- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- साहित्यिक लम्हों में...

साहित्य के उत्सव में शरीक होना ही अपने आप में जनसंवाद का धरती से स्पर्श है, लेकिन यहां तो साहित्य का अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन था, इसलिए लेखकों की परिधि में सारे स्रोत और विषयों के आंगन में मेहमाननवाजी का ओज देखा गया। शिमला के लिए आयोजन की रौनक और साहित्य की छत से टपकते मशविरे गुनगुनाते रहे, लेकिन शहर और प्रदेश ने खुद को अपनी अखियों से कितना देखा और क्या किसी के मन में यह जिज्ञासा नहीं हुई कि इन पर्वतीय छतों के भीतर यह देखा जाए कि निर्मल वर्मा की 'लाल टीन की छत' आज है किस स्थिति में। शिमला की ब्रिटिश विरासत में ऐसा अतीत और वर्तमान है, जहां साहित्यिक यात्रा हर रोज कहीं मुकम्मल होती और कहीं मुलाकात करती है, लेकिन क्या इतने बड़े आयोजन के किसी कक्ष तक शिमला से जुड़ा साहित्य पहुंचा या यूं कहें कि साहित्यिक प्रेरणा स्रोत रहे हिमाचली संदर्भों की बात होती तो चंद्रधर शर्मा गुलेरी, यशपाल, बाबा कांशी राम से निकल कर रस्किन बॉण्ड और उससे भी कहीं आगे पर्वतीय प्रदेश की घाटियों में पैदा हुए लोकसाहित्य की मीमांसा हो जाती। बेशक कुल 435 लेखकों के कद में कई हिमाचली चेहरे सलामत रहे, लेकिन सवाल यही कि इस जमावड़े में प्रदेश ने स्वयं को किस स्वरूप मेें अभिव्यक्त किया। कम से कम हिमाचल के विश्वविद्यालयों या अन्य अध्ययन केंद्रों में जो छात्र साहित्य की विधा में अपने हस्ताक्षर खोज रहे हैं, उन्हें ही कुछ लम्हे मिल जाते। विवेचन की पपडि़यां हटाते और भारत की 760 भाषाओं में गोता खाते कई उद्गार सामने आए, लेकिन जब फिल्मी अदाकारा दीप्ति नवल जलियांवाले बाग के सेल्फी प्वाइंट पर आपत्ति दर्ज कर रही थी तो किसी ने यह प्रश्न नहीं उठाया कि डाडासीबा में बाबा कांशीराम के घर की छत से कितने स्लेट गायब हैं और वर्षों बाद प्रस्तावित स्मारक की फाइल पर भाषा-संस्कृति विभाग क्यों कुंडली मार कर बैठा है। साहित्य के महासागर में गंगा की अविरल धारा में नदियों का अस्तित्व खोजती आंखें अगर हिमाचल के आंचल से निकलती नदियों को भी देख लेतीं, भाखड़ा, पौंग या कोल बांध में विमर्श के सामाजिक-सांस्कृतिक पक्ष को निहारतीं, तो कहानियों के संघर्ष में शब्दों की कई किश्तियां भी तैर सकती थीं। शिमला के महासम्मेलन ने जो ताज पहन रखे थे, उनके नीचे या तो विमर्श इतना ऊंचा था कि हमारे लेखक बंधु खुद को ढूंढ नहीं पाए या मसला उस संदेश का था, जो बड़े सलीके से चुना गया।
सोर्स- divyahimachal
