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जीवन के हर क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन हुए हैं। हिंदी साहित्य भला परिवर्तन की इस क्रांति से कैसे अछूता रह सकता है
जीवन के हर क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन हुए हैं। हिंदी साहित्य भला परिवर्तन की इस क्रांति से कैसे अछूता रह सकता है, सो यहां भी लिखने के कारखाने खुल गए। फैक्ट्रियां चल निकलीं, अनेक लेखकों ने प्राइवेट लिमिटेड कम्पनियां बना डालीं। वहां हर तरह के माल का उत्पादन होने लगा। एक ही लेखक से कविता, कहानी, व्यंग्य, उपन्यास, आलोचना, फिल्म, खेल, महिला, बालोपयोगी तथा रसोईघर से सम्बन्धित सामग्री अब ली जा सकती है। लेखक एक है, नाम अनेक हैं। अनेक लेखक तो ऐसे भी निकले जिन्होंने अखबारों की आवश्यकता को देखते हुए समसामयिक राजनीतिक सामग्री के अलावा ज्योतिष, रहस्य रोमांच, विज्ञान तथा ब्रह्माण्ड से सम्बन्धित विषयों पर भी लिखा।
प्रा. लि. कम्पनियों का उद्भव और विकास ज्यादा पुराना नहीं है। पहले के लेखक बेवकूफ थे। वे बड़ा क्लासिक व स्तरीय साहित्य मिशनरी रूप में लिखते रहे। अब न तो कोई महाकाव्य लिखता है और न ही कोई खण्डकाव्य। जिन कार्यों में मेहनत होती है, उसे छोड़ कर शार्टकट अपनाए गए तथा कम समय में स्थापित होने की ललक बढ़ने लगी। यह कम्पनियां उद्भव के साथ ही विकसित हो गई। प्रारम्भ में इस क्षेत्र में वे लोग आए जो सभी विषयों पर लिखा करते थे। वे महापुरुषों के अनमोल वचन तथा चुटकुले तक भी लिख लेते थे-अतः उन्हें अपने अकेले नाम के अलावा दूसरे नामों की जरूरत हुई। उन्होंने घर के सदस्यों के नामों से तथा अन्य पैर नेम्स से लिखना शुरू किया। समाचार-पत्रों व पत्रिकाओं के सम्पादकों को बड़ी सुविधा हो गई। उन्हें व्यर्थ की माथाफोड़ी नहीं करनी पड़ी। वे लोग इन कम्पनियों से प्राप्त माल को सम्पादित (टे्रड मार्का) समझकर सीधे ही प्रेस में देते रहे और ये प्रा. लि. एक लेखकीय कम्पनियां चल पड़ीं। इनके विकास में उन सम्पादकों ने योगदान दिया, जो स्वयं भी लेखक थे।
उन्होंने एक-दूसरे को माल की सप्लाई शुरू की तो वे असली लेखक उजड़ने लगे जो लेखन को बड़ी गंभीरता व मेहनत के साथ अपनाए हुए थे। इन कम्पनियों के प्रचलन से छोटे लेखक बरबाद होने लगे तथा कम्पनियों में निर्मित माल की खपत बढ़ने लगी। इनका उद्भव और विकास रचनाओं के मिलने वाले पारिश्रमिक से भी हुआ। आजकल छोटे-बड़े सभी पत्र प्रकाशित रचनाओं पर अपने लेखकों को पारिश्रमिक देने लगे हैं। इसका प्रभाव भी लेखन कम्पनियों पर पड़ा। यही नहीं इनके संचालकों ने नए लेखकों से सस्ती दरों पर उनका माल खरीदना तथा पत्र-पत्रिकाओं को महंगी दर पर बेचना प्रारम्भ कर दिया है। इन कम्पनियों की सफलता के पीछे जो सबसे बड़ा कारण रहा-वह था, पारिश्रमिक का आदान-प्रदान। तू मेरी छाप-मैं तेरी छापूं। इसके अलावा सम्पादकों ने लेखकों से बारगेनिंग करके भी प्राइवेट कम्पनियों के कारोबार को फूला-फलाया। इस व्यवस्था में लोग शनैः शनैः इधर-उधर से मारकर भी लिखने लगे और सांठ-गांठ के आधार पर छपने लगे छद्म लेखन व महिला लेखन को इस दिशा में प्रोत्साहित किया गया तथा नकली लोग नाम व दाम बटोरने लगे। इस व्यवसाय में उन लोगों की रुचि बढ़ती गई, जो तनिक भी मीडिया से जुड़े हुए थे। स्वायत्तशासी संस्थाओं के जन सम्पर्क अधिकारी, बैंकों के राजभाषा अधिकारी, आकाशवाणी एवं दूरदर्शन के कार्यक्रम अधिशाषी समन्वयक। ये लोग भी सम्पादकों को कहीं न कहीं 'आब्लाइज' करने की स्थिति में थे। अतः एक हाथ से देना तथा दूसरे हाथ से लेना, चलता रहा। जो लोग विज्ञापन दे सकते थे, वे विज्ञापन बांटते रहे तथा अपना प्रसारण कराते रहे।
पूरन सरमा
स्वतंत्र लेखक
सोर्स- divyahimachal
Rani Sahu
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