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सोर्स- Jagran
प्रो. राम मोहन पाठक : आधुनिक भारत के राष्ट्र निर्माताओं ने हिंदी को राजभाषा के रूप में स्वीकार किया। संविधान सभा में लंबे विमर्श के बाद हिंदी को यह दर्जा मिला। 20 से अधिक सदस्यों ने हिंदी के पक्ष-विपक्ष में तर्क दिए, लेकिन अंत में राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन के एकमात्र वोट से हिंदी को राजभाषा बनाने पर सभा ने अपनी मुहर लगाई। इस प्रक्रिया में अनेक प्रश्न उठे थे, परंतु 12 से 14 सितंबर, 1949 के बीच उनके समाधान के जो प्रयास 73 साल पहले प्रारंभ हुए, वे अब लक्ष्य की ओर बढ़ रहे हैं।
संविधान द्वारा घोषित राजभाषा हिंदी की विकास यात्रा यूं तो लक्ष्योन्मुखी रही है, लेकिन उसके राष्ट्रव्यापी प्रसार की राह में चुनौतियां अब भी कायम हैं। कारण यही कि अंग्रेज गए, पर अंग्रेजीयत नहीं गई। अंग्रेजी के इस जंजाल के चलते राजकाज में सौ प्रतिशत हिंदी प्रयोग का लक्ष्य अभी दूर जरूर है, परंतु असंभव नहीं। इसी क्रम में 73 साल बाद पहली बार राजधानी दिल्ली से बाहर गुजरात के सूरत में 14-15 सितंबर को आयोजित होने वाला हिंदी दिवस समारोह एक नया अध्याय लिखने का प्रयास है।
हिंदी की प्रगति, चुनौतियों, संकट और भविष्य को लेकर साहित्यकार-संपादक डा. धर्मवीर की यह टिप्पणी उल्लेखनीय है कि, 'किसी भाषा की प्रतिष्ठा केवल इसलिए नहीं होती कि वह व्याकरण, लिपि, साहित्य-संपदा, दृष्टि से कितनी संपन्न है, न ही इस आधार पर कि वह कितने लोगों द्वारा बोली जाती है। उसकी प्रतिष्ठा मूलतः इस आधार पर होती है कि जिनकी वह भाषा है, जो उसे बोलते हैं, उनमें तनकर खड़े हो सकने की रीढ़ है या नहीं? आज हिंदी का संकट यही है कि हिंदीभाषी जन रागात्मक निष्ठा के सांस्कृतिक स्तर पर भाषा से कटा हुआ है!' ये विचार आज भी प्रासंगिक हैं, मगर वर्तमान युग हिंदी के प्रयोग का स्वर्णिम युग है। विपुल शब्द भंडार, साहित्य भंडार, तकनीक के पंखों पर हिंदी की ऊंची वैश्विक उड़ान और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के अलावा पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जैसे शीर्ष नेताओं ने विश्व मंचों के साथ ही बहुभाषा-भाषी भारत के विभिन्न क्षेत्रों में हिंदी का जो परचम फहराया, वह भारत और हिंदी प्रेमियों के लिए गर्व और गौरव का विषय है।
इतिहास साक्षी है कि भारतीय भाषाओं के सहयोग-समर्थन से हिंदी की परंपरा पनपी है और हिंदी का छोटा बिरवा आज वटवृक्ष बन चुका है। ऐसा वटवृक्ष जिसके तले सभी भारतीय भाषाओं के पूर्ण विकास और प्रस्फुटन की संभावनाएं हैं। इस बार अखिल भारतीय सम्मेलन सूरत में हो रहा है। गुजराती और हिंदी के अंतर्संबंध अत्यंत प्रगाढ़ रहे हैं। महात्मा गांधी मूलतः गुजराती थे। भाषा द्वारा जोड़ने की शक्ति से भलीभांति अवगत थे। तभी विविधता की थाती वाले भारत देश को एक सूत्र में पिरोने के लिए उन्होंने हिंदुस्तानी-हिंदी को महत्व दिया। दक्षिण में हिंदी के प्रथम प्रचारक के रूप में अपने पुत्र देवदास गांधी को स्वयं द्वारा स्थापित दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा में भेजा। राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा और काशी विद्यापीठ, वाराणसी की स्थापना के साथ ही गांधी जी की भाषा-वैचारिकी को व्यावहारिक रूप देने के लिए कई संस्थाएं स्थापित हुईं, जो आज भी सक्रिय हैं।
