सम्पादकीय

Hijab Controversy: दुनिया में वही समाज आगे बढ़ता है, जो समय के साथ प्रतिगामी प्रथाओं का परित्याग करता है

Gulabi
16 Feb 2022 4:26 AM GMT
Hijab Controversy: दुनिया में वही समाज आगे बढ़ता है, जो समय के साथ प्रतिगामी प्रथाओं का परित्याग करता है
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कर्नाटक के उडुपी शहर के एक सरकारी स्कूल से उभरे हिजाब विवाद को इस रूप में पेश करने के लिए अतिरिक्त मेहनत और शरारत की जा रही है
राजीव सचान। कर्नाटक के उडुपी शहर के एक सरकारी स्कूल से उभरे हिजाब विवाद को इस रूप में पेश करने के लिए अतिरिक्त मेहनत और शरारत की जा रही है कि भारत में मुस्लिम अल्पसंख्यकों पर आफत आ गई है। जिन दिनों यह विवाद सुलग रहा था, उन्हीं दिनों यानी इसी 4 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट की ओर से दिए गए एक फैसले का संज्ञान लेना इसलिए आवश्यक है, क्योंकि एक तो वह देश के सबसे लघु या कहें कि सूक्ष्म अल्पसंख्यक वर्ग-पारसी समुदाय से जुड़ा है और दूसरे इसलिए भी कि उससे यह पता चलता है कि परिपक्व एवंप्रगतिशील समाज किस तरह देश, काल और परिस्थितियों के हिसाब से अपनी पुरातन-प्रतिगामी परंपराओं में परिवर्तन करता है।
2011 की जनगणना के अनुसार भारत में पारसी समुदाय की आबादी करीब 57 हजार है। 1941 में उनकी आबादी 1.14 लाख थी। पारसियों की आबादी तेजी से बढ़े, इसके लिए भारत सरकार का अल्पसंख्यक मंत्रालय 'जियो पारसी' नाम से एक योजना चला रहा है। इस योजना के चलते 2020 में जब यह आंकड़ा सामने आया कि पारसी समुदाय में 61 बच्चों का जन्म हुआ तो इसे एक उपलब्धि माना गया, लेकिन आज विषय यह नहीं कि यह योजना कितनी प्रभावी है? विषय यह है कि जब कोरोना से जान गंवाने वालों के अंतिम संस्कार को लेकर प्रोटोकाल जारी हुआ तो मुख्यत: महाराष्ट्र और गुजरात में सीमित पारसी समुदाय के सामने संकट खड़ा हो गया। इसलिए खड़ा हो गया, क्योंकि यह समुदाय अपने लोगों के शव को एक ऊंची मीनार की छत पर रख देता है ताकि कौए, गिद्ध आदि उसका भक्षण कर लें और जो अवशेष रहे, वह सूर्य की गर्मी से सूख जाए। इस तरह की मीनार को 'टावर आफ साइलेंस' कहते हैं।
कोरोना काल में यह खतरा उभर आया कि अगर कोविड से मरे किसी पारसी के शव को पक्षी खाएंगे तो वे संक्रमण फैलाएंगे। इसलिए गुजरात प्रशासन ने इस पर रोक लगा दी। पारसी समाज के लोग गुजरात हाईकोर्ट गए। वहां से उन्हें राहत नहीं मिली तो वे सुप्रीम कोर्ट आए, बिना यह शोर मचाए कि उन पर जुल्म हो रहा है या उनकी परंपराओं को खत्म करने की साजिश हो रही है। कोई पारसी न तो सड़कों पर उतरा, न किसी ने मुस्लिम नेताओं और मौलानाओं की तरह यह कहा कि हमारी परंपरा में हस्तक्षेप हुआ तो हम बर्दाश्त नहीं करेंगे और न ही यह जिद की कि फैसला हमारे धर्मग्रंथ के हिसाब से ही हो।
