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हिमाचल की कविता वैसे तो ग्यारहवीं शताब्दी में चंबा में रचित चरपटनाथ की बानियों के साथ उद्भूत होती है
डा. सुशील कुमार फुल्ल, मो.-9418089988
हिमाचल की कविता वैसे तो ग्यारहवीं शताब्दी में चंबा में रचित चरपटनाथ की बानियों के साथ उद्भूत होती है। जिसकी विषय-वस्तु निश्चित रूप से आध्यात्मिक थी फिर पांच-छह सौ वर्षों का अंतराल। तदोपरांत सत्रहवीं से बीसवीं शताब्दी तक ब्रज भाषा में काव्य रचनाएं लिखी गईं। जो नीतिपरक व धार्मिक थीं। राजा रजबाड़ों का शौर्य गान व यश विरुदावली संकीर्तन मुख्य विषय थे। ब्रज भाषा काव्य पर डा. प्रत्यूष गुलेरी, डा. मनोहर लाल व डा. मीनाक्षी शर्मा का शोध कार्य उल्लेखनीय है। बीसवीं शताब्दी में स्वंतत्रता प्राप्ति से पहले चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने छिटपुट कविताएं लिखीं। जिनमें देशभक्ति एवं दरबार भक्ति झलकती है। ….स्वतंत्रता के तुरंत बाद सन् 1948 में ऊना जिले के जगतराम शास्त्री की जगत सतसई महत्त्वपूर्ण कृति है। जिसमें सतसई परंपरा अनुसार जीवन के विविध रंग हैं। फिर कांगड़ा के चातक वर्मा ने मसनवी शैली में दोहे लिखे, जो लौकिक के माध्यम से अलौकिक प्रेम की व्यंजना के लिए प्रसिद्ध हैं।
इसके बहुत बाद में दोहा पद्धति में लिखने वालों में सिरमौर के दिलीप वशिष्ठ एवं कांगड़ा के अजय पराशर का नाम आता है, जिन्होंने लाघव परंपरा का निर्वहन करते हुए सटीक दोहे लिखे। प्रबंध काव्य रचना में संसार चंद्र प्रभाकर का कोई सानी नहीं है। उनके ग्रंथों में 'माया बहुत चर्चित है।….खंड काव्य परंपरा लेखन में भारतेंदु प्रेस के संस्थापक स्व. राजेंद्र पाल सूद के प्रबंध काव्य पर छायावादी ढंग का हस्तक्षेप पर्याप्त महत्त्वपूर्ण रहा। पिंगल धर्मा कवि स्व. पीयूष गुलेरी ने महाकवि भूषण की तर्ज पर बहुत ही आकर्षक मुक्तक लिखे। उनमें अपार संभावनाएं थीं।……तदंतर गीति व मुक्तक काव्य परंपरा में परमानंद शर्मा, ओम अवस्थी, अनिल राकेशी, कुमार कृष्ण, रामकृष्ण कौशल, सत्येंद्र शर्मा, कैलाश भार्गव, डा. गौतम शर्मा व्यथित, स्व. तेजराम शर्मा, ओम प्रकाश सारस्वत, कैलाश आहलूवालिया, सुदर्शन वशिष्ठ ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। न केवल रोमांस का उद्घोष किया है, अपितु व्यापक मानवीय संवेदनाओं का भी चित्रण किया। रामकृष्ण कौशल ने शिमला पर केंद्रित रंगोली शीर्षक से काव्य संग्रह रचा। माटी की महक, परंपराओं के क्षरण तथा नारी विमर्श के केंद्र में आम गृहिणी व स्त्री की पीड़ा का बखान सरोज परमार, चंद्ररेखा ढडवाल, रूपेश्वरी शर्मा, हरिप्रिया, स्व. कांता शर्मा की कविताओं में प्रभावी ढंग से आया। हिमाचल की नारी लेखिकाओं की अभिव्यक्ति में नारी का आंतर्नाद है तो उसका डरा हुआ स्वरूप भी झांकता है। सरोज परमार के काव्य संग्रहों के तो शीर्षक ही सब कह देते हैं। सागर पालमपुरी और शवाब ललित की गज़़ल परंपरा को द्विजेंद्र द्विज, प्रेम भारद्वाज, पवनेंद्र, यूनुस, अर्जुन कनौजिया आदि गज़़लकारों ने आगे बढ़ाया है। परंतु जो गहनता एवं विषय-वस्तु की समसामयिकता द्विज और नलिनी विभा नाज़ली की गज़़लों में मिलती है, वह लासानी है।
