सम्पादकीय

हिंदू भारत में बहुसंख्यक हैं दुनिया में नहीं, आखिर हिंदुओं के दु:खों पर बात करने से संकोच क्यों?

Gulabi Jagat
24 March 2022 8:53 AM GMT
हिंदू भारत में बहुसंख्यक हैं दुनिया में नहीं, आखिर हिंदुओं के दु:खों पर बात करने से संकोच क्यों?
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किसी विचित्र कारण के चलते भारत के अंग्रेज़ी बोलने वाले इंटेलेक्चुअल-सर्किल में हिंदुओं के साथ हुए अत्याचारों पर बातें करना ‘कूल’ नहीं समझा जाता
चेतन भगत का कॉलम:
किसी विचित्र कारण के चलते भारत के अंग्रेज़ी बोलने वाले इंटेलेक्चुअल-सर्किल में हिंदुओं के साथ हुए अत्याचारों पर बातें करना 'कूल' नहीं समझा जाता। लेकिन यही इंटेलेक्चुअल लोग ये मानते हैं कि 'माइनोरिटी' से जुड़े मामलों पर बात करना बहुत अच्छा और प्रगतिशील होना है।
इसके पीछे यह सोच है कि चूंकि अल्पसंख्यक लोग संख्या में कम हैं, इसलिए वे कमजोर तबके के हैं और कमजोर तबकों के बारे में बातें करना अच्छा होता है, ठीक? दूसरी तरफ हिंदू बहुसंख्यक हैं। चूंकि वे संख्या में ज्यादा हैं, इसलिए यह अपने आप तय हो जाता है कि वे मजबूत हैं और वे अल्पसंख्यकों पर दबदबा बनाकर रखते हैं। इतना ही नहीं, अब तो हिंदू-हित की बात करने वाली पार्टी भी आठ सालों से सत्ता में है। वैसे में हम हिंदुओं की समस्याओं पर बातें कैसे करें? हिंदुओं के दबदबे वाले देश में हिंदुओं के लिए कोई समस्याएं हो भी कैसे सकती हैं?
यही कारण है कि भारत के इंटेलेक्चुअल लोग 'द कश्मीर फाइल्स' की बड़ी कामयाबी से दु:खी हैं। इस लो-बजट फिल्म में कोई सुपरस्टार नहीं थे। इसका समर्थन करने वालों में कोई बड़ा नाम नहीं था। न इसके लिए मेगा-मार्केटिंग कैम्पेन चलाया गया और न ही क्रिटिक्स ने इसकी तारीफों के पुल बांधे। इसके बावजूद यह फिल्म तकरीबन तमाम बॉलीवुड-रिकॉर्डों को तोड़ चुकी है। इसने समाज पर गहरा असर भी डाला है। इसने बहसें छेड़ी हैं और दर्शकों को भावुक किया है।
लेकिन हमारे इंटेलेक्चुअल लोगों को यह फिल्म अच्छी नहीं लगी। उन्होंने इसे खारिज करने की भरसक कोशिशें की। जब वे इसमें नाकाम हो गए ताे उन्होंने अपनी इंटेलेक्चुअलों वाली हरकतें शुरू कर दीं कि जो चीज पसंद न आए, उसे पक्षपातपूर्ण, प्रोपगंडा, फर्जी आदि घोषित कर दो। लेकिन इसका फिल्म पर कोई असर नहीं पड़ा। 1990 के दशक में कश्मीर घाटी से पंडितों के पलायन पर केंद्रित यह फिल्म हमें झकझोर देती है।
इस त्रासदी पर जितनी बहस होना चाहिए थी, उतनी नहीं हुई है। इस फिल्म ने यह भी बताया कि हिंदुओं की समस्याओं पर बातें करने वाली फिल्मों की हमारे यहां कितनी कमी रही है, जो दर्शक इसको देखने उमड़ पड़े। क्योंकि सच यही है कि भारत में आप सार्वजनिक रूप से हिंदुओं की समस्याओं पर बात नहीं कर सकते, अगर आपने की तो इंटेलेक्चुअल लोग आप पर चढ़ बैठेंगे। बड़ी उम्दा अंग्रेजी में वो आपको नीचा दिखाने की कोशिश करेंगे। आखिर में आप कम्युनल होने के ठप्पे से इतना डर जाएंगे कि चुप हो जाएंगे। (इस कॉलम के बाद अब मैं भी साम्प्रदायिक कहलाने के लिए तैयार हूं)।