सुप्रीम कोर्ट में मामले की सुनवाई के दौरान सालिसिटर जनरल को समस्या का कोई समाधान निकालने की जिम्मेदारी सौंपी गई। उन्होंने पारसी समुदाय के लोगों से बात की और फिर उनकी सहमति से यह तय किया कि यदि उनके समाज का कोई व्यक्ति कोरोना से मरता है तो उसका शव टावर आफ साइलेंस पर तो रखा जाएगा, लेकिन टावर की ऊपरी सतह पर लोहे की एक जाली लगा दी जाएगी, ताकि पक्षी शव तक न पहुंच सकें। कायदे से देखें तो समस्या समाधान का यह उपाय पारसी समुदाय की सदियों पुरानी परंपरा में परिवर्तन का वाहक बना, लेकिन इस समुदाय ने हालात को समझते हुए इस बदलाव को स्वीकार कर लिया। सुप्रीम कोर्ट ने पारसी समुदाय की सराहना करते हुए मामले का निस्तारण कर दिया। देश इस सबसे इसलिए अनभिज्ञ सा रहा, क्योंकि न तो इंटरनेट मीडिया पर पारसी समुदाय के लोगों ने कोई अभियान छेड़ा और न ही एकाध लोगों को छोड़कर किसी ने यह कहा कि उनके संविधान प्रदत्त अधिकारों का हनन हो रहा है।
दुनिया का कोई समाज ऐसा नहीं, जो प्रतिगामी या आज के युग की प्रतिकूल परंपराओं से न बंधा हो, लेकिन ज्यादातर समुदाय ऐसी परंपराओं को छोड़ रहे हैं। हिंदू समाज घूंघट प्रथा से करीब-करीब मुक्त हो रहा है। अभी चंद दिनों पहले राजस्थान के मुख्यमंत्री के सलाहकार एवं विधायक संयम लोढ़ा ने घोषणा की कि उनकी विधानसभा की जिस ग्राम पंचायत में एक भी महिला घूंघट नहीं करेगी, उसे 25 लाख का पुरस्कार दिया जाएगा। यह बात और है कि राहुल और प्रियंका ने हिजाब की पैरवी करना पंसद किया। शायद उन्होंने शाहबानो मामले में अपने पिता की गलती से कोई सबक नहीं सीखा। उनकी मर्जी।
बात पारसी समुदाय की हो रही थी। पारसियों में यह प्रथा भी है कि यदि कोई पारसी लड़की अन्य समुदाय के किसी व्यक्ति से विवाह कर ले तो वह समाज का हिस्सा नहीं रह जाती। वास्तव में पारसियों की आबादी में कमी का एक कारण यह परंपरा भी है। समुदाय से बाहर विवाह करने वाली पारसी लड़कियों को अपने माता-पिता के अंतिम संस्कार में शामिल होने की भी अनुमति नहीं दी जाती। कुछ वर्ष पहले एक हिंदू से शादी करने वाली पारसी महिला गुलरुख के मन में यह आशंका घर कर गई कि यदि उनके वृद्ध माता-पिता नहीं रहे तो उन्हें उनके अंतिम संस्कार में नहीं जाने दिया जाएगा। उन्होंने गुजरात हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया कि जब कभी उनके मां-बाप नहीं रहें तो उन्हें उनके अंतिम संस्कार में शामिल होने की अनुमति मिले, लेकिन हाई कोर्ट ने पारसी ट्रस्ट की इस दलील को सही पाया कि विवाह के बाद गुलरुख पारसी नहीं रहीं। निराश गुलरुख सुप्रीम कोर्ट गईं। उनके मामले की सुनवाई के लिए पांच सदस्यीय बेंच गठित हुई। सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने ऐसी टिप्पणियां कीं, जिनसे यह प्रकट हुआ कि फैसला गुलरुख के पक्ष में जा सकता है। दिसंबर 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने पारसी ट्रस्ट से जवाब मांगा। ट्रस्ट ने जवाब दिया कि माता-पिता का निधन होने पर गुलरुख को न तो टावर आफ साइलेंस में जाने से रोका जाएगा और न ही अग्नि मंदिर में।

(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं)
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