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यूनानी दार्शनिक प्लेटो ने अपनी पोथी ‘रिपब्लिक में लिखा है
अतिथि संपादक : चंद्ररेखा ढडवाल, मो. : 9418111108
हिमाचल की हिंदी कविता के परिप्रेक्ष्य में -20
विमर्श के बिंदु
1. कविता के बीच हिमाचली संवेदना
2. क्या सोशल मीडिया ने कवि को अनुभवहीन साबित किया
3. भूमंडलीकरण से कहीं दूर पर्वत की ढलान पर कविता
4. हिमाचली कविता में स्त्री
5. कविता का उपभोग ज्यादा, साधना कम
6. हिमाचल की कविता और कवि का राज्याश्रित होना
7. कवि धैर्य का सोशल मीडिया द्वारा खंडित होना
8. कवि के हिस्से का तूफान, कितना बाकी है
9. हिमाचली कवयित्रियों का काल तथा स्त्री विमर्श
10. प्रदेश में समकालीन सृजन की विधा में कविता
11. कवि हृदय का हकीकत से संघर्ष
12. अनुभव तथा ख्याति के बीच कविता का संसर्ग
13. हिमाचली पाठ्यक्रम के कवि और कविता
14. हिमाचली कविता का सांगोपांग वर्णन
15. प्रदेश के साहित्यिक उत्थान में कविता संबोधन
16. हिमाचली साहित्य में भाषाई प्रयोग (काव्य भाषा के प्रयोग)
17. गीत कविताओं में बहती पर्वतीय आजादी
डा. सुशील कुमार फुल्ल, मो.-9418080088
यूनानी दार्शनिक प्लेटो ने अपनी पोथी 'रिपब्लिक में लिखा है कि कवियों को समाज से निष्कासित कर देना चाहिए क्योंकि वे नाहक नागरिकों की भावनाओं को उच्छृंखलता के स्तर तक उकसाते हैं, परंतु यह भी सच है कि कविता व्यक्ति के सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक परिष्कार भी है। मन में उपजती अशांत एवं आक्रांत भावनाओं के विरेचन का भी काम करती है और उनका मार्ग भी प्रशस्त करने में सहायक होती है। कविता मनुष्य की भावनाओं को गाम्भीर्य से उद्घाटित करने की कला है। प्रत्येक रचनाकार शब्द शक्ति का प्रयोग अपने अनुभव एवं अपनी सम्प्रेषण क्षमता के अनुरूप करता है। और कविता की प्रभावान्विति विषयवस्तु और सहज प्रस्तुति से निष्पन्न होती है, शब्दों की सांठगांठ से नहीं।
इसी में स्वाभाविक काव्य सृजन एवं जोड़-तोड़ कर बनाई हुई कविता का भेद निहित है। हिमाचल की हिंदी कविता देश की हिंदी कविता के नद के समान प्रवाहित होती रही है, एकदम शांत प्रशांत रूप में। सन् 1947 से आज तक की हिंदी कविता का आकलन करना चाहें, तो हिमाचल की वर्तमान भौगोलिक सीमाओं में स्थित लेखकों ने निरंतर काव्य धारा को गतिमान रखा है। आज से चार दशक पूर्व मैंने हिमाचल की हिंदी कविता को तीन वर्गों में विभाजित करने का प्रयास किया था, अर्थात आधुनिक भावबोध से सम्पृक्त कविता, राष्ट्रीय भावबोध की कविता तथा अन्य या फुटकर कवि। आज भी जब मैं देखता हूं कि कविता में बाढ़ सी आ गई है, मेरा मूल वर्गीकरण वहीं ठहरता है क्योंकिइसमें विभिन्न मत-मतांतरों को समाहित किया जा सकता है।
कविता का निकष पाठक होता है या फिर समय की शिला। स्वातंत्रयोत्तर भारत में लेखक पहले पत्र-पत्रिकाओं में छपते थे, जहां संपादकों की पारखी नजर उन्हें स्वीकार या अस्वीकार कर देती थी। धीरे-धीरे छपना और लेखक का आत्म सम्पादन, काट-छांट रचना को उपयुक्त आकार देने में सहायक होता था। और फिर कहीं वर्षों बाद पुस्तक रूप में प्रकाशित होना कवि या लेखक की यात्रा को सफल बना देता था। प्रकाशकों के सम्पादक भी सामग्री का मूल्यांकन करने पर ही किसी भी पुस्तक के प्रकाशन के लिए हां करते थे। आज स्थिति बदली हुई है। समाचार पत्रों के साहित्यिक परिशिष्टों या पत्रिकाओं में प्रकाशन के पूर्व ही कवि लेखक अपनी रचनाओं को पुस्तकाकार छाप या छपवा लेते हैं।
