सम्पादकीय

हिमालय क्षेत्र : चीन से एक खतरा यह भी है, नहीं कर सकते पर्यावरण की अनदेखी

Neha Dani
15 March 2022 1:49 AM GMT
हिमालय क्षेत्र : चीन से एक खतरा यह भी है, नहीं कर सकते पर्यावरण की अनदेखी
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सारा कार्य पारदर्शिता व लोकतांत्रिक माहौल में किया जाए।

हाल के वर्षों में हिमालय क्षेत्र में पनबिजली परियोजनाओं का प्रसार बहुत तेजी से हुआ है। इसके बारे में सरकारी मान्यता प्राप्त विशेषज्ञ समितियों ने कई बार चेतावनी दी है कि इससे अनेक समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं। वर्ष 2013 में उत्तराखंड की विनाशकारी बाढ़ में लगभग छह हजार व्यक्ति मारे गए, तो इस विषय पर सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर डॉ. रवि चोपड़ा की अध्यक्षता में पर्यावरण मंत्रालय ने एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया।

इस समिति में कुछ विषयों पर मतभेद था, फिर भी इसने बताया कि पनबिजली परियोजनाओं के पास के क्षेत्र में बाढ़ से अधिक क्षति हुई और इन परियोजनाओं का मलबा ठिकाने लगाने में सावधानी नहीं बरती गई, जिससे कई खतरे पैदा हुए। कैचमैंट क्षेत्र की ट्रीटमैंट बहुत असंतोषजनक रही। विभिन्न कारणों से इन परियोजनाओं का निर्माण खतरे बढ़ाने वाला रहा। इससे पहले दो सरकारी विशेषज्ञ समितियों ने टिहरी बांध से जुड़े खतरों के बारे में ध्यान दिलाया था।
वर्ष 1986 में प्रस्तुत अपनी रिपोर्ट में विज्ञान व तकनीकी मंत्रालय के विशेषज्ञ समूह ने कहा कि इस परियोजना के इतने पर्यावरणीय दुष्परिणाम हैं कि इस पर कार्य रोक देना चाहिए। इसके बाद वर्ष 1990 के आसपास इन्वायरमेंट अप्रेजल कमेटी (ईएसी) ने कहा कि इस परियोजना से इतने गंभीर खतरे जुड़े हैं कि इसकी स्वीकृति नहीं दी जा सकती है। इन संस्तुतियों के बावजूद इन्हें अनदेखा कर 260.5 मीटर ऊंचा टिहरी बांध उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र में बनाया गया।
इसके आरंभिक चरण में ही केंद्रीय जल आयोग के अध्यक्ष वाई. के. मूर्ति ने कह दिया था कि यह बहुत विशिष्ट तरह की स्थितियों में बनाया जा रहा है, जिसके लिए विश्व स्तर पर पहले का अनुभव नहीं है। भारत में अपेक्षाकृत खुली लोकतांत्रिक बहस की गुंजाइश के कारण ऐसे विशेषज्ञों की चेतावनियां सामने आती हैं, तो सावधानियों के लिए कुछ जागरूकता भी बढ़ती है, कुछ तैयारियां भी होती हैं। पर चीन में इसकी संभावना भारत की अपेक्षा और भी कम है कि ऐसे खतरों पर विशेषज्ञ राय खुलकर सामने आ सके।
अतः ऐसे खतरे चीन में भारत से भी अधिक हैं। इस संदर्भ में यह चिंता का विषय है कि हिमालय के सबसे बड़े बांध की योजना को चीन में स्वीकृति मिल गई है और यह भारत की सीमा के बहुत नजदीक ही बनाया जाएगा। इससे भारत ही नहीं, बांग्लादेश के लिए भी अनेक दुष्परिणाम व खतरे उपस्थित हो सकते हैं। ब्रह्मपुत्र नदी का उद्गम तिब्बत में है और यह अलग-अलग नामों के अंतर्गत तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र (चीन), भारत व बांग्लादेश में बहती है।
भारत के अरुणाचल प्रदेश की सीमा के बहुत पास इस नदी में एक बड़ा गिराव आता है, इसलिए यह पनबिजली योजना के लिए उपयुक्त माना गया है। चीन की योजना है कि यहां इतनी अधिक पनबिजली बनाई जाए, जो विश्व की किसी भी पनबिजली परियोजना से अधिक होगी। इस समय सबसे अधिक क्षमता चीन के 'थ्री गोर्जिस' बांध की है, पर यहां इससे भी तीन गुना अधिक क्षमता स्थापित करने की योजना है। इतनी बड़ी योजना के भूकंपीय क्षेत्र में बनने के खतरे भी अधिक होंगे।
तेज वर्षा के समय फ्लैश फ्लड का खतरा है। कम वर्षा के समय भारत और बांग्लादेश को कम पानी मिलने की आशंका है। खेतों को उपजाऊ मिट्टी न पहुंचने की आशंका है। इनसे जुड़े अन्य गंभीर खतरे भी हो सकते हैं, जो पूरी प्रोजेक्ट रिपोर्ट मिलने पर पता चलेंगे। क्या इन सभी खतरों व दुष्परिणामों की सही जानकारी भारत व बांग्लादेश को उपलब्ध करवाई जाएगी या नहीं? क्या इन्हें न्यूनतम करने के हर संभव प्रयास चीन द्वारा किए जाएंगे? यह सवाल आज भी हमारे सामने है।
सवाल यह भी है कि क्या इन सभी खतरों से संबंधी तथ्यों को चीन सामने लाएगा भी या नहीं। ऐसे में अब यह बहुत जरूरी हो गया है कि हिमालय क्षेत्र की सभी बांध व पनबिजली परियोजनाओं के असर का सही व समग्र आकलन हो तथा विभिन्न देश इस बारे में सही जानकारी एक-दूसरे को उपलब्ध करवाएं, ताकि भविष्य में विभिन्न खतरों और दुष्परिणामों से बचा जा सके। इसके साथ यह भी जरूरी है कि स्थानीय लोगों व समुदायों को निर्णय प्रक्रिया से जोड़ा जाए और सारा कार्य पारदर्शिता व लोकतांत्रिक माहौल में किया जाए।

सोर्स: अमर उजाला

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