सम्पादकीय

ऐतिहासिक या कामचलाऊ बजट?

Gulabi
1 Feb 2021 10:49 AM GMT
ऐतिहासिक या कामचलाऊ बजट?
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वित्त मंत्री ने कहा है कि इस बार उनका बजट सौ साल में एक बार आने वाले बजट की तरह होगा यानी ऐतिहासिक, अभूतपूर्व होगा।

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा है कि इस बार उनका बजट सौ साल में एक बार आने वाले बजट की तरह होगा यानी ऐतिहासिक, अभूतपूर्व होगा। हालांकि उनके इस दावे पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शनिवार को पानी फेर दिया, जब उन्होंने कहा कि निर्मला सीतारमण ने पिछले साल किस्तों में दो-तीन मिनी बजट पेश किए हैं और इस बार का बजट उसी का विस्तार होगा। यानी इस बार का बजट ऐतिहासिक होने की बजाय एक्सटेंशन बजट होगा, जिसे कामचलाऊ बजट भी कह सकते हैं। हां, बजट के ऐतिहासिक होने की एक ही स्थिति है कि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण पिछली बार से लंबा बजट भाषण पढ़ें! पिछली बार उन्होंने दो घंटे 40 मिनट तक बजट भाषण पढ़ा था, जो अब तक के इतिहास का संभवतः सबसे लंबा है!


बहरहाल, आज आने वाले बजट को कामचलाऊ बजट कहने की स्थिति इसलिए है क्योंकि नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा पेश किए गए अभी तक के सात बजटों में कभी भी कोई ग्रैंड विजन या बड़ा इकोनॉमिक नैरेटिव नहीं दिखा है। हर बार बजट बहुत साधारण रहा है और सरकार ने जो भी बड़े आर्थिक फैसले किए हैं वे सब बजट से बाहर किए गए हैं। इसका कारण संभवतः यह भी है कि बजट में अगर बड़ी नीतिगत घोषणा होगी तो उसका कुछ श्रेय वित्त मंत्री को भी जा सकता है। तभी नोटबंदी से लेकर जीएसटी तक सारी बड़ी घोषणाएं बजट से बाहर हुईं और प्रधानमंत्री ने खुद की। पिछले साल निर्मला सीतारमण ने एक आर्थिक पैकेज का भी ऐलान किया लेकिन उसके बारे में भी एक दिन पहले ही प्रधानमंत्री ने राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में बता दिया था। सो, यह उम्मीद नहीं की जा सकती है कि वित्त मंत्री किसी ग्रैंड विजन के साथ बजट पेश करेंगी या जिस तरह से इंडिया स्टोरी यानी भारत गाथा पिछले दशक में चर्चा में थी उस तरह का कोई नैरेटिव बजट से बनेगा।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पिछले चार-पांच महीने के भाषणों को जिसने भी ध्यान से सुना है वह बता सकता है कि इस साल के बजट की थीम आत्मनिर्भर भारत होगी। आत्मनिर्भर भारत अभियान की अपनी मुश्किलें हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने अपने कार्यकाल की शुरुआत मेक इन इंडिया से की थी। नट-बोल्ट से बना शेर का एक प्रतीक चिन्ह भी पेश किया गया था और जैसे अभी आत्मनिर्भर भारत की चर्चा हो रही है उस समय मेक इन इंडिया की चर्चा होती थी। इस अभियान की बुनियादी कमियों ने सरकार के अपने आर्थिक विशेषज्ञों को भी चिंता में डाला है। योजना आयोग की जगह बने नीति आयोग के पहले उपाध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया भी आत्मनिर्भर भारत अभियान में कई कमियां देख रहे हैं और अगर सरकार की दूसरी नीतियों के साथ इसे मिला कर देखें तो कई विरोधाभास भी नजर आते हैं।

जैसे सरकार कृषि सेक्टर को निजी हाथों में दे रही है तो दूसरी ओर सरकार अंतरराष्ट्रीय संधियों में शामिल नहीं हो रही है और ज्यादा आयात शुल्क लगा कर अपने निर्माण सेक्टर या डेयरी सेक्टर को बचाने का प्रयास कर रही है। एक तरफ दुनिया भर की कंपनियों को भारत में निवेश करने को आमंत्रण देना है, मेक इन इंडिया को बढ़ावा देना है तो दूसरी ओर आत्मनिर्भर भारत बनाने के लिए अपने देश की कंपनियों के प्रति संरक्षणवादी नीति अपनानी है!

पिछले साल पेश की गई मिनी बजट की शृंखला को देखें तब भी बजट का एक मोटा अनुमान लग जाता है। मिनी बजट में वित्त मंत्री ने सिर्फ सप्लाई साइड पर ध्यान दिया और डिमांड साइड की अनदेखी की। वित्तीय घाटा कहीं बहुत न बढ़ जाए या मांग बढ़ने से महंगाई न बढ़ जाए इस चिंता में सरकार ने लोगों के हाथ में पैसा नहीं पहुंचाया। इसका नतीजा यह हुआ कि विकास दर गिरती चली गई। बिना सोचे समझे लगाए गए लॉकडाउन की वजह से अर्थव्यवस्था का भट्ठा बैठा। पहली तिमाही में विकास दर 24 फीसदी गिर गई। दूसरी तिमाही में जीडीपी की विकास दर माइनस साढ़े सात फीसदी रही। दुनिया की 60 फीसदी आबादी यानी करीब 80 करोड़ लोग आधिकारिक रूप से गरीब हैं, जिनको सरकार पांच किलो अनाज देकर पेट भर रही है। यह अंदेशा भी है कि एबसोल्यूट पॉवर्टी यानी संपूर्ण गरीबी झेलने वाले भारतीयों की संख्या नाइजीरिया से ज्यादा न हो जाए!

