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- अभाव की मार

Written by जनसत्ता; हाल ही में एक खबर आई कि राशन की दुकानों में गरीबों से दबाव डाल कर बीस रुपए में तिरंगा झंडा बेचा जा रहा है। बहुत से लोगों को बीस रुपए देना भारी पड़ रहा है। कहीं-कही झंडे के बदले अनाज की मात्रा कम की जा रही है। रेलवे के कर्मचारियों से झंडे के नाम पर उनके वेतन से अड़तीस रुपए काटने की भी खबर आई। झंडे की कीमत में एकरूपता नहीं है। झंडे के नाम पर जिस तरह की घटनाएं सामने आ रही हैं, उससे तिरंगा के पावन उद्देश्य को नुकसान पहुंच रहा है।
हर भारतवासी, जिसका जन्म और प्रारंभिक शिक्षा इस देश में हुई है और वह एक सहज जीवन जीने वाला नागरिक है तो वह देशभक्त है और उस पर अलग से कोई राय थोपने की कोशिश उचित नहीं है। आजादी के अमृत वर्ष में घर-घर तिरंगा फहरा कर जश्न मनाना अच्छा विचार है, पर गरीबों पर (जो खरीद नहीं सकते) खरीदने के लिए दबाव डालना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है।
अगर झंडा फहराने को स्वैच्छिक कर दिया जाता तो भी लोग बढ़-चढ़ कर इस अभियान में जुड़ जाते। अच्छा होता अगर सरकार कोई कोष तैयार कर गरीबों को झंडे वितरित करने की कोशिश करती या स्वयंसेवी संस्थाएं गरीबों की बस्तियों में जाकर हर घर में झंडा फहरा देती। इसके लिए आने वाले खर्च को देश के कुछ बड़े उद्योगपति वहन कर अपनी देशभक्ति को अभिव्यक्ति कर सकते थे। देश ने उन्हें बहुत दिया है और दे रहा है। देशभक्ति एक स्वाभाविक और सहज आचरण होना चाहिए।