सम्पादकीय

बेघर शहरी विकास

Rani Sahu
18 Aug 2023 6:59 PM GMT
बेघर शहरी विकास
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By: divyahimachal
प्राकृतिक आपदा में लावारिस हुआ अपना घर भी, पूरे मोहल्ले ने रेंगना शुरू कर दिया था। हिमाचल में प्रकृति के सबसे बड़े प्रकोप ने हमारी करतूतों को कोसा है, अतीत के विश्राम को रोका है। सरपट दौड़ती-भागती जिंदगी को विराम की सरहद बताई है, तो कई सवाल सरकारी कामकाज के ढर्रे, सिफारिशों-फरमाइशों और सियासी फेहरिस्त की आजमाइशों से भी हैं। आश्चर्य होता है कि जिस शहरी विकास विभाग के दायित्व, प्राथमिकता और जवाबदेही से हम हिमाचली शहरों में सुकून से भविष्य देखना चाहते हैं, वही बेघर हो गया। शहरी विकास के मुख्यालय का भवन खाली करवाना पड़ गया। जाहिर है यह इमारत वहीं थी, बल्कि इसके भीतर प्रदेश की बुलंदी, शहरीकरण के आश्वासन और भविष्य को रेखांकित करती परिकल्पना भी थी, जो अपने ही कारणों से विस्थापित हो गया। इतना ही नहीं हाउसिंग बोर्ड की जाखू स्थित कालोनी को बचने के लिए शरण की जरूरत आ पड़ी है, तो कांगड़ा में भी कालोनी के छह घर टूट फूट की जद में आ गए हैं। यानी हम ऐसा भविष्य दिखा या खोज रहे हैं, जिसका कोई वारिस नहीं। यह इसलिए कि कमोबेश हर सरकार ने तमगे ढूंढे और इन्हीं बुर्जियों पर विकास अंधा हो गया। हम शाम होने पर चौंकते हैं कि अंधेरे मिटाने के लिए अब कोई दीपक चाहिए, वरना सो जाने के लिए तो यही पहर काफी है। हम तहें जमा कर केवल सत्ता के लाभ देख रहे हैं।
न कोई अनुसंधान, न कोई संकल्प और न ही कोई आर एंड डी। हमारे माथे पे घास उगी है, इस कद्र कि दिमाग तक रेंग कर भी नहीं जा सकते। हमने राजनीतिक घासतंत्र विकसित कर लिया है। आप विधानसभा की बहस देख लीजिए और पूछ लीजिए कि हर पक्ष ने किस खुराफात के लिए सदन से बहिरर्गमन किए। क्या आज तक के हिमाचली इतिहास में विधानसभा की बहस ने आम आदमी और प्रदेश के अस्तित्व के प्रश्रों का सही सही हल ढूंढा। बताइए नदियों, नालों, खड्डों, कूहलों का बावडिय़ों के अस्तित्व पर कितनी चिंता हुई। हमने एचआरटीसी पर चर्चा यह की कि नए रूट बढ़ा दिए जाएं या बस डिपो की संख्या में इजाफा कर दिया जाए। क्या हमने ऐसे रास्ते या रूट खोजे जहां मौसम की बेरुखी पर भी परिवहन चलता। परिवहन के विकल्प होते, तो सेब इस वक्त पेटियों में नहीं सड़ता। कोई एक रज्जु मार्ग बता दें, जो इस समय शिमला व कुल्लू के सेब को मंडी तक ले आता। हमने देखे कई नेता हरी झंडियों की पोशाक में, लेकिन ये उद्घाटन लतीफा बन गए। शिमला में जमींदोज भवन, गिरते पेड़ और चकमा देते पहाड़ों की फितरत में समाया रोष आखिर किसके वर्चस्व की निशानी है। अगर शहरी विकास की वकअत होती, तो अपनी इमारत को ही थाम लेता, लेकिन राजधानी मर रही है और इसकी इत्तिला तक यह विभाग नहीं दे पाया। आखिर प्रदेश की राजधानी की परिकल्पना में हमने किया ही क्या। कभी पेयजल के नाम पर पीलिया और कभी परिवहन के नाम पर टै्रफिक जाम में फंसे शहर की आबरू इतनी कमजोर क्यों हो गई। जरा पूछें आज तक के तमाम शहरी विकास मंत्रियों से और खास तौर पर पिछली सरकार के तत्कालीन दो मंत्रियों से कि उनके लिए शिमला स्मार्ट सिटी परियोजना सिर्फ कंक्रीट की ठेकेदारी क्यों बन गई।
पत्थरों के डंगों को हटाकर कंक्रीट का लेबल चढ़ा कर या सारे शहर में लोहे का परचम फैला कर उन्होंने देखा क्या। विडंबना यह भी है कि सरकारी महकमों में ‘राजनीतिक औलाद’ काम कर रही है और नेतृत्व के लिए ऐसे मंत्री पुरस्कृत हैं जिन्हें सिर्फ अगले चुनाव के लिए केवल अपनी विधानसभा क्षेत्र की परिक्रमा करनी है। यही परिक्रमा धर्मपुर में डूबे बस स्टैंड की तख्ती बता रही है कि इस समुद्र में किसी नेता को जहाज खड़ा करना था। योजनाएं-परियोजनाएं प्रादेशिक प्राथमिकताओं को आगे नहीं बढ़ाएंगी, तो हार जाएंगे सारे प्रगति के मुगालते और बह जाएंगे चमकदार होर्डिंग। इस आपदा में प्रायश्चित के सबक हैं, तो राजनीतिक व्यवस्था को बदलने के संदेश भी। यह न तेरा, न मेरा, न पक्ष और न विपक्ष, न सरकार और न समाज के बीच विभक्त कोई पश्चाताप या आरोप है, बल्कि प्रदेश की जिम्मेदारियों में सभी की सहभागिता है। यह आपदा बता गई कि सरकारों की योजनाएं परियोजनाएं किस हद तक गलत रहीं और यह भी कि नागरिक समाज ने अपनी महत्त्वाकांक्षाओं से पहाड़ को निर्वस्त्र कर दिया। ऐसे में बहुत कुछ बदलना होगा, संभलना होगा। सर्वप्रथम प्रदेश के राहत-बचाव कार्यों में सरकार का साथ दें और इसके लिए देश में प्रति व्यक्ति आय के झंडे गाड चुके हिमाचली अब राज्य के राहत कोष को उदारता से ऐसी क्षमता प्रदान करें, ताकि कोई जख्म न बचे।
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