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- उसके भरे हुए कान
वह अपने कानों से परेशान है। पहले वह जितना सुनता था, उतना सुनना चाहता भी था। अब उसे कहीं अधिक सुनना पड़ रहा है। देश के शब्द -देश की ध्वनियां उसे भीतर तक चीर रही हैं। उसे पकड़-पकड़ कर या कभी कान पकड़ कर सुनाया जा रहा है। वह हैरान इसलिए भी है कि उसे सुना कर यह अपेक्षा की जा रही ही कि जो उसने सुना है, उससे कई गुणा ज्यादा वह भी सुनाए। लोग इतना सुन चुके हैं कि अब वे सुनी-सुनाई के बजाय यह तय कर चुके हैं कि किससे सुनने कर साधुवाद दें और किसे नकार दें। दरअसल अब कान व नाक के भीतर फर्क बढ़ गया है। कई बार नाक के लिए सुन लेते हैं, तो कई बार नाक के लिए ही नहीं सुनते। उसने भी तय कर लिया कि नाक की हिफाजत का काम कान को दे दे, मगर इससे उसकी नाक छोटी व कान बड़े हो रहे हैं। देखते ही देखते उसके कान इतन बड़े हो गए हैं कि कोई अपना मुंह डालकर उसे सुना दे। उसके कान अब ऐसी संपत्ति बन गए, जो बिक सकते हैं, बल्कि हर दिन कोई न कोई उसके कानों का उसी तरह सौदा करना चाहता है, जैसे मंडी में कोई सब्जी बिक रही हो। उसे अपने ही दिमाग पर तरस आता है, जिसका हर तर्क और ज्ञान बेकार साबित हो रहा है। न तो देश उसे दिमाग की वजह से जान रहा है और न ही देश को उसके ज्ञान की जरूरत है। वह अपने ही दिमाग के कारण बौना हो रहा है, इसलिए उसे अब फर्क नहीं पड़ता कि देश सोच क्यों नहीं रहा। वह केवल सुन सकता है, इसलिए उसके कान पूरी तरह भरे हुए रहते हैं। सस्ते राशन के गोदामों से कहीं ज्यादा उसके कानों में हर सूचना भर चुकी है। उसके कान ही उसका दिशा-निर्देश करते हैं।
सोर्स- divyahimachal