लेकिन सच तो कहा ही जाएगा। फिल्म भले ही परफेक्ट न हो, भले उसमें हिंसा के विचलित कर देने वाले दृश्य हों, भावना का उफान हो और शायद उसकी कहानी में कुछ जगहों पर रचनात्मक स्वतंत्रता भी ली गई हो, इसके बावजूद फिल्म वही बताती है जो वास्तव में हुआ था। भारत में- जहां बहुसंख्य आबादी हिंदुओं की है- एक राज्य में हिंदुओं को निर्ममता से मारा गया और अपने घर से निकाल दिया गया। इसके बावजूद उस समय की सरकार ने कुछ नहीं किया। क्योंकि मुस्लिम वोटबैंक उस समय की सरकार का हिमायती था।
इससे हमें यह भी अंदाजा लगता है कि हम कैसे समय में जी रहे थे। मुसलमानों के वोट कितने कीमती माने जाते थे। यही कारण था कि जब देश में चरमपंथी इस्लामिक संस्थाएं फैलने लगीं तो उन्हें रोकने के लिए कुछ नहीं किया गया। आतंकी हमले और बम धमाके होते रहते थे और तथाकथित 'ताकतवर बहुसंख्यक' डर में जीने को मजबूर थे। लेकिन आज यह सब नहीं होता। आज जो सरकार केंद्र में है, वह हिंदू हितों की रक्षा करती है। हो सकता है कि वह उनके पक्ष में झुकी हुई भी हो, क्योंकि शायद वही उनका वोटबैंक है। लेकिन जो आज है, उससे अतीत में तुष्टीकरण के नाम पर जो कुछ हुआ था, उसे बदला नहीं जा सकता।
इस कॉलम का मकसद हिंदुओं और मुसलमानों के बारे में बात करना नहीं है। इसमें कोई शक नहीं कि भारत में अनेक धर्मों के लोग मिलकर रहते हैं। हमारी जीडीपी में सभी का योगदान है। लेकिन हमें समझना होगा कि अतीत में सभी समुदायों को तकलीफें झेलना पड़ी हैं, जिनमें हिंदू भी शामिल हैं। आबादी के प्रतिशत से यह नहीं तय हो जाता कि हमलावर कौन था और शिकार कौन बना।
ब्रिटिश-राज के दौरान भारत में अंग्रेज अल्पसंख्यक थे, तो उस समय विक्टिम कौन था- भारत के लोग या अल्पसंख्यक अंग्रेज? लेकिन हमारे इंटेलेक्चुअल्स अपने को श्रेष्ठ दिखाने में इतने मसरूफ हैं कि वे भारत के अतीत को भी परख नहीं पाते हैं। 'द कश्मीर फाइल्स' को प्रोपगंडा बोलना ना केवल कश्मीरी पंडितों बल्कि पूरे देश के हिंदुओं की भावनाओं को ठेस पहुंचाना है।
ये सच है कि भारत केवल हिंदुओं के लिए नहीं है। यह अनेक समुदायों का घर है, जिन्होंने अतीत में तकलीफें सही हैं। इनमें हमारे मुसलमान भाई और बहन भी शामिल हैं और हमें उनकी समस्याओं को सुनना चाहिए। लेकिन हमें यह भी समझना चाहिए कि हिंदुओं ने भी कम दु:ख नहीं झेले हैं। एक-दूसरे की तकलीफों को सुनना और उनके लिए हमदर्दी जताना एकतरफा चीज नहीं होनी चाहिए। 'द कश्मीर फाइल्स' एक ऐसी कहानी है, जिसे कहना जरूरी था। उसकी अभूतपूर्व सफलता यह भी बताती है कि इस कहानी को सुना जाना भी इतना ही जरूरी है।
हिंदू भारत में बहुसंख्यक हैं दुनिया में नहीं
हिंदू भले ही भारत में बहुसंख्यक हों, लेकिन दुनिया में वे तुलनात्मक रूप से अल्पसंख्यक हैं। नेपाल के अलावा भारत ही ऐसा देश है, जहां हिंदू बहुसंख्या में हैं। जब कश्मीरी पंडितों पर अत्याचार हुआ और सरकार कुछ नहीं कर पाई तो इसने हिंदुओं के इस भरोसे को डिगा दिया कि भारत उनका घर है। जो लोग यह कहते हैं कि कश्मीरी पंडितों की इतनी बातें मत करो, उन्हें इसे समझना चाहिए।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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