सम्पादकीय

बेघर लोग, बिखरी जिंदगी

Subhi
17 Dec 2022 5:57 AM GMT
बेघर लोग, बिखरी जिंदगी
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इसी से कभी-कभी इस पहलू पर बात करने की जरूरत लगने लगती है कि बहुत छोटे घेरों में सिमटती दुनिया और एकाकी होते लोगों को क्या सचमुच अब अन्य लोगों की जरूरत खत्म हो गई लगने लगी है! अपने जीवनकाल में हर व्यक्ति के कुछ ख्वाब, उनकी कुछ ख्वाहिशें होती हैं जो अधूरी रह जाती हैं और जिनको चाह कर भी वह पूरा नहीं कर पाता। आमतौर पर ज्यादातर लोग कहीं न कहीं मन में एक तड़प को साथ लिए इस दुनिया से विदा हो जाते हैं।

अनीता जगदीश सोलंकी: इसी से कभी-कभी इस पहलू पर बात करने की जरूरत लगने लगती है कि बहुत छोटे घेरों में सिमटती दुनिया और एकाकी होते लोगों को क्या सचमुच अब अन्य लोगों की जरूरत खत्म हो गई लगने लगी है! अपने जीवनकाल में हर व्यक्ति के कुछ ख्वाब, उनकी कुछ ख्वाहिशें होती हैं जो अधूरी रह जाती हैं और जिनको चाह कर भी वह पूरा नहीं कर पाता। आमतौर पर ज्यादातर लोग कहीं न कहीं मन में एक तड़प को साथ लिए इस दुनिया से विदा हो जाते हैं।

अक्सर हम अपने बारे में ही सोचते रहते हैं या अपने से जुड़े रिश्तों को लेकर परेशान होते हैं। लेकिन क्या हमने अपने दायरों से दूर उन परेशान लोगों की जिंदगी की तड़प देखने की कोशिश की है कभी, जिनके लिए न कोई त्योहार मायने रखता है, न उनके दिल में कोई उमंग होती है और न कुछ पाने की उम्मीद? सपने भी ऐसे, जिन्हें अपनी आंखों में बसाने का उन्हें हक नहीं!

अगर हमारे भीतर कहीं ऐसी संवेदनाएं उथल-पुथल मचाएं तो इसे खोजने के लिए बहुत ज्यादा मेहनत करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। किसी भी शहर और खासतौर पर महानगरों में सड़कों पर सफर करते हुए हमें उन तमाम लोगों की जिंदगी दिख जाएगी, जिनके दिन-रात या यों कहें कि पूरी उम्र ही फुटपाथ पर गुजर जाती है। कड़ाके की ठंड में सर्द हवाओं में कांपती हड्डियां, गर्मी की तपिश में झुलसती सांसें, बारिश की बूंदों के साथ बहते सपने और भूख से सिकुड़ती उम्र… जो शुरू होकर कब खत्म हो जाती है, पता ही नहीं चलता।

आज वक्त बदल रहा है और वक्त के साथ जमाना भी बदल रहा है। बड़े शहरों और महानगरों में स्मार्ट सोसाइटियों का संजाल खड़ा हो रहा है। लेकिन अगर कुछ नहीं बदल पा रही तो फुटपाथ पर बसर होती जिंदगी। देश बदल गया, हालात बदल गए, नई-नई तकनीकें ईजाद हो रही हैं, हर चीज इंटरनेट पर निर्भर हो रही है, जहां पलक झपकते ही सब काम हो जाते हैं। सरकारें बनती हैं, बदलती हैं और हर बार नई सरकार नई-नई योजनाओं को लागू करती है।

ऐसा पूरी तरह नहीं कहा जा सकता कि सरकारें मजबूर और कमजोर तबकों के लिए कुछ नहीं करतीं। कहने को बहुत काम होते रहते हैं, काम होने के दावे भी होते रहते हैं, लेकिन बस जमीन पर उनका दिखना कई बार अजूबा होता है। व्यवस्था में ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार की जड़ें इतनी गहरी और मजबूत हैं कि जो भी योजना खुले आसमान के नीचे जिंदगी काटने वाले बेघर लोगों के लिए तय की जाती रही है, वह जमीन पर न उतर कर सरकारी दफ्तरों और फाइलों में साल दर साल कहीं दफ्न रहती हैं।

भारत जैसे विशाल जनसंख्या वाले देश में वादे तो बहुत किए जाते हैं, लेकिन उसे निभाने की जिम्मेदारी किसी की नहीं होती। खासतौर पर वैसे लोगों के लिए, जो सियासत में मुनाफे का सौदा नहीं साबित हो पाते। यही कारण है कि आजादी के इतने बरसों बाद भी फुटपाथों की जिंदगी नहीं बदली। आज भी ऐसे लोगों की तादाद फिक्र पैदा करती है, जो आधुनिकता की चकाचौंध में महज रात काटने के लिए फुटपाथों का सहारा लेते हैं। स्मार्ट सिटी के शोर के बीच सिर ढकने की छत तक से वंचित तबकों के दुख को समझने के लिए अपनी संवेदना को थोड़ा ऐसी जिंदगी के करीब लाना होगा।

ऐसे में मन में यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या सच में हमने तरक्की की है? शायद नहीं। आज भी मासूम बचपन खुद को जिंदा रखने के लिए सांसों की जद्दोजहद के बीच से गुजरता है। एक बचपन सभी तरह की सुख-सुविधाओं के बीच है, तो वहीं दूसरी तरफ फुटपाथ पर गुजरते बचपन के सिर पर छत तो दूर की बात है, तन ढकने के लिए भी कपड़े और खाने को निवाला तक नहीं है। यहां उनके लिए शिक्षा का तो जिक्र करना भी व्यर्थ है। हम कैसे गर्व से कह सकते हैं कि देश तरक्की की बुलंदियों को छू रहा है?

आंकड़ों की मानें तो हमारा देश विकास की ऊंचाइयां छूने की ओर अग्रसर है। लेकिन गरीबी और भूख के आंकड़े भी समांतर स्तर पर चिंता पैदा कर रहे हैं। रोजाना फुटपाथ पर बिखरी जिंदगी दिखाई देखने के बाद परतें खुलती हैं। जिस कागजी हकीकत से हम रूबरू होते हैं, उसकी जमीनी हकीकत अभी कुछ और है। हमने सबका वक्त बदलते देखा है, लेकिन बेघर लोगों की जिंदगी की तस्वीर शायद ठहर चुकी है।

इनका जमाना और वक्त कब बदलेगा, इनके हालात और इनकी बेबसी के शोर कब सुने जाएंगे? बहुत कुछ तेजी से बदलते दौर में यह उम्मीद हो आती है कि इनका भी वक्त बदलेगा कभी और इनके लिए भी समाज का जज्बात कभी जागेगा।


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