उनके पास मूल्यांकन के लिए समय ही नहीं। और फिर मूल्यांकन भी आजकल प्रबंधन से हो जाता है। इसलिए पुस्तक की गुणवत्ता न तो लेखक को पता चलती है और न ही प्रकाशक को। प्रकाशन जो कभी साहित्य सेवा के भाव से किया जाता था, वह अब व्यवसायी हो गया है। बहुत कम प्रकाशक बचे हैं जो आज भी पुराने मापदंडों या नीतियों का पालन करते हैं। इससे साहित्य जगत को भी नुकसान हुआ है। हर कवि अपने आपको निराला समझता है और हर कवयित्री अपने आपको महादेवी वर्मा। मारधाड़ की ऐसी स्थितियां होने पर भी हिमाचल की हिंदी कविता एवं कवि निष्काम भाव से साधनारत रहे हैं। भले ही किसी को अभी तक साहित्य अकादमी या ज्ञानपीठ पुरस्कार नहीं मिला है, परंतु काव्य कौशल की प्रखरता तो समय-समय पर सराही ही गई है।
प्रो. चंद्ररेखा ढडवाल के अतिथि संपादन में जो आलेख इस कड़ी में प्रकाशित हुए हैं, उनमें बहुत कुछ ऐसा प्रकाश में आ गया है, जो महत्त्वपूर्ण है और ऐतिहासिक भी है। स्त्री विमर्श पर भी तीन-चार महिला लेखकों के लेख नए शिखरों को रेखांकित करने वाले हैं। आम व खास लेखकों की भी भरपूर चर्चा हो चुकी है, विशेषकर नए लेखकों को अपना नाम सम्मिलित होते दिखना सुखकर लगता है। लगे भी क्यों न, साहित्य साधना का यही तो फल है, जिसकी अपेक्षा सभी साहित्यकार बंधु निरंतर करते हैं। कभी-कभी जानबूूझ कर और कभी-कभी अज्ञानवश भी नाम छूट जाते हैं, इससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ता क्योंकि जो लेखक है, उसका अवदान देर-सवेर पहचाना ही जाएगा। यहां मेरा अभिप्राय नाम परिगणन नहीं है, अपितु पचहत्तर वर्ष की हिमाचल में रचित हिंदी कविता की विशिष्टताओं एवं प्रवृत्तियों का आकलन करना है। कबीर, तुलसीदास की दोहा लेखन की परंपरागत प्रवृत्ति हिमाचल की हिंदी कविता में भी विद्यमान है। सन् 1948 में जगतराम शास्त्री कृत 'जगत सतसई उल्लेखनीय ग्रंथ है, जिसमें जीवन की व्यावहारिकता एवं अनुभवों की उपदेशात्मक अभिव्यक्ति मिलती है।
फिर सन् 1964 में प्रकाशित चातक वर्मा की छोटी-सी पुस्तिका मिलती है जिसमें दोहे मिलते हैं जो सांसारिक प्रेम के माध्यम से दैवी प्रेम की यात्रा करवाते हैं। संयोगवश यह हिमाचल की प्रथम प्रकाशित काव्य पुस्तक भी है। इसके साथ ही सीआरबी ललित की भी चौंसठ-पैंसठ में प्रकाशित पुस्तक 'उन्मुक्त स्वर मिलती है, उसे भी चातक वर्मा के साथ प्रथम होने का श्रेय दिया जा सकता है। सातवें-आठवें दशक में राजेंद्रपाल सूद ने भी दोहों का प्रयोग अपने खंड काव्य में किया है। इक्कीसवीं शताब्दी में दिलीप वशिष्ठ एवं अजय पाराशर ने दोहों में रुचि दिखाई है। पाराशर ने सतसई की रचना की, परंतु पता नहीं क्यों पुस्तक का नाम सतसई नहीं रखा। संसार चंद प्रभाकर, गंगथ के स्वर्गीय राम स्वरूप शर्मा उर्फ परवाज नूरपुरी ने भी दोहा छंद का प्रयोग किया है। धार्मिक साहित्य में दोहा शैली का अधिक प्रयोग हुआ है। मध्यकालीन प्रेमाख्यानों में भी मसनवी, द्वित्तक, कड़वक आदि छंदों का प्रयोग हुआ है।
