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हिजाब की जगह तालिबानी नकाब के इस्तेमाल से राइट-विंग के जाल में फंस रहे हैं मुसलमान
एम हसन
भारतीय मुस्लिम समुदाय (Indian Muslim Community) में कट्टरता की समस्या गंभीर रूप ले चुकी है क्योंकि पिछले कुछ सालों में कट्टर इस्लाम (Radical Islam) तेजी से फैल रहा है. अपने शुद्ध रूप में इस्लाम लोगों को विनम्र रहने और पुरुष और महिलाओं दोनों को ही बाल दिखाने को मना करता है और साधारण वस्त्रों के इस्तेमाल की इजाजत देता है. हालांकि, सदियों से विभिन्न इस्लामी समाजों में पितृसत्तात्मक प्रवृत्तियों ने महिलाओं को कई कठोर प्रतिबंध और परंपराओं से जोड़ दिया है जिनमें से एक पूरे शरीर को हिजाब (Hijab) और बुर्के में ढंकना भी है.
दुनिया भर में मशहूर इस्लामिक विद्वान स्वर्गीय डॉ. कल्बे सादिक "सिर से पैर तक ढंकने वाले" बुर्के को तालिबानी नकाब बोलते थे जिसे इस्लाम मंजूरी नहीं देता. अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के प्रोफेसर अली नदीम रेजवी कहते हैं कि अब जरूरत समुदाय के भीतर से सुधार की है. प्रोफेसर रेजावी ने कहा, "मुस्लिम समुदाय को इस प्रथा का विरोध करना चाहिए. यदि कोई व्यक्ति इसे पहनना चाहता है तो वह उसका अधिकार है. कोई भी धार्मिक सुधार भीतर से आना चाहिए."
मुस्लिम महिला को वह जैसा चाहती है वैसा पहनने का अधिकार है
कानूनी रूप से बात करें तो भारत का संविधान, जो भारतीय राष्ट्रीयता को परिभाषित करता है, अपने नागरिकों को (ए) अपने धर्म और रीति-रिवाजों को मानने के लिए समान अधिकार और स्वतंत्रता देता है और (बी) किसी भी विश्वास और अनुष्ठान में बाधा के बिना अभ्यास करने का अधिकार देता है. इसलिए, यदि एक नन को अपनी "हैबिट" पहनने की अनुमति दी जाती है जो सिर से पैर तक को ढकता है और एक पुजारी को उसका भगवा या सफेद अंग वस्त्र तो मुस्लिम समाज की महिलाएं भी विश्वास और परंपरा के मुताबिक हिजाब पहन सकती हैं.
इस तरह की कोई भी परंपरा चाहे वह मांगों में सिंदूर हो, पैरों की बिछिया हो या यहां तक कि सिर पर पल्लू हो महिलाओं को पुरुषों की संपत्ति की तरह दिखाता है. मगर आज भी हमारा संविधान इनकी इजाजत देता है क्योंकि अब वो सब परंपरा का हिस्सा हो गयी हैं और पहले की संपत्ति वाली छवि अब काम नहीं करती.
प्रोफेसर रेजवी ने आगे कहा, "कोई भी इस तरह की प्रथाओं की कितनी भी निंदा करे मगर वह इस तथ्य से इनकार नहीं कर सकता है कि हमारा संविधान किसी भी परंपरा के पालन की इजाजत देता है. यदि कोई बिंदी लगाना चाहता है या घूंघट से अपना चेहरा ढंकना चाहता है या हिजाब पहनने का फैसला करता है तो यह उसका अधिकार है. यदि एक धर्मनिरपेक्ष राज्य का मुख्यमंत्री भगवा वस्त्र पहन सकता है और एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र का प्रधानमंत्री हवन कर सकता है, दाढ़ी बढ़ा सकता है और वह पहन सकता है जो वह चाहता है तो दूसरों को भी अपने धर्म और प्रथाओं का पालन करने का अधिकार है. इसी तरह एक मुस्लिम महिला को वह जैसा चाहती है वैसा पहनने का अधिकार है. संविधान उसे स्पष्ट रूप से अधिकार देता है."
कट्टरपंथी इस्लामी ताकतें महिलाओं को पीछे की ओर खींच रही हैं
संविधान का अनुच्छेद 25 गारंटी देता है कि "कोई भी व्यक्ति सामाजिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य की सीमा में रहते हुए अंतरात्मा की स्वतंत्रता के साथ अपने धर्म के अभ्यास, पालन और प्रचार का हकदार है. इसके अलावा अनुच्छेद 26 कहता है कि सभी संप्रदाय धर्म के मामलों में अपना प्रबंधन स्वयं कर सकते हैं. हालांकि, इस मुद्दे पर कानूनी और संवैधानिक गारंटी को परे रख दें तो भारतीय मुस्लिम समुदाय को खुद को आधुनिक वैज्ञानिक दुनिया में आगे बढ़ने के लिए इस्लामी मूल्यों को त्यागे बिना सदियों पुरानी परंपराओं से बाहर आने की जरूरत है. सिर से पैर तक नक़ाब पहनना निश्चित रूप से इस्लाम के मूल में नहीं है.
प्रमुख इस्लामी मौलवी अली नासिर सईद अबकाती उर्फ आगा रूही ने कहा, "हमें आधुनिक विकास के साथ तालमेल बिठाना होगा और अपनी बेटियों को खुले वातावरण में आगे बढ़ने का अवसर प्रदान करना होगा. यह उनका (मुस्लिम महिलाओं का) कर्तव्य है कि वे शालीनता का पालन करें." उन्होंने टिप्पणी की कि "सलाफी इस्लाम" ने इस्लाम की आधुनिक प्रगति को भारी नुकसान पहुंचाया है. अफगानिस्तान में तालिबान शासन के बाद जिस तरह से वहां की महिलाओं को दुनिया के सामने पेश किया गया उससे वैश्विक समुदाय में इस्लाम का विकृत रुप ही गया है.
पैगंबर मोहम्मद के इस्लाम ने महिलाओं को पूर्ण स्वतंत्रता दी थी. राजशाही इस्लाम के बाद ही ऐसा हुआ कि "महिला को जंजीर से बांध दिया गया." 18वीं शताब्दी के सलाफी इस्लाम ने इसका काफी हद तक नवीनीकरण किया था. इस्लाम के भीतर कट्टरपंथी इस्लामी ताकतें महिलाओं को पीछे की ओर खींच रही हैं और उदारवादी बस मूक दर्शक बन कर देख रहे हैं.
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