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यह संयोग ही है कि गांधी जी के रचनात्मक शिष्य विनोबा भावे की जयंती 11 सितंबर के ठीक तीन दिन बाद हिंदी की सांविधानिक मान्यता का दिन आता है
उमेश चतुर्वेदी। यह संयोग ही है कि गांधी जी के रचनात्मक शिष्य विनोबा भावे की जयंती 11 सितंबर के ठीक तीन दिन बाद हिंदी की सांविधानिक मान्यता का दिन आता है। हिंदी को बढ़ावा देने के लिए तमाम गांधीवादी विचारकों, स्वतंत्रता सेनानियों ने अपने-अपने सुझाव दिए थे, लेकिन उनमें विनोबा के सुझाव की चर्चा कम ही होती है। विनोबा ने कहा था, 'हिंदुस्तान की एकता के लिए हिंदी भाषा जितना काम देगी, उससे बहुत अधिक काम देवनागरी लिपि दे सकती है।'
विनोबा के ये विचार आज भी बेहद प्रासंगिक हैं। आजादी के फौरन बाद तो हिंदी को लेकर बड़ा विरोध नहीं हुआ, लेकिन जैसे-जैसे आजादी का रूमानी भाव कम होने लगा, स्वाधीनता आंदोलन के दौरान स्वीकार किए गए लोकमूल्यों से भारतीय समाज का विचलन बढ़ने लगा। इस विचलन के असर से हिंदी भी नहीं बच पाई।
वर्ष 1963 में द्रविड़ आंदोलन के उत्तराधिकारियों ने इसके विरोध की शुरुआत भले ही की, लेकिन धीरे-धीरे उसका असर बढ़ता ही चला गया। जिस कर्नाटक में द्रविड़ आंदोलन का असर नहीं रहा, वहां हाल के दिनों में मेट्रो स्टेशनों के हिंदी नाम के बहाने विरोध हुआ। हालिया किसान आंदोलन के दौरान पंजाब में भी सरकारी दफ्तरों, रेलवे, सड़क आदि पर हिंदी में लिखे बोर्ड पर कालिख पोती गई।
तमिलनाडु में हिंदी विरोध का राजनीतिक इतिहास भले ही रहा हो, लेकिन पंजाबी और पंजाबियत से हिंदी की अदावत का कोई इतिहास नहीं रहा है। हिंदी विरोध का मानस तैयार करने में हिंदी विरोधियों का एक तर्क बहुत प्रभावी ढंग से काम आता है। हिंदी क्षेत्रों में दूसरी भारतीय भाषाएं कितने लोग सीखते हैं? इस तर्क में दम भी है। भारत में त्रिभाषा फॉर्मूला अपनाया तो गया, पर राजनीतिक दलों ने उस फॉर्मूले को रस्मी बना दिया।
ऐसे में देवनागरी से संबंधित विनोबा के विचार की याद आना स्वाभाविक है। विनोबा के सुझावों के मुताबिक अगर भारतीय भाषाओं के लिए देवनागरी लिपि को अपना लिया गया होता, तो निश्चित तौर पर भारतीय भाषाओं के बीच हिंदी सेतु के रूप में सहज स्वीकार्य हो सकती थी। इसके लिए अलग से प्रयास भी नहीं करने पड़ते।
इस संदर्भ में यह सवाल उठ सकता है कि देवनागरी को बाकी भारतीय भाषाएं और उनके बोलने वाले क्या इतनी आसानी से स्वीकार कर लेते। हो सकता है कि कुछ अड़चनें आतीं। तब उन भाषाओं को उनकी पारंपरिक लिपियों को अपनाने की छूट दी जा सकती थी। लेकिन समानांतर तरीके से देवनागरी का भी प्रचलन जारी रहता, तो शायद त्रिभाषा फॉर्मूले की भी जरूरत नहीं पड़ती और हिंदी और दूसरी भाषाएं करीब आतीं।
ऐसे में हिंदीभाषी भी देवनागरी के जरिये दूसरी भाषाओं को पढ़ पाते और वे दूसरी भाषाओं के नजदीक आते। वैसे भी देवनागरी का प्रयोग नेपाली, मैथिली, राजस्थानी, मारवाड़ी, संस्कृत और मराठी लेखन के लिए होता ही है। इसमें कुछ और भाषाएं जुड़ जातीं, तो इससे उन भाषाओं और उन्हें बोलने वालों के बीच की हिचक कम होती।
वैसे भी हर भाषा-भाषी अपनी रोजी-रोटी के लिए जब भी दूसरे इलाके में जाता है, तो टूटी-फूटी ही सही, वहां की स्थानीय भाषा सीख ही लेता है, क्योंकि उसके बिना उनका दैनंदिन काम चल ही नहीं सकता। हिंदी को सांविधानिक दर्जा देने के लिए हुई संविधान सभा की बहस में भी बाकी भाषाओं के लिए देवनागरी को अपनाए जाने को लेकर सुझाव दिए गए थे, लेकिन तब इसे स्वीकार नहीं किया गया।
चाहे हिंदी का सवाल हो या फिर देवनागरी अपनाने का, दोनों को अपनाने के पीछे हमारे जिन स्वाधीनता सेनानियों का योगदान रहा, उनमें से ज्यादातर गैर हिंदीभाषी थे। उन्हें लगता था कि हिंदी और देवनागरी ही ऐसी भाषा और लिपि हैं, जो राष्ट्रीय एकता की डोर को मजबूत कर सकती हैं। राजनीतिक कारणों से हिंदी का विरोध होता है, तो कई बार यह विरोध दिखावा होता है। इसका फायदा हिंदी विरोधी ताकतें उठाती हैं। इसके बावजूद हिंदी बढ़ रही है, तो उसके पीछे बाजार और उदारीकरण के बाद उभरा विशाल हिंदीभाषी मध्य वर्ग है, जिसकी क्रय शक्ति पर देसी-विदेशी बड़ी-छोटी कंपनियों की निगाह है।
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