मुझे लगता है कि अधिकांश कवियों ने इसे शायद इसलिए नहीं अपनाया क्योंकि इससे पुरानी पद्धति की गंध आती है। गीत लेखन भी साठ से लेकर अस्सी के दशक में काफी प्रचलन में रहा। रामकृष्ण कौशल के 'गीत अगीतÓ सातवें दशक में बड़े प्रसिद्ध थे। सत्येंद्र शर्मा, अनिल राकेशी, ओम अवस्थी, श्रीनिवास श्रीकांत, कैलाश भारद्वाज आदि ने बखूबी गीति काव्य का सृजन किया है।
गीतात्मकता से भरपूर हिमाचली कविता
गीत एवं नवगीत की परंपरा पुन: लौट रही है क्योंकि ध्वन्यात्मकता एवं सस्वर गायन का अपना ही आनंद होता है। चंद्ररेखा ढडवाल को यों ही आज स्वर कोकिला नहीं कहा जाता। अर्थ गाम्भीर्य के साथ-साथ स्वर का जादू श्रोताओं के सिर चढ़ कर बोलने लगता है। सरोज परमार भी जब मूड में होती हैं तो स्वर में गाती हैं। लय की तान की नवीन हल्दूनवी में भी अद्भुत क्षमता है। कभी-कभी विजय पुरी, राजीव कुमार त्रिगर्ती भी गीत के लहजे में अपनी कविताओं का पाठ करते हैं। लयात्मकता एवं गीतात्मकता भी प्रदेश की कविता की प्रवृत्तियां रही हैं। नई कविता, अकविता के काल के प्रारम्भिक दौर में रामदयाल नीरज ने भी छिटपुट कविताएं लिखीं, वह केवल नई कविता की बानगी परोसने वाली बात थी, लेकिन सर्वाधिक ध्यान खींचने वाली कविताओं में श्रीनिवास श्रीकांत की 'जरायु ही प्रमुख रही। यह दुरुह एवं क्लिष्ट श्रेणी की कविता थी। स्वयं कवि भी पुन: ऐसी कविता नहीं लिख पाया। यह घटाटोप बिम्बों की कालजयी कविता है, जो आधुनिक जटिल मानसिकता की परिचायक है, मुक्तिबोध का स्मरण करवाती है। केशव, रेखा वशिष्ठ, कुमार कृष्ण, सुंदर लोहिया, जिया सिद्दीकी, अरविंद रंचन आदि इसी वर्ग के कवि रहे हैं।
आज इस श्रेणी में गणेश गनी, अजेय, राजीव त्रिगर्ती, यूसुफ ज़ेई आदि का नाम सहज ही लिया जा सकता है। अनूूप सेठी ने अपनी अलग पहचान बनाई है शिल्प और विचार की क्षमता के आधार पर। दीनू कश्यप, सुंदर लोहिया, विजय विशाल, सुरेश निशांत आदि जनवादी चेतना के कवि रहे हैं। वर्तमान काल मेें एक कवि शांत भाव से बहुत ही रसीली कविताएं लिखने में व्यस्त है। कोमलकांत पदावली एवं वैचारिक हलचल का यह कवि है कुलराजीव पंत। एक अन्य उभरता हुआ कवि अरविंद ठाकुर है, जो अपने सरकाघाटी अंदाज में व्यवस्था पर चोट करने के कारण सहज ही अपना ध्यान आकर्षित करता है। सहज अभिव्यक्ति में निपुण एक अन्य युवा से बूढ़ा-बूढ़ हो रहा कवि है हंसराज भारती जो अपनी मार्मिक अनुभूतियों के माध्यम से पाठकों का ध्यान आकर्षित करता है।
मुझे लगता है कि यह एक सामान्य प्रवृत्ति हो चली है कि दुरुहता को त्याग सरल ढंग से अपनी बात को कहा जाए। डा. गौतम व्यथित, डा. खुशहाल शर्मा, पत्रकार लेखक जयकुमार, जयनारायण कश्यप, जसूर के डा. प्रदीप शर्मा ने प्रभावशाली ढंग से मुक्त तथा गीति शैली में रचना कर अपना वर्चस्व स्थापित किया है। इसी वर्ग में अनंत आलोक, विक्रम गथानिया, सुमन शेखर, भारती कुठियाला, हरिप्रिया प्रभृति का नाम लिया जा सकता है। पीयूष गुलेरी की