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इतिहास की समृद्ध परंपरा और धरोहर होती है।
अपने इतिहास को, अपनी जड़ों को जानना है। अपनी शक्तियों और अपनी कमजोरियों को पहचानना है। अपने वैभवशाली अतीत की विहंगम दृश्यावली के बीच खड़े होकर, उसमें अपने आप को खोजना है। कोई भी मानवीय समाज इतिहासविहीन नहीं हो सकता। पर इन समाजों में से कुछ समाज ऐसे होते हैं, जिनके पास इतिहास की समृद्ध परंपरा और धरोहर होती है।
भारत जैसे सांस्कृतिक बहुलता, पुरातन संस्कृति और महान सभ्यता वाले देश के पास इतिहास और ऐतिहासिक महत्व की पुरासामग्रियों की बहुलता है। इन पुरासामग्रियों को जानना और समझना वर्तमान के पीछे जाकर वर्तमान के आधार को समझना है। भारत में पुरास्थलों एवं पुरासामग्रियों के संरक्षण और संकलन के लिए भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग है। यह संस्कृति मंत्रालय के एक विभाग के रूप में कार्य करता है। इसके अंतर्गत संपूर्ण भारत को 24 मंडलों में विभक्त कर पुरास्थलों, संग्रहालय आदि का रखरखाव किया जाता है।
इस दिशा में प्रारंभिक प्रयास ब्रिटिश पुराशास्त्री विलियम जोन्स द्वारा 1784 में एशियाटिक सोसाइटी के रूप में किया गया। वर्ष 1814 में देश का पहला संग्रहालय बंगाल में बना। एएसआई की स्थापना वर्ष 1861 में तत्कालीन वायसराय जॉन कैनिंग की सहायता से अलेक्जेंडर कनिंघम ने की। लार्ड कर्जन के समय 1902 में इसे भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के रूप में केंद्रीयकृत कर जान मार्शल को इसका पहला महानिदेशक बनाया गया।
तब से लेकर आज तक इसके द्वारा अनेक ऐतिहासिक महत्व के पुरास्थलों व संग्रहालयों की स्थापना कर, उनका संरक्षण किया जाता है। पर इतिहास को बचाने और संरक्षित करने के यह केंद्रीकृत प्रयास पर्याप्त नहीं है। भारत जैसे बहुल सांस्कृतिक तत्व वाले देश में, जहां मूर्तिकला, चित्रकला, वस्त्र, भोजन, जीवन शैलियों में पर्याप्त भिन्नता मौजूद है, वहां यह प्रयास कदाचित पर्याप्त नहीं हैं।
यदि हम ध्यान दें, तो हम पाएंगे कि राज्य स्तर पर स्थापित होने वाले संग्रहालय में संपूर्ण राज्य की इस बहुलता को समेटना संभव नहीं होता। भारत के प्रत्येक जनपद का अपना इतिहास है, जिसमें बहुत से महत्वपूर्ण पर राष्ट्रीय इतिहास में उपेक्षित व्यक्तित्व, तथ्य व सामग्री होती हैं। स्थानीय स्तर पर कम से कम प्रत्येक जनपद में एक संग्रहालय बनाकर हम इस इतिहास को संरक्षित कर सकते हैं। ऐसा करने का लाभ यह होगा कि हमारी भावी पीढ़ी अपने स्थानीय इतिहास को जान सकेगी।
हम प्रायः खबरें देखते हैं कि किसी जनपद में पुरातात्विक सामग्री प्राप्त हुई फिर इस सामग्री का क्या होता है, हमें पता नहीं चलता। स्थानीय स्तर पर संग्रहालय न होने के कारण यह बहुमूल्य पुरासामग्री या तो नष्ट हो जाती है या तस्करों के हाथ लग जाती है। इस प्रकार हम अपने इतिहास का महत्वपूर्ण अंश खो देते हैं। जनपद स्तर पर निर्मित संग्रहालय में हम इन्हें पीढ़ियों के लिए संरक्षित कर सकते हैं। शैक्षिक दृष्टि से भी इनका बहुत महत्व होगा।
1952 में माध्यमिक शिक्षा के लिए बने मुदलियार आयोग ने विद्यालयों के लिए संग्रहालय बनाने की बात की थी। सीखने के स्थाई अनुभव देने, इतिहास को सजीवता से महसूस करने और उसमें रुचि जगाने के लिए यह पहल महत्त्वपूर्ण होती। परंतु विद्यालय स्तर पर इसे बनाना काफी महंगा और अव्यावहारिक है। हम इसे कम से कम जनपद स्तर पर बना सकते हैं। यह प्रयास राष्ट्रीय पाठ्यचर्या 2005 के मंतव्यों के अनुरूप भी होगा। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में इस संदर्भ में संकल्प प्रस्तुत किया गया है।
इसमें कलाकृतियों को जुटाने, संरक्षित करने, संग्रहालय निर्माण और वर्चुअल व ई-संग्रहालय बनाने की बात की गई है। स्थानीय इतिहास के संरक्षण की दृष्टि से, जनपद स्तर पर संग्रहालय स्थापित कर न केवल हम इतिहास को वृहद स्तर पर बचा सकते हैं वरन् स्थानीय पर्यटन को भी बढ़ावा दे सकते हैं।
(-निदेशक, रूहेलखंड शोध संस्थान, शाहजहांपुर)
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