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- आतंकी निशाने पर...
दिव्याहिमाचल.
कश्मीर घाटी में 5 दिन में 7 हत्याएं…! शायद यह आंकड़ा बढ़ भी जाए, क्योंकि आतंकी आम कश्मीरी को मार रहे हैं। श्रीनगर में प्रख्यात दवा कारोबारी और चिकित्सा में जुटे माखनलाल बिंदरू हो या चाट-गोल गप्पे बेचने वाला बिहारी वीरेंद्र पासवान हो अथवा शिक्षा-मंदिर की प्रिंसिपल सतिंदर कौर और अध्यापक दीपक चंद हों, उन्हें निशाना बनाकर मार दिया गया। कश्मीर में यह धुर इस्लामी आतंकवाद का नया दौर है। इस्लामी कट्टरवाद, अतिवाद और जेहादी मानस, दीमक की तरह, कश्मीर को खा रहे हैं। हत्यारों को कायर, बुजदिल, बौखलाए हुए, पीठ में गोली मारने वाले मत कहते रहें। इन शब्दों से तसल्ली मिल सकती है, लेकिन आतंकी अतिवाद से लड़ा नहीं जा सकता। वे आतंकवादी हैं, सिर्फ आतंकवादी हैं और हत्यारे हैं। फारूक अब्दुल्ला और महबूबा की शब्दावली में वे 'भटके हुए कश्मीरी लड़के' नहीं हैं। अब ये मानवाधिकारवादी नेतागण खामोश क्यों हैं? क्या मरने वालों के मानवाधिकार नहीं थे? आतंकियों के मानवाधिकार कौन-से होते हैं? क्या संसद और सर्वोच्च अदालत ने कोई खास परिभाषा तय की है? कश्मीर की सड़कों पर जुलूस या आक्रोश क्यों नहीं है? क्या आम कश्मीरी अपनी बारी की प्रतीक्षा में है? टीवी चैनलों पर गुर्राने वाले इन हत्यारों को 'आतंकवादी' करार देने से कन्नी क्यों काट रहे हैं? क्या इन आतंकी हमलों की दलील यह हो सकती है कि सेना और सुरक्षा बलों ने कश्मीर में 600 से ज्यादा मुठभेड़ें की हैं? क्या आतंकियों को मार देने का ग़म सता रहा है इन नेताओं को? दरअसल वे आतंकी इंसानियत, कश्मीरियत और भारतीयता के दुश्मन हैं। वे सांप्रदायिक सद्भाव को पलीता लगाने के मद्देनजर आम नागरिक को निशाना बना रहे हैं। कश्मीर घाटी में हिंदू और सिख अल्पसंख्यक हैं, लिहाजा चुन-चुन कर उनकी हत्या की जा रही है। एकाध मुसलमान भी शिकार बनाया गया है, क्योंकि आतंकी उसे सुरक्षा बलों का 'जासूस' मान रहे थे। वह भारतीयता को बुलंद कर रहा था। उस मुसलमान को बदलते कश्मीर में संभावनाएं नजर आ रही थीं, लिहाजा उसे भी लील दिया गया।