छंदात्मकता आज बहुत कम देखने को मिलती है। तुरंत और त्वरित गति से लिखने के कारण वर्तमान कविता को हानि भी पहुंची है। अधिक समय तक जीवित रहने के लिए कविता को अपने में विचार की गंभीरता एवं शब्द की विलक्षणता को भी समाहित रखना होता है। इधर नए-नए प्रयोग भी कुछ कवियों ने किए हैं, यथा हाइकू शैली में अपने भावों को व्यक्त करना ताजग़ी का अहसास करवाता है। कुंवर दिनेश सिंह ने हाइकू के माध्यम से अपने काव्य कौशल का परिचय दिया है। हरि कृष्ण मुरारी ने माला के मनके कविता में बना कर नवीनता का अहसास करवाया है। नवीन हल्दूनवी की जिह्वा पर आजकल सरस्वती का वास है, तभी तो उसके हर शब्द में लयात्मकता एवं भावों का प्रवाह उमड़ता-उफनता मिलता है। खुशहाल शर्मा की कविता स्वर लहरियों की मंजूषा का आभास करवाती है। युवा कवि नवनीत शर्मा के भाव चित्र श्रोता एवं पाठकों को सहज ही सम्मोहित करने में सक्षम रहते हैं। ऐसा स्पष्ट आभास होता है कि गज़़ल लेखन की प्रवृत्ति आज प्रखरता के साथ उभर कर हिमाचल के साहित्याकाश पर छायी हुई है, कविता दौड़ में कहीं पीछे छूट गई है।
बहुत पहले सागर पालमपुरी, शबाब ललित, परवाज नूरपुरी आदि ने अपना लोहा मनवाया था, परंतु नई पौध में प्रेम भारद्वाज, द्विजेंद्र द्विज, पवनेंद्र पवन, विनोद प्रकाश गुप्ता, चंद्ररेखा ढडवाल, यूसुफजई, अर्जुन कन्नौजिया, दिलीप वशिष्ठ प्रभृति ने भी धमाचौकड़ी मचाई है और गज़़ल साहित्य को समृद्ध किया है। द्विज की गज़़लों का ज्ञानपीठ से प्रकाशित होना अपने आप में हिमाचल की कविता या गज़़ल की उपलब्धि है। और लोगों ने भी गज़़ल लेखन में दखल दिया है और वे धीरे-धीरेे इसकी बारीकियों को उकेरने में कामयाब हो रहे हैं। गत पचहत्तर वर्ष में हिमाचल में लिखी गई कविता वस्तुत: अपनी यथार्थपरकता, गंभीरता एवं विषयवस्तु की विविधता के कारण सहज ही आकर्षित करती है। इसमें प्रकृति की छटा का भी बखान है, कल-कल करते झरनों की मधुर ध्वनि और अनेक लोक रंगों की महक विद्यमान है। कविता एवं संगीत पर्वतीय जीवन के अभिन्न अंग हैं। हिमाचल के महत्त्वपूर्ण योगदान से जरा हट कर यदि हम गत पंद्रह वर्षों में लिखित एवं प्रकाशित कविता को देखें तो लगता है कि अधिकांश लोग जो बाथ रूम में गुनगुना रहे थे, वे बाथ रूम से निकलते ही कवि हो गए और उन्हें लगने लगा कि वे महान हो गए हैं। इल्हाम होते ही पुस्तक का छप जाना उन्हें लगता है कि वे जीते जी अमर भी हो गए हैं। यह उत्तर आधुनिक काल की सबसे बड़ी विडंबना है। कभी विपाशा के किनारे बैठ कर सोचना होगा कि हमारी कविता या हमारे साहित्य में कितना दम है और फिर यदि आज के चुनावी राजनेताओं की तरह हुंकार भरनी हो, फिर तो सब ठीक ही ठीक है, सिमिट सिमिट जल भरही तलाबा और हिमाचल के कविता सागर में तो निरंतर कोमल मृदुल कविता का तरल पदार्थ भरा ही जा रहा है। क्या ही अच्छा हो यदि पुराने दिग्गज पुन: अपनी शब्दों की बहार को गुलजार करने लगें। अभी तो वे विश्रांति गृह में लोटस ईटर्ज की तरह लेटे हुए ही लगते हैं। लेकिन उनका जागना युवा पीढ़ी के लिए रचनात्मक प्रेरणा बनेगा। -डा. सुशील फुल्ल
पुस्तक समीक्षा : सदियों का सारांश, लम्हों में बयां
