सम्पादकीय

हिंदी दिवस विशेष: हिंदी हमारी बिंदी

Gulabi
11 Sep 2021 6:17 AM GMT
हिंदी दिवस विशेष: हिंदी हमारी बिंदी
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हिंदी हमारी बिंदी

कहते तो हम हिंदी को अपनी बिंदी है, परंतु हम इस भाषा को कितना सम्मान देते हैं, वो सोचने का विषय है। कल ही मेरा एक मित्र सवेरे-सवेरे मेरे घर आया। औपचारिकतावश दरवाजे पर दस्तक देते हुए बोला, 'गुड मॉर्निंग, बाली भाई। मे आई कम इन? मित्र अंदर आया और हम बातें करने लगे। मित्र हिंदी का प्रकांड पंडित है। बातों ही बातों में हिंदी दिवस की बात भी चल पड़ी। अब मित्र हिंदी की वकालत करने लगा। बातों-बातों में अंग्रेज़ी को गुलामी की भाषा कह कर हाथ धोकर उसके पीछे पड़ गया। जब मुझसे रहा नहीं गया, तो मैंने उससे कहा, 'तुम तो हिंदी के पंडित व पैरोकार हो, फिर भी कमरे में आते समय तुमने अंग्रेज़ी के ही शब्दों का इस्तेमाल करना उचित क्यों समझा? मित्र थोड़ा असहज हो गया। कुछ क्षण खामोश रहा और फिर उखड़ कर चल दिया। ऐसा ही है हमारा हिंदी के प्रति दोहरा रवैया। पैरवी हिंदी की करेंगे, परंतु तरजीह अंग्रेज़ी को देंगे। हिंदी को राष्ट्र की बिंदी कहेंगे, परंतु नर्सरी कक्षा से बच्चों को अंग्रेज़ी माध्यम वाले स्कूल

भेजने में गर्व महसूस करेंगे। विडंबना है आज हमारे बच्चे 'दस को नहीं समझ पाते परंतु 'टैन आसानी से समझ जाते हैं। वास्तव में देश की बिंदी, हिंदी के प्रति हमारा नज़रिया काफी हद तक उदासीन है। उधर एक वो 4 अक्तूबर 1977 का मंगलवार था जो हिंदी भाषा और हिंदोस्तान के लिए गौरवशाली दिन बना क्योंकि उस दिन तत्कालीन सरकार में विदेश मंत्री के तौर पर काम कर रहे अटल बिहारी वाजपेयी ने संयुक्त राष्ट्र संघ आम सभा के 32वें अधिवेशन में हिंदी में भाषण दिया था। विश्वपटल पर इस गूंज ने हिंदी भाषा को एक अहम स्थान दिया। यूएन में पधारे प्रतिनिधियों ने खड़े हो तालियां बजा कर वाजपेयी के इस भाषण का अभिनंदन किया था। हिंदी भाषा को प्रचारित और प्रसारित करने का इससे बेहतर व्यावहारिक उदाहरण व प्रयास क्या हो सकता है। क्या आज हिंदी के प्रति हमारा नज़रिया ऐसा ही व्यावहारिक है? हम गर्व से तो कहते हैं कि हिंदी हमारी बिंदी है, पर धरातल पर इस भाषा को खास तरज़ीह नहीं देते। क्या हम ऐसा माहौल बना पा रहे हैं जहां कहा जा सके कि हिंदी हमारी जनमानस की भाषा है? पैदा होने के बाद निस्संदेह बच्चा अपने मा-बाप व आसपास के वातावरण से सीखता है। वह जिस भाषा को सुनता है, वो वही भाषा बोलता है। आजकल हमारे समाज में प्रचलन कुछ ऐसा चल पड़ा है कि मां-बाप बच्चों को दैनिक शब्दावली के हिंदी नहीं बल्कि अंग्रेज़ी के शब्द सिखाने को ज़्यादा अहमियत देते हैं।

जगदीश बाली लेखक शिमला से हैं।

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