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जापान (Japan) में कामी-शिराताकी में ट्रेन एक बंद स्टेशन पर रुकती है
नंदिता बोस
जापान (Japan) में कामी-शिराताकी में ट्रेन एक बंद स्टेशन पर रुकती है, ताकि वहां की एक छोटी बच्ची स्कूल (School) जा सके. इस बात से समझा जा सकता है कि उस देश में शिक्षा (Education) का क्या महत्व है. हमारे देश में भी 2015 में लड़कियों में शिक्षा का प्रसार करने के लिए सरकार ने 100 करोड़ का बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ अभियान शुरू किया. शिक्षा ही असली धन है, क्योंकि लड़कियों को शिक्षित करने से न केवल उनका और उनके परिवारों का बल्कि पूरे समाज का फायदा होता है और पूरे समाज के फायदे का मतलब है राष्ट्र का फायदा. जनता का सशक्तिकरण मुख्य तौर से शिक्षा के जरिए ही संभव है और फिर भी सरकार की अच्छी कोशिशों के बावजूद 'एजुकेशन फॉर ऑल' वास्तविकता से ज्यादा एक स्लोगन (नारा) बनकर रह गया है. तो हम कहां पिछड़ रहे हैं? और क्यों? क्या लिंग, वर्ग, जाति, समुदाय, शहरी/ग्रामीण विभाजन, औसत पारिवारिक आय, नौकरी और दूसरे सामाजिक कारण स्कूलों तक पहुंचने में भूमिका निभाते हैं?
लिंग के संदर्भ में इसे देखें तो माध्यमिक विद्यालयों में महिला आबादी के लिए पिछड़े इलाकों में यह एक सामान्य घटना है. बढ़ती कक्षाओं के साथ धीरे-धीरे छात्राओं की संख्या कम होने लगती है. किंडरगार्टन की आधी से भी कम लड़कियां वास्तव में स्कूल खत्म कर पाती हैं. यह लैंगिक असमानता बच्चियों पर डाली गई सामाजिक अपेक्षाओं से भी संबंधित है जैसे नैतिकता पर सवाल, स्वतंत्रता पर प्रतिबंध और उनके द्वारा पहने जाने वाले कपड़े. कई दशकों से स्कूलों ने स्थानीय स्तर पर छात्राओं की स्कूल में मौजूदगी बढ़ाने के लिए सख्ती को कम किया है या कहें उनके लिए नियमों में ढील दी है.
अदालत शिक्षा को महत्व देने के बजाय यूनिफॉर्म को महत्व दे रहा है
साड़ी या सलवार कमीज को यूनिफॉर्म के रूप में अनुमति देना अभिभावकों को आश्वस्त करने का एक तरीका था कि उनकी बड़ी होती बच्चियां उनके हिसाब से कपड़े पहन कर भी स्कूल जा सकती हैं. क्योंकि कई अभिभावकों को स्कर्ट पर आपत्ति होती है. महिलाओं के कपड़ों पर खास ध्यान दिया जाता है. लड़कियों को पढ़ाने के लिए बड़ी संख्या में महिला शिक्षकों को स्टाफ में शामिल करने के पीछे भी यही कारण था. स्कूलों ने लड़कियों की शिक्षा को ज्यादा अहमियत देते हुए अपने नियमों में फेरबदल की.
एक ऐसे सिस्टम में जहां जनसंख्या और संसाधन अनुपात में बहुत बड़ा फासला है, क्या वहां हम वास्तव में जो जरूरी नहीं उस पर कड़ा रुख अपना सकते हैं? हाल ही में स्कूल यूनिफॉर्म और उसके सख्त पालन को लेकर हंगामा काफी चर्चा में रहा. इस विषय पर सबसे अच्छी टिप्पणी गौतम भाटिया जी की आई जो पेशे से एक वकील, लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं. "अदालत ने जो महत्वपूर्ण गलती की है वह यह है कि शिक्षा को महत्व देने के बजाय यह वर्दी को महत्व दे रहे हैं." और यह अकेले अदालतों का रुख नहीं हैं जो स्कूल-कॉलेज के मुख्य काम की जगह दूसरी चीजों को प्राथमिकता दे रहे हैं.
