैंगिकता की समीक्षा की जा रही है, वह स्तर भी देश के लोगों का प्रतिनिधित्व नहीं करता।
लोकतंत्र में यह स्वीकार्य कैसे हो सकता है? यदि चर्चा की जानी है, तो सबसे पहले संसद में की जाए। यह उसी के अधिकार-क्षेत्र का विषय है। यह विशुद्ध रूप से कानून और अपराध का मामला नहीं है। संसद में प्रस्ताव पारित हो जाए, तो फिर संविधान पीठ उसकी विवेचना कर सकती है। समलैंगिक विवाह पर एक भी अध्ययन नहीं किया गया है। फिर भी समलैंगिक समाज के बच्चों को छात्रवृत्ति दी जा रही है। हालांकि स्कूल के स्तर पर ऐसे बच्चों का खुल कर सामने आना और सुविधाएं हासिल करना इतना आसान नहीं है। भारत सरकार का नजरिया अभी तक स्पष्ट नहीं है। उसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। विधायिका और न्यायपालिका के बीच, इस मुद्दे पर, टकराव की नौबत नहीं आनी चाहिए। यह अतिक्रमण देशहित में नहीं है। अब संविधान पीठ में सुनवाई शुरू हो ही गई है, तो विभिन्न वर्गों की सोच और उनके विचार भी सामने आएंगे।
Rani Sahu

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