- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- 'हरिद्वार के धर्म संसद...
x
आंखें मूंद लेना या किसी हकीकत को नज़रअंदाज कर देना कोई अच्छी बात नहीं होती
संजय झा
आंखें मूंद लेना या किसी हकीकत को नज़रअंदाज कर देना कोई अच्छी बात नहीं होती. शरीर के अंदर का जहर बढ़ता ही है अगर हम कैंसर के फैलाव को सिर्फ एक मौसमी फ्लू मान लें. जानबूझकर सच को नकारना अंत में दुख ही देता है. दरअसल, हम भारतीय बहुत लंबे समय से मुगालते में रहे हैं. वो भी विकल्प रहने के बावजूद. अपने देश में नफरत के वायरस के खतरनाक प्रसार को हमने जानबूझकर नजरअंदाज किया है, क्योंकि आम भारतीय को प्रभावित करने वाली हिंसक प्रवृत्तियों के प्रति हम लोग बिल्कुल उदासीन हैं.
अगर सच कहा जाए तो हम परवाह ही नहीं करते हैं. उन लोगों के बारे में हमारी सोच पाखंड से भरी है, जो हमारे जैसे नहीं हैं. मुझे उम्मीद है कि कम से कम आप में से बहुत से लोग जो इस लेख को पढ़ रहे हैं, काफी इमानदारी के साथ ये स्वीकार कर रहे होंगे कि वास्तव में यह एक सच है. आखिर मुंबई के मालाबार हिल या नई दिल्ली के महारानी बाग में अभी तक मॉब लिंचिंग नहीं हुई है. जब तक दलाल स्ट्रीट तेजी से आगे बढ़ रहा है, पसंदीदा यूरोपीय रेस्तरां से स्विगी के ऑर्डर समय पर आते हैं, ड्राइवर और घर की मेड आराम से काम कर रही हैं, महंगे फल आसानी से मिल रहे हैं और हम ये चर्चा कर सकते हैं कि हमें इलेक्ट्रिक एसयूवी खरीदनी चाहिए या नहीं, तब तक हम पूरी तरह ठीक हैं. लेकिन क्या वाकई में हम ठीक हैं? हमारे नज़रअंदाज कर देने से तथ्य समाप्त नहीं हो जाते.
हरिद्वार के धर्म संसद में दिया गया भड़काऊ बयान
एक भयावह शांति के बाद ये किसी न किसी मोड़ पर तबाही लाने वाले विशाल सुनामी की तरह लौटते हैं. 18-19 दिसंबर 2021 को उत्तराखंड के हरिद्वार में धर्म संसद में दिया गया भड़काऊ बयान यही संकेत देता है कि भारत तेजी से ब्लैक होल में समा रहा है. हिंदुत्व ब्रिगेड के उग्रवादी सोच रखने वाले सदस्यों ने उस धार्मिक सभा में मुसलमानों के खिलाफ नरसंहार की खुली घोषणा कर दी. लोगों से हथियार उठाने को कहा. महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) के हत्यारे नाथूराम गोडसे (Nathuram Godse) को महिमामंडित किया गया. उसे देशभक्त का अवतार कहकर मौजूदा वक्त की बड़ी जरूरत बताया गया. हिंदू राष्ट्र बनाने का संकल्प दोहराया गया. पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को हत्या का संभावित लक्ष्य बताया गया. ये धार्मिक मंडली के कट्टर दुराग्रहियों की कोई गुप्त और भूमिगत बैठक नहीं थी. ये सब कुछ सार्वजनिक तौर पर हो रहा था, लाउडस्पीकर बज रहे थे, वीडियो-रिकॉर्डिंग चल रही थी, तालियों की गड़गड़ाहट से इस विषाक्त प्रलाप का स्वागत हो रहा था.
वहां मौजूद लोगों में बीजेपी नेता भी शामिल थे. नफरत फैलाने वालों को अपने निर्वाचन क्षेत्र का और विस्तार करना है. वे प्रचार के ऑक्सीजन पर जीवित रहते हैं. और ये सब कुछ उन्हें हासिल हो रहा है. यह आश्चर्य की बात नहीं है कि राज्य की सरकार ने इस खतरनाक समूह को इन बातों का लाइसेंस दे दिया. क्योंकि ये तब तक इतने मुखर और उग्र नहीं हो सकते जब तक इन्हें कोई राजनीतिक संरक्षण न मिला हो. कुछ ही महीनों में उत्तराखंड में चुनाव होने वाले हैं. राज्य में बीजेपी की सरकार है.
मैं सोचता हूं महात्मा गांधी होते तो देश में – जिसके लिए उन्होंने गोलियां खाईं – नस्लीय दंगे के इस आह्वान को सुनकर क्या सोचते?
दरअसल, मौजूदा हालात की शुरुआत तो काफी पहले 2014 में ही हो गई थी. जब मुख्यधारा की मीडिया, सिविल सोसाइटी, कॉर्पोरेट अधिकारियों, सीईओ, मध्यम वर्ग, उदार अभिजात वर्ग आदि के लोगों ने भारत के सबसे बड़े अल्पसंख्यक (मुसलमानों) के प्रति संघ परिवार की खुली दुश्मनी को जानबूझकर नजरअंदाज कर दिया. हमारे देश में मुसलमानों की संख्या 20 करोड़ है. बीजेपी को समर्थन देना आम जनमानस का सचेत निर्णय था, जिसके लिए सिर्फ बीजेपी की सफल प्रचार मशीन की काफी नहीं थी. लोगों को अक्सर एक बहाने की जरूरत होती है ताकि वो अपनी आंतरिक कल्पनाओं के साथ प्रयोग कर सकें. इस मामले में, एक आक्रामक और मजबूत बहुसंख्यकवाद को देखने की इच्छा हमारे सामाजिक ताने-बाने में समा गई.