अगर ट्विटर पर हजारों की तादाद में ट्वीट करने वाले पुरुषों की मानें तो एक बच्चे को शिक्षा के संवैधानिक अधिकार से वंचित करना तब तक पूरी तरह से सही है जब तक कि यूनिफॉर्म पर सख्ती का व्यापक रूप से पालन नहीं किया जाता. यह देखकर ऐसा लगता है कि स्कूल का मुख्य काम यूनिफॉर्म पर ध्यान देना है एजुकेशन पर नहीं. देखा जाए तो यह एक लैंगिक मुद्दा है और अधिक संख्या में महिलाओं को शिक्षित करने के सरकारी अभियान का विरोध करता है.
खामियाजा हमेशा छात्राओं को ही क्यों भुगतान पड़ता है?
स्कूलों में यूनिफॉर्म के पक्ष में सबसे मजबूत तर्क यह है कि यह सभी स्टूडेंट को एक जैसा महसूस कराने के लिए है. यह सुनिश्चित करने के लिए कि अलग-अलग परिवारों की वित्तीय क्षमता एक जैसे कपड़ों के चलते नजर न आए. यानि यूनिफॉर्म स्कूल कक्षाओं में अमीर-गरीब विभाजन का अंतर खत्म कर देती है. एक सेंटीमेंट के तौर पर यह सही है लेकिन जमीनी सच्चाई यह है कि आज भारत में स्कूल इतिहास के किसी भी दौर की तुलना में पैसों के आधार पर बहुत बंटे नजर आते हैं. एक बहुभाषी, बहुसांस्कृतिक और बहुधार्मिक लोकतंत्र होने के बावजूद, हम तेजी से अपने आप को "हमारे जैसे लोगों" के जाल में फंसा रहे हैं. छात्र केवल उन्हीं स्कूलों में जाते हैं जो उनके माता-पिता अफोर्ड कर सकते हैं. बहुत महंगे स्कूलों में गरीब छात्रों का मिलना मुमकिन नहीं है क्योंकि उन स्कूलों की महंगी फीस वो अफोर्ड नहीं कर सकते.
आज स्कूल पैसा कमाने का एक साधन बन गए हैं. किताबें, स्टेशनरी, ट्रांसपोर्ट, यूनिफॉर्म सभी के जरिए पैसा वसूला जाता है. प्रोवाइडर इंस्टीट्यूशन के साथ अपना प्रॉफिट शेयर करते हैं. ऐसा क्यों है कि प्री-स्कूल और कॉलेज में स्टूडेंट रोजमर्रा के कपड़े पहन कर जा सकते हैं और यूनिफॉर्म केवल स्कूलों के लिए ही जरूरी है? क्या पश्चिमी देशों में स्कूल बहुत खराब प्रदर्शन कर रहे हैं क्योंकि वहां यूनिफॉर्म अनिवार्य नहीं है? हमारे गर्म उष्णकटिबंधीय देश में कई स्कूलों में ब्लेजर और टाई यूनिफॉर्म का हिस्सा हैं. शायद यह हमारी प्राथमिकताओं पर फिर से विचार करने और उनमें फेरबदल करने का वक्त (समय) है.
क्या स्कूलों में नियम होने चाहिए? बिल्कुल होने चाहिए क्योंकि कोई भी संस्था या संगठन अपने निर्धारित मापदंडों के अभाव में बेहतर ढंग से काम नहीं कर सकता. हालांकि नियमों को स्पष्ट होना चाहिए और उन्हें शुरू से ही लागू किया जाना चाहिए. उन्हें बीच में लागू नहीं किया जाना चाहिए. क्या नियमों को अचानक सख्त करना सही है जैसे कि स्कूल ने बोर्ड परीक्षा से सिर्फ दो महीने पहले जो नियम सालों से लागू नहीं किया था उसे लागू कर दिया? जो छात्राओं के भविष्य को प्रभावित कर सकता है. क्या स्कूल भी अपने नियमों के प्रति लापरवाह होने के लिए उतना ही दोषी नहीं है? सवाल ये है कि इस तरह के फैसलों का खामियाजा हमेशा छात्राओं को ही क्यों भुगतान पड़ता है?
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