वित्त मंत्री कह रही हैं कि अगले वित्त वर्ष में विकास दर 11 फीसदी रहेगी। अगर सचमुच अगले साल 31 मार्च तक देश की विकास दर 11 फीसदी रहती है तब भी इसका मतलब यह होगा कि 2020 के मुकाबले देश की जीडीपी एक-दो फीसदी बढ़ेगी। चूंकि चालू वित्त वर्ष में विकास दर माइनस में रही है इसलिए अगले वित्त वर्ष में ऊंची विकास दर का अनुमान लगाना बहुत आसान है। लेकिन हकीकत यह है कि उससे देश की जीडीपी वास्तव में नहीं बढ़ेगी वह 2020 के स्तर पर ही अटकी रहेगी। असल में चालू वित्त वर्ष की पहली छमाही में यानी अप्रैल से सितंबर के बीच ही देश की अर्थव्यवस्था 15 फीसदी सिकुड़ गई। दूसरी छमाही में सुधार के बावजूद पूरे साल में यानी 31 मार्च तक इसके 10 फीसदी सिकुड़ने का अनुमान है।

यानी 2019-20 में जितना सकल घरेलू उत्पाद था, उससे दस फीसदी कम उत्पादन 2020-21 में होगा। सो, अगर 2021-22 में जीडीपी 11 फीसदी की रफ्तार से बढती है तब भी वह 2019-20 की जीडीपी से सिर्फ एक फीसदी ही ज्यादा होगी। सोचें, नोटबंदी के फैसले की वजह से जीडीपी को दो फीसदी का नुकसान हुआ था तो देश की अर्थव्यवस्था उस झटके से चार साल बाद तक नहीं उबर पाई। मार्च 2020 तक लगातार आठ तिमाही में विकास दर गिरती गई और वित्त वर्ष 2019-20 में विकास दर सिर्फ चार फीसदी रही। अब अगर एक साल में जीडीपी में 10 फीसदी यानी कोई 20 लाख करोड़ रुपए की गिरावट रहती है तो उस झटके से निकलने में देश को कितना समय लगेगा?

अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की मुख्य आर्थिक सलाहकार गीता गोपीनाथ का अनुमान है कि कोरोना से पहले की स्थिति यानी मार्च 2020 की चार फीसदी विकास दर वाली स्थिति तक पहुंचने में भारत को चार साल लगेंगे। भारत कोरोना से पहले की स्थिति तक 2025 में पहुंचेगा। इसका एकमात्र कारण कोरोना को रोकने के नाम पर बिना सोचे-समझे लगाया गया लॉकडाउन था। वह एक तरह की नोटबंदी थी, जिसने अर्थव्यवस्था का भट्ठा बैठाया। भारत सरकार कुछ भी दावा करे, लेकिन हकीकत यह है कि कोरोना की महामारी के वित्त वर्ष में भारत की अर्थव्यवस्था की स्थिति दुनिया के बाकी देशों के मुकाबले बहुत खराब रही। भारत में अर्थव्यवस्था 9-10 फीसदी सिकुड़ी है, जबकि दुनिया की अर्थव्यवस्था चार फीसदी सिकुड़ी है। गीता गोपीनाथ का कहना है कि दुनिया की दो सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं- अमेरिका और चीन में सिर्फ एक-डेढ़ फीसदी का संकुचन हुआ है। सो, यह भूल जाएं कि अगले दो-चार साल में देश की आर्थिक हालत सुधरने वाली है!

हां, भारत सुधार के रास्ते पर आ सकता है अगर वित्त मंत्री ने बजट में कुछ साहसिक फैसले किए हों। सरकार को सबसे साहसिक फैसला यह करना है कि वह वित्तीय घाटे की चिंता छोड़े और राजकोषीय अनुशासन के नियमों में बंधे रहने की बजाय अमेरिका, जापान, यूरोपीय संघ आदि से सीख लेकर लोगों के हाथ में पैसा दे। कम से कम देश की 30 फीसदी आबादी के खाते में नकद पैसे डाले जाएं। बाकी लोगों को राहत देने के लिए सरकार तत्काल टैक्स की दरों में और कमी करे। कोरोना महामारी के बीच पिछले साल मई में सरकार ने पेट्रोल पर 10 रुपए और डीजल पर 13 रुपए उत्पाद शुल्क लगाया था, इसे तत्काल वापस लिया जाए ताकि पेट्रोलियम उत्पादों की कीमत कम हो। सरकार कोई भी कोविड सेस यानी उपकर लगाने के बारे में सोचे भी नहीं क्योंकि इससे हालात और बिगड़ेंगे। ध्यान रहे सेस का पैसा सीधे केंद्र के खाते में जाता है, जबकि अभी पैसे की जरूरत राज्यों को ज्यादा है। सरकार बजट में वादा करे कि जीएसटी कौंसिल में सहमति बना कर अप्रत्यक्ष करों में कटौती की जाएगी। यानी किसी तरह से सरकार लोगों के हाथ में पैसे पहुंचाए। इसके बगैर न अर्थव्यवस्था की गाड़ी चलनी है, न रोजगार पैदा होना है और न लोगों के जीवन स्तर में सुधार होना है।


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