वास्तव में गुजरात के समर्पित हिंदीसेवियों की एक लंबी परंपरा रही है। काका कालेलकर के नाम से विख्यात मूलतः मराठी भाषी और गुजराती विद्वान दत्तात्रेय बालकृष्ण कालेलकर प्रतिबद्ध हिंदीसेवी थे। गांधी जी के सिद्धांतों को समर्पित काका कालेलकर ने गुजराती पत्र 'नवजीवन' का संपादन किया। काका साहब मराठी थे, किंतु गांधी जी की प्रेरणा से उन्होंने सबसे पहले गुजराती एवं हिंदी सीखी और फिर कई वर्षों तक दक्षिण में राष्ट्रभाषा हिंदी का प्रचार किया। इसी प्रकार मूल रूप से गुजराती सरदार पटेल भी हिंदी के हिमायती थे। उन्होंने दक्षिण भारतीयों से हिंदी सीखने की मार्मिक अपील करते हुए कहा था, 'हमारा संकल्प हिंदी को राजभाषा बनाने का होना चाहिए। राष्ट्रीय एकता के लिए एक भाषा आवश्यक है और अंग्रेजी की जगह हिंदी लाने का संकल्प शीघ्र लागू किया जाए।'
गुजरात के स्वामी दयानंद सरस्वती की हिंदी सेवा ऐतिहासिक है। उन्होंने अपना प्रसिद्ध ग्रंथ 'सत्यार्थ प्रकाश' और अन्य पुस्तकें हिंदी में लिखकर हिंदी की सेवा की। विश्वविभूति विदेह जैसे विद्वानों की भी गुजरात में हिंदी सेवा ऐतिहासिक तथा अविस्मरणीय है। वास्तव में हिंदी को अनेक हिंदीतर भाषी हिंदी-सेवियों ने सींचा है। कवि सुब्रह्ममण्य भारती, एम. सत्यनारायण राव, टीएसके कण्णन, बालशौरि रेड्डी, राजा राममोहन राय, केशवचंद्र सेन, स्वामी दयानंद, स्वामी श्रद्धानंद, महात्मा हंसराज, एनी बेसेंट, सी. राजगोपालाचारी, विनायक दामोदर सावरकर, बाबूराव विष्णु पराड़कर और रंगनाथ रामचंद्र दिवाकर आदि दिग्गजों और उनके अवदान की एक लंबी सूची है।
मोरारजी देसाई का कांग्रेस के मुंबई अधिवेशन में हिंदी संबंधी प्रस्ताव और गुजरात, महाराष्ट्र के स्कूलों में हिंदी पढ़ाए जाने के सूत्रधार के रूप में उनकी भूमिका ऐतिहासिक रही। सुभाषचंद्र बोस ने कहा था, 'वह दिन दूर नहीं जब भारत स्वाधीन होगा और उसकी राष्ट्रभाषा होगी हिंदी।' सयाजी राव गायकवाड़ (गुजरात) तथा हरेकृष्ण महताब (ओडिशा) की भी हिंदी सेवा स्मरणीय है। केवल भारतीयों ने ही नहीं, बल्कि विदेशियों ने भी हिंदी की भरपूर सेवा की। ऐसे ही एक बेल्जियम के ईसाई विद्वान फादर कामिल बुल्के थे। वह हिंदी और संस्कृत के साथ तुलसी साहित्य के अनन्य साधक थे। उनका यह वक्तव्य आज भी प्रासंगिक है कि, 'संस्कृत भाषाओं की 'महारानी', हिंदी 'बहूरानी' तथा अंग्रेजी 'नौकरानी' है।
बहरहाल, आज दक्षिण भारत सहित संपूर्ण देश में हिंदी का जिस तेजी से प्रसार हो रहा है, उसे गति प्रदान करने के उद्देश्य से राष्ट्रीय राजभाषा सम्मेलन की महत्वपूर्ण एवं सकारात्मक भूमिका होगी। यह भी सिद्ध हो चुका है कि अंग्रेजों द्वारा अंग्रेजी हम पर थोपी गई थी। हिंदी तो भारत की प्राण भाषा है। इसे थोपे जाने का विवाद व्यर्थ है। संपूर्ण देश में अब राजभाषा हिंदी से जुड़े प्रश्नों का संवैधानिक समाधान हो चुका है। इसलिए आम जन की यह धारणा है कि आपसी संवाद की भाषा हिंदी को विवाद का विषय मत बनाइए।

Rani Sahu
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