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ओपिनियन
Faisal Anurag
पराजित हिटलर ने 30 अप्रैल 1945 को खुदकशी कर ली थी. लेकिन उसकी प्रेतछाया है कि दुनिया का पीछा ही नहीं छोड़ती. हर युद्ध की तबाही के बीच उसकी याद सताती है. इस समय जिस तरह 1944 में हंगरी की राजधानी बुडापेस्ट की घेराबंदी की गयी थी, ठीक वही हालत यूक्रेन की राजधानी कीव की है. 13 अप्रैल 1945 को अंतत: बुडापेस्ट को आत्मसमर्पण करना पड़ा था. सोवियत वोल्शेविक क्रांति के पहले वाला साम्राज्यवादी ताकत बनने की महत्वाकांक्षा पालने वाले पुतिन ने जिस तरह परमाणु बम वाले अग्रदस्ते को सक्रिय रहने को कहा है, एक बार फिर हिरोशिमा और नागासाकी का परिदृश्य याद आने लगा है. हिटलर के मरने के तीन महीनों बाद 6 अगस्त 1945 को हिरोशिमा और उसके तीन दिनों बाद नागासाकी में अमेरिका ने परमाणु तबाही की थी, जिसकी कीमज आज तक वहां के लोग चुका रहे हैं. यह कारनाम लोकतंत्र के सबे बड़े पैरोकारों में एक अमेरिका ने किया था.
लगता है कि शासकों ने इस इतिहास से कुछ सीखा नहीं, क्योंकि युद्धों ने राष्ट्रवादी विस्तारवाद की महत्वाकांक्षा को परवान ही चढ़ाया है. वैसे तो बेलारूस में रूस और यूक्रेन के बीच बातचीत शुरू हो गयी है, लेकिन यूक्रेन के ही राष्ट्रपति जेलेंस्की ने कहा है कि इससे ज्यादा उम्मीद नहीं की जा सकती.
चीन हालांकि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की वोटिंग में तटस्थ रहा और प्रराकांतर से रूस का साथ भी निभाया, लेकिन यूरोप की मीडिया की खबरों के अनुसार, चीन के लंबे समय तक तटस्थ बने रहने की उम्मीद नहीं है. हालांकि जिस तरह यूक्रेन को यूरापीय देश हथियार दे रहे हैं, उससे लगता है कि लंबे समय तक यूरोप में टकराव के हालात बने रहेंगे.
ऐसा कैसे हो गया है कि दुनिया में एक भी नैतिक स्वर ऐसा नहीं है, जो युद्ध के खिलाफ दुनिया भर में युद्धविरोधी माहौल और आंदोलन खड़ा कर दबाव बनाये. दरअसल युद्ध की जड़ें सामयिक घटनाओं में ही नहीं होती, वह तो एक कारण भर होता है. युद्ध-युद्ध में किस तरह का फर्क दुनिया करती है, इसे भी देखा- समझा जा सकता है.
इराक, अफगानिस्तान, फिलिस्तीन पर इजराइल के हमले में इसे देखा जा सकता है. हर आक्रमणकारी के पास एक बेशर्म तर्क होता है, जो न केवल अनैतिक जुमलों से भरा होता है बल्कि आर्थिक वैश्विक वर्चस्व की प्रतिस्पर्धा का हिस्सा भी होता है.
लोकतंत्र, मानवाधिकार या फिर देशों की संप्रभुता को लेकर बातें चाहे की जाएं, इस असलियत को नहीं झुठलाया जा सकता है कि इस समय दुनिया के ज्यादातर देशों में चुनावी एकतंत्र का बोलबाला है. लोकतंत्र के हालात पर जारी पिछले साल के सूचकांक में इसे लेकर चिंता व्यक्त की गयी. यही नहीं, दुनिया में इस समय नस्लवादी मानसिकता व धर्म के आधार पर नफरत का भाव चरम पर है. यूरोप को तो अपनी श्रेष्ठता का वैसे भी बोध है, लेकिन यूरोप के ही कुछ हिस्से इन श्रेष्ठतावादियों की नफरत के केंद्र रहे हैं. इसी का परिणाम है कि जर्मनी, अमरिका व नाटो के अनेक देश यूक्रेनी सरकार को हथियार दे रहे हैं और रूसी शासक 1917 के पूर्व के जारशाही साम्राज्य का स्वप्न देख रहे हैं.
