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इन दिनों बाहर की दुनिया में बहुत से स्वयंभू विद्वान दिख रहे हैं
पं. विजयशंकर मेहता। इन दिनों बाहर की दुनिया में बहुत से स्वयंभू विद्वान दिख रहे हैं, जिन्होंने उद्घोषणा कर दी है कि कोरोना गया, डरो मत। लोग भी सब अपनी-अपनी मस्ती में उतर आए हैं। जानते-बूझते सही से जुड़ नहीं रहे, गलत को पकड़ रहे हैं। अधिकतर के भीतर का दुर्योधन अंगड़ाई ले चुका है। महाभारत के युद्ध में श्रीकृष्ण ने दुर्योधन को समझाया था तुम पांडवों के प्रति जो कर रहे हो, वह अधर्म है।
इस पर दुर्योधन ने पूरे आत्मविश्वास के साथ यह दु:साहसी संवाद बोला था- 'जानामि धर्मं न च में प्रवृत्ति:। जानाम्य धर्मं न च में निवृत्ति:।' मैं जानता हूं धर्म क्या है, पर उसमें मेरी प्रवृत्ति (रुचि) नहीं होती। मैं यह भी जानता हूं अधर्म क्या है, पर उससे मेरी निवृत्ति (छुटकारा) नहीं होती। इसके बाद उसने एक अच्छी बात भी बोली जो हमारे काम की है। 'केनािप देवेेन हृदि स्थितेन यथा नियुक्तोअस्मि तथा करोमि।' कोई देव यानी शक्ति है मेरे भीतर जो मुझसे गलत करवा जाती है।
आखिर वह कौन है जो हमसे गलत करवा जाता है? यह है हमारा मन। दुर्योधन को इसका समाधान इसलिए नहीं मिला कि उसका गुरु शकुनि था। दुर्योधन जैसे ही भ्रम, लाचारी और कुतर्क अर्जुन ने भी किए थे, परंतु उसे हर समस्या का समाधान मिलता गया, क्योंकि उसके गुरु थे कृष्ण। यह समय ऐसा है कि स्वयंभू विद्वान न बनते हुए अपने भीतर के कृष्ण का हाथ पकड़ो, हर कदम सावधानी से उठाओ।
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