दिल्ली के जंतर-मंतर पर और हरिद्वार में घातक और नफरती भाषणों को देखकर आज कई लोग बीजेपी को वोट देने के अपने फैसले पर खेद व्यक्त करते हैं. लेकिन वे एक असहज सच्चाई का सामना करने के लिए तैयार नहीं हैं. वे जानते थे कि वे क्या कर रहे हैं. कम से कम ये जानकारी तो उनके पास होनी ही चाहिए. अगर सांता क्लॉज के पुतले जलाए जा रहे हैं और सेलिब्रिटी राजनेता "देश के गद्दारों" जैसे नारे लगा रहे हैं, तो हम एक गंभीर समस्या से जूझ रहे हैं. मौजूदा मुख्यधारा की मीडिया पर अब यही नया फ्रिंज तत्व काबिज है. मुखौटा अब हट चुका है. मुसलमानों पर हमले, गाली-गलौज और अपमान अब रोजमर्रा की बात होती जा रही है. देश में पहले भी सांप्रदायिक संघर्ष हुए हैं, लेकिन आज इन बातों पर खुले तौर पर विमर्श हो रहा है.
यूपीए के दौरान में देश में बहुत विकास हुआ
हिंदू-मुस्लिम मुद्दा भारत का पसंदीदा विषय रहा है. लेकिन अब हिंदुत्व, हिंदू धर्म पर भारी पड़ रहा है. सच्चाई ये है कि भारत ने इस नकारात्मकता को स्वेच्छा से स्वीकार कर लिया है. क्योंकि हम जाहिर तौर पर "विकास" चाहते थे. और यही वो जगह है जहां हमारी बातचीत पेचीदा हो जाती है. सच कहूं तो मैं कभी ये नहीं समझ सका कि "विकास" जैसे मामूली शब्द को फिर से कैसे पुनर्स्थापित किया गया? इस "विकास" ने कैसे लोगों को मंत्रमुग्ध कर दिया. जबकि यूपीए के 10 वर्षों के शासन काल में भारत 7.8 फीसदी की दर से सकल घरेलू उत्पाद (GDP) की वृद्धि दर्ज करते हुए 2.5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था (चीन के ठीक नीचे) बन गया था. 270 मिलियन लोगों को गरीबी से बाहर निकाला गया, बड़ी-बड़ी तकनीकि कम्पनियों का नया ऑफिस तैयार हुआ, कई यूनिकॉर्न शुरू हुए, 330 बिलियन डॉलर से अधिक विदेशी मुद्रा भंडार हासिल हुआ, सॉफ्ट पावर का निर्यात हुआ और देश ने खुद को "विकास" के बगैर ही एक मध्यम आय वाले देश और प्रतिष्ठित जी-20 के सदस्य के रूप में स्थापित कर लिया?
यह हास्यास्पद नहीं है तो क्या है? (बेशक, कांग्रेस पार्टी का घटिया संचार तंत्र भी एक बड़ी वजह बना जिसकी जानकारी सभी को थी.) मेरी राय में, सत्ता परिवर्तन के लिए नरेंद्र मोदी की सबसे बड़ी क्षमता ये थी कि उन्होंने आम जनता को ये विश्वास दिलाया कि उनके पास एक जादू की छड़ी है जो हमें हमेशा के लिए 10 फीसदी से अधिक जीडीपी विकास दर देगी. उनके चुनावी जीत के सात साल बाद भी भारत का मानव विकास सूचकांक, वैश्विक भूख सूचकांक, जीडीपी विकास दर में निराशाजनक प्रदर्शन रहा है. आय असमानता और गरीबी निरंतर बढ़ ही रही है. बड़े पैमाने पर 145,000 करोड़ रुपये के टैक्स-सोप और ईज ऑफ डूइंग बिजनेस रैंकिंग के खेल के बावजूद, घरेलू निजी क्षेत्र का निवेश सुस्त बना है.
कामकाजी उम्र की आबादी के बीच बड़े पैमाने पर बेरोजगारी की वजह से भारत आज जनसांख्यिकीय आपदा का सामना कर रहा है. रौंद देने वाली दूसरी कोविड लहर के बारे में जितनी कम बात की जाए उतना अच्छा है. लेकिन विकट आर्थिक गड़बड़ी और जबरदस्त शासकीय विफलताओं के बावजूद, बीजेपी, आरएसएस, मोदी और पूरी भगवा ब्रिगेड को कोई परेशानी नहीं हैं. क्योंकि उनके पास हरिद्वार है. क्योंकि उनके पास हिंदुत्व प्रोजेक्ट है. क्योंकि उनमें हमेशा सत्ता में बने रहने का जुनून है. हमने 2014 में एक फैसला लिया. अब विजेता अपने फैसले ले रहे हैं.
डिस्केलमर: (लेखक कांग्रेस के पूर्व प्रवक्ता हैं. ये विचार लेखक के अपने हैं.)
Next Story