सम्पादकीय

आतंकी निशाने पर हिंदू-सिख

Gulabi
9 Oct 2021 5:25 AM GMT
आतंकी निशाने पर हिंदू-सिख
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कश्मीर घाटी में 5 दिन में 7 हत्याएं…

दिव्याहिमाचल.

कश्मीर घाटी में 5 दिन में 7 हत्याएं…! शायद यह आंकड़ा बढ़ भी जाए, क्योंकि आतंकी आम कश्मीरी को मार रहे हैं। श्रीनगर में प्रख्यात दवा कारोबारी और चिकित्सा में जुटे माखनलाल बिंदरू हो या चाट-गोल गप्पे बेचने वाला बिहारी वीरेंद्र पासवान हो अथवा शिक्षा-मंदिर की प्रिंसिपल सतिंदर कौर और अध्यापक दीपक चंद हों, उन्हें निशाना बनाकर मार दिया गया। कश्मीर में यह धुर इस्लामी आतंकवाद का नया दौर है। इस्लामी कट्टरवाद, अतिवाद और जेहादी मानस, दीमक की तरह, कश्मीर को खा रहे हैं। हत्यारों को कायर, बुजदिल, बौखलाए हुए, पीठ में गोली मारने वाले मत कहते रहें। इन शब्दों से तसल्ली मिल सकती है, लेकिन आतंकी अतिवाद से लड़ा नहीं जा सकता। वे आतंकवादी हैं, सिर्फ आतंकवादी हैं और हत्यारे हैं। फारूक अब्दुल्ला और महबूबा की शब्दावली में वे 'भटके हुए कश्मीरी लड़के' नहीं हैं। अब ये मानवाधिकारवादी नेतागण खामोश क्यों हैं? क्या मरने वालों के मानवाधिकार नहीं थे? आतंकियों के मानवाधिकार कौन-से होते हैं? क्या संसद और सर्वोच्च अदालत ने कोई खास परिभाषा तय की है? कश्मीर की सड़कों पर जुलूस या आक्रोश क्यों नहीं है? क्या आम कश्मीरी अपनी बारी की प्रतीक्षा में है? टीवी चैनलों पर गुर्राने वाले इन हत्यारों को 'आतंकवादी' करार देने से कन्नी क्यों काट रहे हैं? क्या इन आतंकी हमलों की दलील यह हो सकती है कि सेना और सुरक्षा बलों ने कश्मीर में 600 से ज्यादा मुठभेड़ें की हैं? क्या आतंकियों को मार देने का ग़म सता रहा है इन नेताओं को? दरअसल वे आतंकी इंसानियत, कश्मीरियत और भारतीयता के दुश्मन हैं। वे सांप्रदायिक सद्भाव को पलीता लगाने के मद्देनजर आम नागरिक को निशाना बना रहे हैं। कश्मीर घाटी में हिंदू और सिख अल्पसंख्यक हैं, लिहाजा चुन-चुन कर उनकी हत्या की जा रही है। एकाध मुसलमान भी शिकार बनाया गया है, क्योंकि आतंकी उसे सुरक्षा बलों का 'जासूस' मान रहे थे। वह भारतीयता को बुलंद कर रहा था। उस मुसलमान को बदलते कश्मीर में संभावनाएं नजर आ रही थीं, लिहाजा उसे भी लील दिया गया।


आतंकियों के मकसद और मंसूबे साफ हैं कि ऐसे हमलों और हत्याओं के जरिए समाज और अल्पसंख्यक समुदाय में दहशत फैलाई जाए, ताकि बचे-खुचे हिंदुओं, कश्मीरी पंडितों और सिखों को घाटी से पलायन करने को मजबूर किया जा सके। ऐसे भी आसार लग रहे हैं कि आतंकवाद के स्थानीय गिरोह 1990 के दशक की पुनरावृत्ति करने पर आमादा हैं, जब व्यापक स्तर पर हिंदू और पंडितों को कश्मीर छोड़ कर भागना पड़ा था। बहू-बेटियों के साथ निर्मम बलात्कार किए गए थे और हत्याओं के अंबार लगा दिए गए थे। मस्जिदों के माइक से धमकियां गूंजती थीं। मंदिरों और पूजास्थलों को खंडित किया गया था। सब कुछ इतिहास में दर्ज है। किसी तरह वह दौर गुज़रा और अब नए भारत के नए कश्मीर में हिंदुओं और पंडितों की वापसी तथा उनके पुनर्वास के प्रयास जारी हैं, तो आतंकवाद के चूहे उन कोशिशों को कुतरने पर आमादा हैं। क्या इन चूहों को पराजित नहीं किया जा सकता? बेशक उन्हें 'तिरंगा' नापसंद है। वे बदलते कश्मीर के पक्षधर नहीं हैं। वे आज भी पाकपरस्त हैं।

वे आज भी अनुच्छेद 370 और 35-ए को लेकर स्यापा पीट रहे हैं। वह ऐतिहासिक गलती थी, जिसे संसद के जरिए सुधारा गया। हम स्वीकार करते हैं कि 370 हटाए जाने के बाद हत्याओं की 268 घटनाएं हो चुकी हैं। उनमें 79 आम कश्मीरी मारे जा चुके हैं, हमारे 86 जांबाज जवान भी 'शहीद' हुए हैं, लेकिन 394 आतंकियों और उनके सरगनाओं को भी ढेर किया गया है। सेना और सुरक्षा बलों ने आतंकवाद की रीढ़ तोड़ दी है। यह पराजित लड़ाई है, जो आतंक के स्थानीय पिल्ले लड़ रहे हैं, क्योंकि उन्हें पाकिस्तान से 'रोटी' मिल रही है। खुफिया एजेंसी आईएसआई का मकसद ही यह है कि आतंकवादी कहीं भी, किसी को भी, किसी भी वक़्त मार सकते हैं। वर्ष 2021 में ही अभी तक 25 नागरिकों की हत्या की जा चुकी है। भारत की सेना, सुरक्षा बल तो बेहद ताकतवर हैं, लेकिन पाकपरस्त आतंक के इन बचे-खुचे चूहों को पराजित करने, उनके घुटने तोड़ने में हम नाकाम क्यों लग रहे हैं? यह बहुत गंभीर और संवेदनशील सवाल है। क्या ऐसे हालात में कश्मीरी हिंदुओं, पंडितों की वापसी हो सकती है? या अल्पसंख्यक सिख घाटी में ही आराम से जि़ंदा रह सकता है?
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