सम्पादकीय

सवालिया भाषा नहीं हिंदी

Rani Sahu
14 Sep 2021 7:00 PM GMT
सवालिया भाषा नहीं हिंदी
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हिंदी सरल, सुबोध, सभ्य और सुंदर भाषा है। यह हमारी आत्मा की भाषा है

हिंदी सरल, सुबोध, सभ्य और सुंदर भाषा है। यह हमारी आत्मा की भाषा है। हमारी पारदर्शिता और रीढ़-सी मजबूती की भाषा है। नदी की तरह प्रवाहमय है हिंदी। हमारी संवेदनाओं और विचारों की अभिव्यक्ति की भाषा है। हिंदी बुनियादी और चेतना के स्तर पर भारत की 'मां' है। हिंदी कभी भी सवालिया नहीं हो सकती, क्योंकि सबसे वैज्ञानिक भाषा है। उसकी वर्णमाला, व्याकरण, शब्द-शक्ति सभी स्पष्ट और सुंदर हैं। हीनता-बोध और बौनेपन के एहसास की भाषा नहीं है हिंदी। प्रतिरोध और विद्रोह की बजाय सौंदर्य और वीर-रस की भाषा है हिंदी। बेशक संविधान सभा की बैठकों के दौरान हिंदी को राजभाषा का दर्जा देने का विरोध होता रहा। महात्मा गांधी भी 'हिंदुस्तानी' भाषा को राजभाषा का सम्मान देने के पक्ष में थे। खुद गांधी ने हिंदी की जननी संस्कृत भाषा में रचित भजन गुनगुनाए और पढ़े थे। हिंदुस्तानी भाषा की आत्मा भी हिंदी ही है। विरोध की दलीलें दक्षिण में आज भी सुनाई दे सकती हैं, लेकिन अधिकतर राजनेता और विशिष्ट जन अच्छी हिंदी समझ लेते हैं और बोलचाल की हिंदी में संवाद भी कर लेते हैं। भारत में शायद ही ऐसा कोई अंचल होगा, जो हिंदी से अछूता रहा होगा। उनकी स्थानीय और क्षेत्रीय भाषा भिन्न हो सकती है। देश में असंख्य बोलियां प्रचलित हैं।

उनकी व्यंजना और भाव-शक्ति हिंदी के समरूप ही है, लिहाजा हिंदी राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय एकता, अखंडता की भाषा है। हमारे राष्ट्रगीत और राष्ट्रगान के शब्द हिंदी-स्वरूपा ही हैं। हिंदी के नाम पर कट्टर विरोधियों ने जो पारिभाषिक शब्द गढ़ लिए हैं, वे हिंदी नहीं हैं। 'लौह पथगामिनी' कोई स्वीकार्य शब्द नहीं है। 'रेल' शब्द हमारे मानस में रचा-बसा है। इसी तरह 'पेन', 'कमीज़', 'मेज' आदि शब्द हिंदी के नहीं हैं, लेकिन हमने ग्रहण किया है, लिहाजा अब वे स्वीकार्य शब्द हैं। हिंदी ग्राह्य भाषा है। बहरहाल बीती 14 सितंबर को 'राष्ट्रीय हिंदी दिवस' था। 1949 में इसी तारीख को सैद्धांतिक तौर पर हिंदी को राजभाषा स्वीकार किया गया था और 14 सितंबर, 1953 को संवैधानिक तौर पर हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा लागू हो गई। यह तारीख और दिवस महज औपचारिकता हैं, ताकि हमें याद रहे कि यह दिवस भी आज़ादी और गणतंत्र की तरह मनाया जाना है। सरकारों और सार्वजनिक उपक्रमों के स्तर पर 'हिंदी सप्ताह' या 'हिंदी पखवाड़ा' आयोजित किए जाते रहे हैं। हिंदी को इनकी जरूरत नहीं है, क्योंकि हिंदी हमारी सांस्कृतिक धरोहर है, आध्यात्मिक चिंतन से लेकर पाठ तक का माध्यम है और साहित्य, संचार से लेकर सिनेमा और आम आदमी तक व्याप्त भाषा है। बीज-वपन कब हुआ था, हम नहीं जानते, लेकिन हिंदी आज एक विशाल वटवृक्ष है। उसकी छाया में रोजग़ार, आविष्कार, आईआईटी-आईआईएम, चिकित्सा, विज्ञान के अध्ययन, शिक्षण, पठन और पुस्तक-लेखन के काम बहुत संभव हैं, ऐसा हमारा ही नहीं, व्यापक सुधी-जन का भी मानना है। यदि भूमंडलीकरण के इस दौर में किसी भाषा का भौगोलिक विस्तार हुआ है, तो वह हिंदी ही है। अमरीका, यूरोप से लेकर अफ्रीका-अफगानिस्तान तक जुड़ाव की भाषा है।
हमारे नेता अंतरराष्ट्रीय मंचों पर हिंदी में संवाद करते रहे हैं। अंग्रेजी भाषा हमारा अतिरिक्त हुनर है, जो हमें अतिरिक्त आयाम प्रदान करता है। फिर कुछ खास विषयों को लेकर हिंदी को 'अपाहिज' करार क्यों दिया जाता रहा है? कोशिशें तो की जानी चाहिए। आंदोलनों की दरकार नहीं है। रूसी, जापानी, चीनी और अन्य भाषाओं में चिकित्सा, प्रबंधन, इंजीनियरिंग की पढ़ाई संभव है, तो हिंदी में क्यों नहीं कराई जा सकती? पूर्वाग्रह छोडऩे होंगे। हिंदी दिवस पर देश के प्रमुख अंग्रेजी अख़बारों ने एक भी संपादकीय टिप्पणी नहीं लिखी। अंग्रेजी के टीवी चैनलों ने हिंदी पर एक भी चर्चा नहीं की। हिंदी के नाम पर कमाने-खानेे वाले चैनलों ने भी तालिबान और 'अब्बाजान' से बाहर झांक कर नहीं देखा। उनसे क्या फर्क पड़ता है? हिंदी के नाम पर आज बड़ा बाज़ार है, जिसका करीब 35 फीसदी राजस्व सिर्फ हिंदी मीडिया के हिस्सेे ही आता है, क्योंकि हिंदी में पाठक और दर्शक अपरिमित हैं। लिहाजा हिंदी को बाज़ार की गतिविधियों से भी ज्यादा जोडऩा होगा। हिंदी व्यापक स्तर पर विमर्श की भाषा भी है, लिहाजा हिंदी को लेकर लक्ष्मण-रेखा नहीं खींची जानी चाहिए। हिंदी बोलो, हिंदी पढ़ो, हिंदी में ज्ञान प्राप्त करो और हिंदी के साथ ही बड़े बाबू, वैज्ञानिक और नेता बनो। आज इस बात की चिंता भी नहीं है कि हिंदी पढ़कर रोजगार नहीं मिलेगा। हिंदी को पढ़कर आज रोजगार भी हासिल किए जा सकते हैं।

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