सम्पादकीय

हिमाचल का योगदान

Rani Sahu
14 Aug 2021 5:25 PM GMT
हिमाचल का योगदान
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भारतवर्ष में मुगल साम्राज्य का सूर्यास्त होते ही अंग्रेजी सत्ता का उदय होने लग पड़ा था

दिव्याहिमाचल। भारतवर्ष में मुगल साम्राज्य का सूर्यास्त होते ही अंग्रेजी सत्ता का उदय होने लग पड़ा था। जो विदेशी हमारे यहां व्यापार करने के लिए आए थे, उन्होंने धीरे-धीरे यहां की राजनीतिक सत्ता को हथियाने की शुरुआत कर दी। वे 'फूट डालो राज करो' की कूटनीति को अपनाकर भारतीय राजाओं को अपने काबू में करने लगे। ब्रिटिश सरकार धीरे-धीरे रियासतों की जिम्मेवारी अपने हाथों में लेने लगी थी। उन्होंने राजाओं को कई प्रकार के प्रलोभन देकर या फिर अपनी ताकत दिखा कर उन पर शिकंजा कसना शुरू कर दिया था। सन् 1857 को हम आजादी की लड़ाई की प्रथम घटना बताते हैं, लेकिन उससे पहले भी हमारे बहुत से आदिवासियों, कई राजाओं व साधु-संतों ने अंग्रेजों की खिलाफ विद्रोह करना शुरू कर दिया था। उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाइयां भी लड़ी थी। जैसे सन् 1795 से 1800 में झारखंड क्षेत्र में चेरो आंदोलन ने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ 'जंगल की आग' का संकेत दिया था।

सन् 1785 में तिलका मांझी को भागलपुर में अंग्रेजों ने फांसी की सजा दी थी। सन् 1824 में बैरकपुर का प्रथम सैनिक विद्रोह, 1836 में गुजरात का महीकात विद्रोह, सन् 1855 में सैनिक विद्रोह, सन् 1830 से 1860 में नील विद्रोह, कानपुर से नानासाहेब पेशवा और महाराष्ट्र से तांत्या टोपे ने क्रांति की लहर को फैलाया था और युद्ध भी किए थे। उस समय राजा-महाराजाओं ने कोई सत्ता पाने के लिए युद्ध नहीं किए थे। उन्होंने तो अंग्रेजों द्वारा लादी गई एक नई गुलाम व्यवस्था को लागू करने के विरोध में और अंग्रेजों के कारिंदों व दलालों द्वारा किए जाने वाले जुल्मों, शोषण व अत्याचारों के खिलाफ संघर्ष किया था। वे मातृभूमि को गुलाम नहीं होना देना चाहते थे। सन् 1846 ईस्वी के अंत तक अंग्रेजों ने कांगड़ा और शिमला पहाड़ी क्षेत्रों का अधिग्रहण कर लिया था। अंग्रेज कांगड़ा को ट्रॉफी के रूप में अपने पास रखना चाहते थे। इसी पर महाराजा संसार चंद के पोते व महाराजा अनिरुद्ध चंद्र के पुत्र राजा रणवीर ने अंग्रेजों की रणनीति को भांप लिया और उनके खिलाफ विद्रोह कर दिया।
लेकिन सन् 1847 में संघर्ष के दौरान ही उनका देहांत हो गया। उसके बाद उनके छोटे भाई राजा प्रमोद चंद गद्दी पर बैठे। अपने भाई की तरह ही अपना विद्रोह जारी रखा। उन्होंने नूरपुर, जसवां, दातारपुर, नादौन, सिख व अन्य राजाओं को जोड़कर अंग्रेजों से जंग करने की योजना बनाई। महाराजा प्रमोद चंद ने अपने 8000 बहादुर राजपूतों की सेना के साथ ब्रिटिश सैनिकों से लोहा लेने के लिए एक मजबूत सेना बना कर बहुत ही बहादुरी से अपना मार्च शुरू कर दिया। उस समय ब्रिटिश सरकार की कूटनीति विश्व युद्ध को देखते हुए युद्ध करने के पक्ष में नहीं थी। वे हमारे राजाओं व सैनिकों को अपने साथ मिलाकर विश्व युद्ध के लिए संगठित करना चाहते थे। वे कई राजाओं को कई प्रकार के प्रलोभन देकर अपने पक्ष में लेने की कूटनीति से दबाव बनाने में कामयाब हुए और उस समय कर्नल लारेंस, जो आयुक्त के अधिकार के तहत महाराजा प्रमोद चंद को उनकी स्वतंत्रता देने और शासक बनाने के लिए तैयार हो गए थे। युद्ध के दौरान राजा प्रमोद चंद और अंग्रेजों के बीच लगातार संवाद जारी रहा। लेकिन महाराजा प्रमोद चंद अंग्रेजों की कठपुतली नहीं बनना चाहते थे और उनकी मंशा को अच्छी तरह से समझ चुके थे। कुछ राजाओं ने अपने व्यक्तिगत, निजी राजनीतिक स्वार्थ व राज पाने के लिए अंग्रेजों का साथ दिया। सुजानपुर किले में कई दिनों तक अपनी बात मनवाने के लिए उन्हें कई प्रकार के प्रलोभन देने की कोशिश करते रहे और फिर बहुत ही सुनियोजित तरीके से धोखे से महाराजा प्रमोद चंद को कैद कर लिया। अगर सभी राजा एक होकर लड़ते तो हम गुलाम नहीं होते।


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