भारद्वाज तथा पवनेंद्र पवन की गज़़लों में जो रवानगी है, वह आकर्षित करती है। गज़़ल, प्रेम या इश्क की ही शायरी नहीं है। दुष्यंत के बाद तो हिंदी गज़़ल का आकार-प्रकार ही बदल गया। सामाजिक ताने-बाने का विश्लेषण गज़़ल को अतिरिक्त धार देता है। सन् 1980 के बाद की कविता वास्तव में वादरहित कविता है। नई कविता या अकविता का प्रचलन धूमिल पड़ता प्रतीत होता है। मुक्त छंद का चलन बढ़ गया। बाबा नागार्जुन की कविता उदाहरण है। 2000 के बाद यानी उत्तर आधुनिक काल में कविता और गद्य का शैलीगत भेद मिटता दिखाई देता है। हिमाचल प्रदेश की हिंदी कविता में गत बीस वर्षों में जैसे ज्वारभाटे की स्थिति आ गई। हवा में तैरते शब्द…जो शीघ्र ही विलुप्त हो जाते हैं। कुछ एकदम अर्थहीन। कपास की ढेरी की तरह, कविता के ढेर लग गए हैं। यह बुरी बात नहीं है। परंतु इसे छानने-बीनने में तो समय लगेगा। जो शब्द मुंह से निकल गया, वह कविता। फेसबुक पर लहलहाती पंक्तियां रचनाकार को प्रसन्नता देती हैं। टिप्पणियां आश्वस्त कर देती हैं। पर यह चिंता का विषय है। कविता में श्रमसाध्यता आवश्यक है। ….सातवें, आठवें दशक में श्रीनिवास श्रीकांत की जरायू कविता चर्चित हुई। सुंदर लोहिया, केशव, रेखा, तुलसी रमन, दीनू कश्यप, चतुर सिंह, अरविंद रंचन ने सारगर्भित कविताएं लिखीं जो कलात्मकता व आधुनिक बोध से संपन्न थीं। संवेदनापरक थीं।
आज की कविता में समकालीन बोध, विचार बहुल है। यह हमारे समय की जटिलताओं का प्रभाव भी है। आज कुछ नाम लेने हों तो स्व. सुरेश सेन निशांत, आत्मारंजन, अनूप सेठी, अजेय, कुल राजीव पंत, गुरमीत बेदी के नाम गर्व से लिए जा सकते हैं। चंद्ररेखा ढडवाल, रेखा वशिष्ठ व सरोज परमार ऐसी वरिष्ठ कवयित्रियां हैं जो आज के समकालीन संदर्भों को समाहित करते हुए कविता में सार्थक दखल दे रही हैं। इन्होंने हवा में तीर नहीं छोड़े हैं, बल्कि जीवन की गहरी अनुभूतियों को चित्रित किया है। प्रश्न उठाते हुए, आक्रोश के साथ…केआर भारती, राममूर्ति वासुदेव प्रशांत, गणेश गन्नी, प्रदीप सैणी, नवनीत, विजय विशाल, सुमन शेखर, राजीव त्रिगर्ती, पवन चौहान, इंद्र ठाकुर, मनोज चौहान, इशिता, देवकन्या, शंकर वशिष्ठ व कमलेश सूद भी गंभीर कविता सृजन में रत्त हैं। अरुण नागपाल, संगीता सारस्वत, कंचन शर्मा, प्रोमिला भारद्वाज, सुशील गौतम, प्रोमिला वैद्य, युगल डोगरा, रमेश मस्ताना, शैली किरण, जीवन नारायण कश्यप, हंसराज भारती अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रहे हैं। अशोक दर्द, अदिति गुलेरी, एचआर चिराग, हेमराज, भूपेंद्र भुप्पी, बबिता, विजय पुरी, विक्रम, परवाज नूरपुरी, अंशुमन कुठियाला का भी रचनात्मक योगदान है। कुंवर दिनेश के बौद्धिक हाइकू तिलिस्म का भंडार हैं।
हिमाचल की कविता में प्रदेश के परिवेश के साथ-साथ देशगत विमर्श भी व्याख्यायित हो रहे हैं। परंतु कुछ रचनाएं आत्म सम्मोहन का शिकार भी हैं, जो अभी भी फिसलन भरी जमीन पर सरकने को विवश हैं। लेकिन सार्थक हस्तक्षेप से कविता में ऐसी अराजकता के बादल निरंतर छंट रहे हैं। कविता सार्थक व कालजयी होने के रास्ते पर बढ़ चली है। रस विभोर होने का समय भी मिलेगा और आत्मपरीक्षण व निरीक्षण का सुअवसर भी। तब 'थोथा चना बाजे घना की ध्वनि व प्रतीति भी विस्मृतियों में जाएगी, यह निश्चित है।

Rani Sahu
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