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लिहाजा समय रहते इसका निवारण करना होगा।
पांच राज्यों के चुनावी नतीजों के बाद जातिगत जनगणना राजनीति का केंद्र बिंदु बनेगी, इसके संकेत आने प्रारंभ हो गए हैं। समाजवादी पार्टी, राजभर कीसुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी, अपना दल कमेरा, संजय चौहान की जनवादी पार्टी के साथ-साथ उत्तर प्रदेश एनडीए के दोनों प्रमुख घटक अपना दल (अनुप्रिया गुट) और निषाद गुट ने अपनी चुनावी सभाओं में इसकी मांग की। इन दलों द्वारा 1931 की जनगणना को त्रुटिपूर्ण एवं जातीय विद्वेष पर आधारित माना गया है।
परिणाम चाहे कुछ भी रहे, लेकिन 2024 के चुनाव की लामबंदी को लेकर इसे चुनावी मुद्दा बनाने के लिए उत्तर प्रदेश के दल सक्रिय हो गए हैं। इसी बीच, जातिगत जनगणना अभियान के पैरोकार नीतीश कुमार का वक्तव्य काफी अर्थपूर्ण हो गया है, जिसमें उन्होंने पांच राज्यों के चुनाव के बाद जातिगत जनगणना को लेकर सर्वदलीय बैठक बुलाने की घोषणा की है। अगस्त, 2021 में नीतीश कुमार के नेतृत्व में एक सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल प्रधानमंत्री से भेंट कर जातिगत जनगणना कराने की गुहार लगा चुका है।
कुछ समय पूर्व तेलंगाना विधानसभा द्वारा भी इस आशय का सर्वसम्मत प्रस्ताव पारित हो चुका है। आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, ओडिशा, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र की सरकारों ने इसका समर्थन किया है। वहीं केंद्रीय गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय द्वारा संसद में जनगणना की मांग ठुकराई जा चुकी है। उनके अनुसार, 2011 की जातिगत जनगणना में गलतियां और अशुद्धियां थीं। सुप्रीम कोर्ट में दाखिल अपने हलफनामे में केंद्र सरकार ने कहा है कि जातिगत जनगणना पारंपरिक रूप से असक्षम, प्रशासनिक रूप से कठिन और बोझिल है।
यद्यपि इसी प्रकार की जनगणना एससी/एसटी वर्गों के लिए की जा चुकी है। आजादी से पहले ही नौकरियों और शिक्षा में पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण देने की शुरुआत कर दी गई थी। महाराष्ट्र में कोल्हापुर के छत्रपति शाहू जी महाराज ने 1901 में पिछड़े वर्ग की गरीबी दूर करने और राज्य प्रशासन में उन्हें हिस्सेदारी देने के लिए आरक्षण देना शुरू किया था। भारत में कमजोर वर्गों के कल्याण के लिए आरक्षण उपलब्ध कराने वाला यह पहला सरकारी आदेश है।
1901 में ही मद्रास प्रेसिडेंसी के सरकारी आदेश के तहत कमजोर वर्गों के लिए 44 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था की गई थी। शाहू जी महाराज और डॉक्टर आंबेडकर के बाद पिछड़ी जातियों एवं अन्य पिछड़ी जातियों के आरक्षण के सिद्धांत को लागू करने का श्रेय कर्पूरी ठाकुर को जाता है। 1971 में बिहार के मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने मुंगेरीलाल कमीशन का गठन किया और आयोग ने 1975 में अपनी रिपोर्ट दी, जिसमें पिछड़े वर्गों को दो भागों में विभाजित किया गया।
1977 में जनता पार्टी का मुख्यमंत्री बनने के बाद 1978 में उन्होंने इस रिपोर्ट को स्वीकार किया, तब सरकारी नियुक्तियों में आरक्षण का फार्मूला बना, जिसके तहत आठ फीसदी ओबीसी, 12 फीसदी एमबीसी, 14 फीसदी एससी, 10 फीसदी एसटी, तीन फीसदी महिला और तीन फीसदी आर्थिक रूप से पिछड़ों को आरक्षण दिया गया। इसी प्रश्न पर जनता पार्टी दो हिस्सों में बंट गई और कर्पूरी ठाकुर को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा। अफसोस है कि जातिगत जनगणना का कार्य अभी आगामी दस वर्षों के लिए स्थगित करने की योजना है।
इससे आजादी के अमृत महोत्सव में आधी से अधिक आबादी को लंबे समय तक न्याय की प्रतीक्षा करनी होगी। मंडल कमीशन की सिफारिश लागू हुए 28 वर्ष पूरे हो चुके हैं, इसके बावजूद केंद्रीय मंत्रालय में महज 5.4 फीसदी ओबीसी अधिकारी हैं। हाल ही के दिनों में केंद्र सरकार ने लैटरल एंट्री से संयुक्त सचिव पद के लिए नियुक्ति शुरू कर दी है, जिससे पिछड़ा वर्ग एवं दलित समाज शंकाओं से भरा हुआ है। अब यह प्रश्न राष्ट्रीय राजनीति का सबसे प्रमुख मुद्दा बनेगा, इसकी प्रबल संभावना है। केंद्र सरकार स्वयं पहल कर नीट परीक्षाओं में 27 फीसदी आरक्षण लागू कर चुकी है, इसलिए इस प्रश्न पर लंबी चुप्पी हाशिये पर आए वर्गों के कोप भाजन का शिकार न बने, लिहाजा समय रहते इसका निवारण करना होगा।
सोर्स: अमर उजाला
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