सम्पादकीय

बुकर को छूता हिंदी साहित्य

Rani Sahu
29 May 2022 7:07 PM GMT
बुकर को छूता हिंदी साहित्य
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साहित्य की जमीन पर कांटे महकते हैं और फूल भी कई बार शूल हो जाते हैं

साहित्य की जमीन पर कांटे महकते हैं और फूल भी कई बार शूल हो जाते हैं, लेकिन शब्द की अपनी मर्यादा और गरिमा है, जो करीने से अगर बिछ जाए तो शताब्दियां अपनी हसरत लिए इसी सफर से गुजरती हुईं उस नाम का स्मरण करती हैं, जो वक्त के दर्पण पर ईजाद हुए। गीतांजलि श्री के उपन्यास 'रेत समाधि' के अंग्रेजी रूपांतरण 'टॉम्ब ऑफ सैंड' को मिला बुकर पुरस्कार दक्षिण एशिया के साहित्य को उसके हर संदर्भ में विस्तृत कर देता है। भारतीय भाषाआंे और खासकर हिंदी के परिप्रेक्ष्य में यह पुरस्कार इसकी पृष्ठभूमि संवार देता है और उन संभावनाओं को आगे बढ़ा देता है जहां लेखकीय ऊर्जा का ध्येय अपने नजदीकी संसार के हर पहलू में सादगी, सहजता और यथार्थ को छूना है। 'रेत समाधि' में ऐसा सब कुछ है, जो भारतीय अनुभूतियों का संसार रच देता है। यह औरत के मन को पढ़ती हुई ऐसी शब्दाबली का प्रयोग है, जो मानस पटल पर अंकित विकृतियों, टकरावों और मध्यमवर्गीय नोंकझांेक को अनावृत करता है।

बुकर पुरस्कार की अहमियत में 'रेत समाधि' अपने विषय वस्तु, संवाद, भाव, रंग और काव्यात्मकता का श्रेष्ठ प्र्रदर्शन करता है, लेकिन सर्वोच्च पुरस्कार की अपनी शर्तों का मुुकाबला उस अनुवाद से भी है जो अंग्रेजी व ब्रिटिश अनिवार्यता के प्रकाशन में डेजी रॉकवेल को सेतु बनाता है। जिन ताने-बानों में गीतांजलि, पुरस्कृत उपन्यास को अपनी साहित्यक रचना की जीवंतता सौंपती हैं, उस भावना, पारिवारिक व्याकुलता और स्त्री मनोभाव में उपजते संघर्ष की खड़ाऊं पहनकर अनुवाद चलता है। ऐसे में जिस दुनिया को भारत की साहित्यिक चेतना, मर्म और लक्ष्य से डेजी रॉकवेल परिचित करवा रही हैं, वह यह भी अंगीकार कर रही है कि भारतीय चिंतन की धारा में मौलिक अभिव्यक्ति कितनी परिपूर्ण व गहरी है। चौंसठ वर्षीया लेखिका गीतांजलि श्री अपने ही उपन्यास के भीतर रेत के ढेर पर ऐसे मकबरों को रेखांकित कर रही हैं, जो भारत विभाजन की पीड़ा का एहसास भी है। उन्हीं के अनुसार, 'यह उस दुनिया के लिए शोकगीत है जिसमें हम रहते हैं।'
एक अस्सी वर्षीया महिला के जीवन से जुड़ा घटनाक्रम उस संवेदना से तड़प रहा है, जो उसकी किशोरावस्था को आघात दे गया। उपन्यास में बूढ़ी मां के समक्ष बेटी का आंचल इतना फैल जाता है कि एक दिन मां बेटी हो जाती है और बेटी मां। मध्यम वर्गीय परिवारों के मूल्य, उलझनें और रिसाव में समाज की झलक, लेखन की क्षमता को पारंगत कर देती है। यहां समाज की स्त्री से उम्मीदें बढ़ जाती हैं, लेकिन वक्त की रेत पर चिन्हित नहीं होतीं। अस्सी वर्षीया महिला के माध्यम से लेखिका का सफर आखिर उसी बार्डर पर पहंुच जाता है, जहां एक दिन हजारों सरहदें दिलों के आरपार हुई थीं, फिर भी बार्डर पार तक संवेदनाओं की धारा में बहना इस उपन्यास के विस्तार को मानवता के साथ जोड़ देता है। गीतांजलि श्री ने न केवल एक उपन्यास की मिट्टी जोड़ी है, बल्कि बुकर तक पहंुचकर भारतीय लेखन परंपरा के सशक्त पहलू सामने रख दिए हैं। यह उपन्यास कोरी कल्पना भी नहीं और न ही आज के राष्ट्रीय विषयों का मार्गदर्शक है, लेकिन मानवीय इतिहास के कठोर पन्नों को सहज व संपन्न जरूर करता है। यह अलग बात है कि इस पुरस्कार को उपलब्धि भरी निगाहों से देखने की विरासत में, आज की राष्ट्रीय परख कहीं खामोश जरूर है। राष्ट्रीय स्तर पर अगर भारतीय साहित्य का अनुवाद एक लक्ष्य बन जाए, तो निश्चित रूप से सारे संसार के सामने भारतीय चिंतन के कई मौलिक दरवाजे खुलेंगे और इस रोशनी में स्पष्ट हो जाएगा कि यहां शब्द खामोश नहीं हैं।

सोर्स-divyahimachal


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