सम्पादकीय

पर्वतीय विकास मंत्रालय जरूरी

Rani Sahu
17 Sep 2021 7:00 PM GMT
पर्वतीय विकास मंत्रालय जरूरी
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एक रिवायत जिसके सदके हिमाचल अपनी माटी का कर्ज तो उतार रहा है, लेकिन आगे बढ़ने का संकल्प भी तैयार करना होगा

एक रिवायत जिसके सदके हिमाचल अपनी माटी का कर्ज तो उतार रहा है, लेकिन आगे बढ़ने का संकल्प भी तैयार करना होगा। पूर्ण राज्यत्व के पच्चास साल का जिक्र हमें श्रद्धा से भर देता है और हम हिमाचलवासी गर्व से कह सकते हैं कि यह हमने करके दिखाया, लेकिन यह हमारा आरंभ भी है। हिमाचल ने शुक्रवार को राज्यपाल और राष्ट्रपति की आंखों से देखा, तो शब्द आत्मविभोर करते हैं। हमारा समाज-हमारा विकास, हमारे नेता-हमारी नीतियां, हमारे सैनिक-हमारा शौर्य, हमारे स्वतंत्रता सेनानी-हमारी क्रांतियां, हमारी सरकारें-हमारे सरोकार, हमारे कर्मचारी-अधिकारी-हमारा सुशासन, हमारे तमाम मुख्यमंत्री और हमारी लोकतांत्रिक जागरूकता उस वक्त अपने परचम फहरा रही थी, जब देश के राष्ट्रपति के सामने एक आदर्श राज्य के पच्चास सालों का स्वर्णिम इतिहास खुद रू-ब-रू था। राज्य केवल ईंट-पत्थर से नहीं बनते और न ही विकास के शिलालेख अपनी श्लाघा कर सकते हैं, लेकिन जब आप पर्वतीय विडंबनाओं का सीना चीरते हैं, तो सामाजिक ताकत का एहसास होता है। इसलिए प्रदेश के कारनामे यहां के नागरिक समाज का माथा ऊंचा करते हैं। स्वतंत्र भारत का पहला मतदाता श्याम शरण नेगी के रूप में हिमाचल पैदा करता है, तो देश की हिफाजत में शहादत का पहला परम वीरचक्र प्रदेश की छाती पर मेजर सोमनाथ लगाते हैं। राष्ट्रपति ने वजीर राम सिंह पठानिया का जिक्र किया, तो देश को मालूम होना चाहिए कि अंग्रेजों के विरुद्ध पहली क्रांति का उद्घोष इसी शख्स ने किया था।

विडंबना यह है कि हिमाचल अपने नायकों को आज तक माकूल सम्मान नहीं दे सका और न ही शिक्षा के पाठ्यक्रम में हिमाचल की ऐतिहासिक, शौर्य व बलिदान की गाथाओं को अधिमान मिला। उल्लेख अगर पहाड़ी गांधी बाबा कांशीराम का होता है, तो आजादी के इस परवाने के प्रतीक सुशोभित होने चाहिएं। आश्चर्य है कि आज भी पहाड़ी गांधी के पैत्रिक स्थान डाडासीबा (कांगड़ा) में उनकी याद में स्मारक नहीं बन सका, जबकि धर्मशाला में प्रस्तावित राज्य स्वतंत्रता सेनानी स्मारक पर भी एक ईंट नहीं लगी। राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने हिमाचल के निर्मल पानी का जिक्र करके हिमाचल के पर्यावरण व परिवेश को सम्मान दिया है, लेकिन इसी पानी के तट पर बिखरी हिमाचल की आहें नहीं सुनी जातीं। जलाधिकारों पर हिमाचल की सिफारिश कब होगी और कब राष्ट्र पानी को कच्चा माल मानते हुए, विद्युत उत्पादन के प्रति यूनिट पर कर लगाने की अनुमति देगा। यह कहां का इनसाफ है कि पहाड़ के पानी को देश मुफ्त में इस्तेमाल करे, लेकिन बारिश और बाढ़ का संताप हिमाचल का हो जाए। हम 66 फीसदी जमीन जंगल के नाम कर दें, लेकिन इस पर टिकी आर्थिकी व भू इस्तेमाल की कोई वित्तीय भरपाई न हो। हम फौज में जाने के लिए कोटे पर निर्भर रहें या हमारे सैन्य इतिहास में कुर्बानियों का जिक्र तो हो, लेकिन हिमाचल या हिमालय रेजिमेंट की स्थापना का दर्द न समझा जाए। अगर राष्ट्र हिमाचल को वाकई स्वर्णिम अध्यायों का हकदार मानता है, तो पर्वतीय आंचल के दुख दर्द को समेटना होगा और उन अधिकारों को इज्जत देनी होगी, जो वर्षों से कभी पंजाब पुनर्गठन की नाइनसाफी में दर्ज हैं या कभी राष्ट्रीय संसाधनों के आबंटन में राज्य को नजरअंदाज करने की तोहमत झेलते हैं। हिमाचल जैसे अन्य पर्वतीय राज्यों की तस्वीर बदलने के लिए यह आवश्यक है कि केंद्र सरकार पर्वतीय विकास मंत्रालय का गठन करे ताकि पहाड़ की कठिनाइयों को गैर राजनीतिक आधार पर समझा जा सके तथा प्रगति के नए मानदंड, तकनीक और नवाचार पैदा हों। हिमाचल को केेवल पर्यावरणीय राज्य मानकर जो बंदिशें वन संरक्षण अधिनियम लगाता है, उससे कुछ हद तक निजात चाहते हुए यह प्रदेश गैर वन भूमि की दर को पचासःपचास के अनुपात में रखना चाहेगा, क्योंकि भविष्य के लिए हिमाचल और हिमाचली उम्मीदों को अतिरिक्त जमीन चाहिए।

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