सवाल है कि ऐसे हालात में विश्व जनमत का असर क्यों नहीं दिख रहा है. न तो अमेरिका के पास और न ही यूरोप के देशों के पास वह नैतिक साहस और ताकत है कि वह युद्ध के खिलाफ उठ कर खड़ा हो जायें. इसका एक बड़ा कारण तो वे हथियार के उत्पाद ओर सौदागर हैं, जो राष्ट्रवाद के भ्रम में दुनिया को विनाशकारी हथियारों से लेकर भारी मुनाफा कमा रहे हैं.
मुकेश असीम की टिप्पणी इस संदर्भ में अहम है : पूंजीवाद अपनी गति से ही फिर से उसी मर्णांतक संकट में जा पहुंचा है जिसका नतीजा साम्राज्यवादी देशों द्वारा दुनिया के बंटवारे की लूट-खसोट और युद्ध है. तात्कालिक गलती को लेकर इस या उस गिरोह के समर्थन में बहस करते रहा जा सकता है और "अपने" शासकों की हिमायत की जा सकती है , जैसा बहुतेरे कर रहे हैं. पर वास्तविकता है कि यह पूंजीवादी साम्राज्यवाद का अनिवार्य परिणाम है, जैसा लेनिन ने पहले साम्राज्यवादी विश्व युद्ध के वक्त ही बताया था.
अजय वोकिल इस युद्ध को पुराने नाजीवाद और नवनाजीवाद का टकराव बता रहे हैं. दरअसल 20 वीं सदी के उत्तरार्द्ध में द्वितीय विश्वयुद्ध में जर्मनी और धुरी राष्ट्रों की हार के बाद नाजीवाद का उभार नये रूप में हुआ. यह नाजीवाद का नया वैश्विक रूप है, जिसमें श्वेत नस्ल की सर्वश्रेष्ठता के साथ- साथ यहूदी विरोध, इस्लामोफोबिया ( इस्लाम को लेकर भय) और अलग- अलग देशों में अल्पसंख्यकों के प्रति नफरत भी शिद्दत से जुड़ गई है. नाजीवाद के राजनीतिक विचार को नवनाजीवाद अब इंटरनेट और सोशल मीडिया के माध्यम से बहुत तेजी से फैला रहा है. खासकर विश्व में इस्लामिक आतंकवाद के उभार के बाद प्रतिक्रियास्वरूप भी यह तेजी से फैला है.
वोकिल के ही शब्दों में आज जिसे नवनाजीवाद कहा जा रहा है, वह नाजीवाद का ही यह नया रूप है. शांति, अहिंसा और मानवता के सबक केवल कमजोर देशों के लिए हैं. दुनिया को चलाने का ठेका चंद मुल्कों के पास ही है. दूसरे शब्दों में कहें, तो लड़ाई केवल 'मेरा लट्ठ तेरे लट्ठ से ज्यादा बड़ा' की है. यह बेशर्म दादागीरी है. इसमें मानवीय संवेदनाएं, संप्रभुता के सम्मान और परस्पर सहचर्य और संवाद की कोई खास जगह नहीं है? यह प्रवृत्ति विश्व के बेहद डरावने भविष्य का संकेत है.
नस्लवाद की चरम घटना केवल ब्लैक लाइव्स मैटर में हीं नहीं, बल्कि यूरोप के अनेक देशों में भी देखने को मिल रही है. किसी भी देश को बारबार प्रताड़ित करना, आम तौर पर उसकी बातों को नजरअंदाज करना भी रूस और यूक्रेन के बीच इस विनाशकारी युद्ध की नींव में है. हथियारों की आपूर्ति के खेल में यूक्रेन अंधे सुरंग में धंस रहा है और रूस भी. रूस में जिस तरह के युद्धविरोधी आंदोलन तेज हुए हैं, उससे पुतिन के लिए जल्द ही घरेलू संकट का सामना करना पड़ सकता है. रूस का आर्थिक संकट तो पहले से ही खतरे के निशान पर है.
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