गज़़ल की तहज़ीब को उसकी समग्रता में जानते, समझते द्विजेन्द्र द्विज समकालीन सच और परिवेशगत परिप्रेक्ष्य की भी गंभीर समझ रखते हैं। अपने पहले संग्रह 'जन-गण-मन से चर्चा में आए द्विज का अभी हाल में ही हिमाचली भाषा में भी गज़़ल संग्रह आया है। 'ऐब पुराणा सीहस्से दा में उन्होंने पहाड़ी भाषा के ठेठ मुहावरे में आज के मुद्दों की बात की है। 'सदियों का सारांश उनका दूसरा हिंदी गज़़ल संकलन है जो आदमी के मन और समाज में आकार प्रकार की बिम्बात्मक अभिव्यक्ति है। व्यक्ति व व्यक्ति और समाज व समाज के बीच का एकांत वार्तालाप है। द्विजेन्द्र सिद्धहस्त गज़़लकार हैं, इसलिए क़ाफिय़ा रदीफ़ और बह्र पर बात करने की गुंजाइश नहीं बचती। एक नुक्ता भर त्रुटि न रहे, इसके लिए वह अभिप्रेरणा के स्फुलिंग से निकली गज़़ल को अभ्यास की खराद पर बार-बार तराशते हैं, जब तक एक-एक शेर धारदार न लगे।
कथ्य की दृष्टि से इस संग्रह की 88 गज़़लें तमाम मुश्किलों व अवरोधों के समानांतर चलते मनुष्य के संघर्ष का दस्तावेज हैं। बाहर की ही नहीं, भीतर तक की भी यात्रा का मर्म इनमें उद्घाटित हुआ है। भाषा के स्तर पर उर्दू का हिंदी के शब्दों का सहज व अनायास प्रयोग एक लयात्मक सामंजस्य पैदा करता है। अपने परिवेश का जीवट व शोषण द्विजेन्द्र का सरोकार है : 'जिस तरह चढ़ रहे हैं वे ज़ीना पहाड़ का/लगता है बैठ जाएगा सीना पहाड़ का। तथाकथित बड़प्पन के प्रभामंडल में गुम होते बच्चे कीफक्र देखें : 'किसी के ख्वाब में गुम हो गया है वह बच्चा/हसीन ख्वाबों की जो तितलियां पकड़ता था। हवा में ठहरे हुए डर के बावजूद तटस्थ व शांत रह पाते लोगों के लिए द्विजेंद्र का शेर देखें : 'खौफ के शहर में खुशियों की चमक चेहरे पर/दोस्तो आपका पत्थर का जिगर लगता है। ऊर्जा के लिए प्रोत्साहन की बानगी देखिए : 'अंधेरे रास्तों की फिक्र ही नहीं उनको/जुनून वालों के आगे तो बस उजाला है। आदमी के विश्वास को भी सत्ता बाज़ार और तथाकथित धर्म ने अपने इस्तेमाल की चीज बना लिया है : 'त्रासदी यह है हमारी अस्मिता के मंत्र भी/आपके हाथों में आकर खोखले नारे हुए। लिखना, असल में अपने साथ होना है, पर आज तो ख़ुद को छुपाने की जादूगरी ज्यादा है। व्यंग्य की धार महसूस करें : 'नहीं होते कभी ख़ुद से मुख़ातिब/करेंगे आप द्विज जी शायरी क्या। स्याह अंधेरे में रोशनी के लिए शायर की तड़प मात्र दो पंक्तियों में प्रार्थना रच देती है: 'किसी भी हीले से या फिर किसी बहाने से/बचाओ दुनिया को नफऱत के कारख़ाने से।
विस्फोटक बिंदु पर आ पहुंचे समाज को चेतावनी देखें – 'गिरा है आंख से जो एक आंसू/वही कतरा समंदर हो गया तो? सच देखने और सच बयानी के बीच की मुश्किलें देखिए : 'वो चश्मदीद, हुआ क़त्ल सामने जिसके/बयां के वक्त वही शख्स बेज़ुबां निकला। जि़ंदगी का सफऱ तकलीफ़ें देता है, पर साथ ही साथ एक ख़ास तराश भी देता है। अनगढ़ता, मुकम्मल कौशल हो जाती है : 'हालात ने जो ख़ूब तराशा नहीं होता/पत्थर ही मैं रहता कभी हीरा नहीं होता। आतताइयों के सामने डट कर खड़े होने की हिम्मत का सख्त रवैया देखें : 'छोड़ दे चिनगारियों से खेलने का अब जुनून/सिर्फ तेरा ही नहीं बस्ती में घर मेरा भी है। तरक्की के तमाम दावों के बाद भी भूख ही मुद्दा है और रहेगी : 'न राजा याद आएगा, न रानी याद आएगी/हर इक भूखे को रोटी की कहानी याद आएगी। जीवनशैली का हिस्सा हो गया है छल-छद्म जो है उससे जुदा दिखने की कवायद में जुटा है आज सुविधा भोगी व्यक्ति : 'हर सुविधा तेरे पास रे जोगी/धत तेरा सन्यास रे जोगी। बहुत कुछ गंभीरता से कहने वाले द्विजेन्द्र हास्य व्यंग्य से भी बहुत कुछ कहने की सामथ्र्य रखते हैं। इसी गज़़ल का आखिऱी शेर दर्द की इंतिहा बनता है : 'क्या जीवन क्या जीवन-दर्शन/मर जाए जब आस रे जोगी। राम-रहीम की फिक्र में आदमी को आदमी से भिड़ाती फितरत पर, रूह को झिंझोड़ती फरियाद देखिए : 'ख़ुदा महफूज़ है वो है जहां भी/बचा लो आदमी को आदमी से। आधुनिक समय बाज़ार का युग है। तिजारत, सत्ता, धर्म, समाज और घर, हर जगह है। पर यह हुनर सबके बस का नहीं : 'तुम जिनकी बदौलत अभी फल-फूल रहे हो/सबको वही सिक्के तो भुनाने नहीं आते। तंगहाली और तंगदिली के कगार तक पहुंची जि़ंदगी को एक बेशकीमती मश्विरा देखें : 'जऱा झांक कर ख़ुद से बाहर तो देखो/इस 'अंदर को बाहर बना कर तो देखो। गज़़लों में दर्द की गहराइयां है तो सुकून के मणि मुक्ता का आकार-प्रकार भी नीली परतों तले झिलमिलाता है। भाव और अभिव्यक्ति, दोनों स्तरों पर प्रभावी यह गज़़ल संग्रह द्विजेन्द्र द्विज के वैचारिक व कलात्मक कौशल के प्रति बहुत आश्वस्त करता है। महत्त्वपूर्ण विचार-विमर्श को ज़मीन देता यह गज़़ल संग्रह हिंदी गज़़ल साहित्य में रेखांकन योग्य कृति है। -चंद्ररेखा डढवाल
समीक्षित कृति : सदियों का सारांश (गज़़ल संग्रह)
गज़़लकार : द्विजेन्द्र द्विज
प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली
मूल्य : 260 रुपए
विश्व ध्यानाधार का नया आकर्षक अंक
हिमाचल से प्रकाशित धर्म, संस्कृति, अध्यात्म एवं ज्योतिष की त्रैमासिक पत्रिका 'विश्व ध्यानाधारÓ का जनवरी-मार्च 2022 का अंक प्रकाशित हुआ है। चमन सिंह जरयाल इस पत्रिका के संपादक हैं। पत्रिका के इस अंक में धर्म में रुचि रखने वाले लोगों के लिए बहुत कुछ है।
संपादकीय में इस बार गायत्री तत्व महिमा बताई गई है। नववर्ष के आगमन पर लिखी गई सुमन कुंदरा की कविता में ईश्वर से प्रार्थना है कि महामारी कोरोना का जल्द अंत हो जाए। सर्वेश्वरानंद भारती भक्ति तथा ज्ञान का महत्त्व समझाते हैं। दुर्गा सप्तशती पर वीपी अग्नि का आलेख आकर्षक है। आशुतोष कंवर ने नागनी माता मंदिर भडवार की महिमा बताई है। चमन प्रभाकर भारतीय योग पर संभाषण करते हैं।
कुलदीप शास्त्री ने आध्यात्मिकता के तीन चरण समझाए हैं। जेपी शर्मा लिखते हैं कि मानव शरीर विषयोपभोग के लिए नहीं है। सुरेश आचार्य ने महाशिवरात्रि का महत्त्व समझाया है। आरएस राणा तिल की खेती के बारे में बता रहे हैं। डा. पीयूष गुलेरी की गल भी इस अंक की शोभा बढ़ाती है। सूप कैसे बनता है, इस विषय पर विस्तार से बताया गया है। त्रैमासिक फलादेश के साथ-साथ इस पत्रिका में कई अन्य लेखकों ने भी अहम मसलों पर चर्चा की है। आशा है पाठकों को यह अंक जरूर पसंद आएगा। -फीचर डेस्क
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