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सिखों की पगड़ी की तुलना हिजाब से नहीं की जा सकती
देवेन्द्र सिंह
पगड़ी, सिखों (Sikh) का ताज होता है. हालांकि, सिखों की पहचान या मर्यादाएं माने जाने वाले '5K' (जिन्हें पांच ककार कहा जाता है) में इसका जिक्र नहीं है, फिर भी यह केश का ही हिस्सा है, क्योंकि 'पवित्र बाल' को पगड़ी (Turban) द्वारा ढका जाता है. इसके अलावा, पगड़ी के जरिए सिख गुरु गोबिंद सिंह (Guru Gobind Singh) के जैसा दिखना पसंद करते हैं, जिन्होंने 1699 में खालसा के तौर पर एक अलग पहचान दी थी. तब, पंजाब के बहुत से परिवारों ने अपने बच्चों को गुरू गोबिंद सिंह जी की खालसा सेना में भर्ती होने के लिए भेजा था, ताकि अपने समुदाय को मुगल आक्रमण से बचाया जा सके.
आज भी यह परंपरा कई सिख परिवारों में जारी है, जो अपने बच्चों में एक को सिख बनने पर प्रेरित करते हैं. कई परिवार ऐसे हैं जिनके सदस्य पगड़ी पहनते हैं, हालांकि कुछ परिवार ऐसे भी हैं जो नहीं पहनते. लेकिन दोनों ही पंजाबी संस्कृति का हिस्सा होते हैं. किसी भी खालसा से '5K' मर्यादाओं के पालन की उम्मीद की जाती है. इनमें केश, कच्छा, कड़ा, कृपाण और कंघा शामिल है. सामान्य अर्थों में, एक खालसा सिख होता है, हालांकि पंजाब में कई दूसरे समुदाय भी हैं. इनमें सिंधी भी हैं जो गुरु नानक के उपासक होते हैं.
सिख 'अमृतधारी' लड़कियां भी लड़कों की तरह पगड़ियां पहनती हैं
यह माना जाता है कि गुरू गोबिंद सिंह जी ने अपने सैनिकों के लिए विशेष पहचान निर्धारित की थी, ताकि युद्ध के समय वे एक जैसे दिखाई दें. उस दौर में मुगल आक्रमण आम बात हो चुकी थी. ऐसे में कच्छा और कृपाण (तलवार या चाकू) के महत्व को आसानी से समझा जा सकता है. खालसा के सदस्य को हर वक्त हथियारों से लैस और युद्ध के तैयार रहना होता था. 17वीं सदी के ये वो हालात थे, जब मौजूदा सिख धर्म आकार ले रहा था, यह गुरु नानक देव के 200 वर्षों के बाद का दौर था. जब 1675 में औरंगजेब ने गुरू तेग बहादुर की हत्या कर दी, तब सिख समुदाय को अपने सैनिक तैयार करने की जरूरत महसूस हुई.
युद्ध क्षेत्र में पगड़ी सिर को सुरक्षा प्रदान करती है. साथ ही पहले सिर पर एक स्टील की रिंग पहनने का भी रिवाज था जिसे पगड़ी द्वारा कवर किया जाता, इसका मकसद तलवार के हमले से सुरक्षा हासिल करना था. इसी तरह कड़ा का उपयोग तलवार से हाथों की रक्षा के लिए होता था. कर्नाटक में चल रहे 'हिजाब' विवाद के बीच बीते 16 फरवरी को वहां के एक कॉलेज में एक सिख छात्रा को अपनी पगड़ी उतारने को कहा गया. हालांकि, उसने ऐसा करने से इनकार दिया. बाद में उसे अपनी पगड़ी पहने रहने की अनुमति दे दी गई. आम तौर पर सिख लड़कियां पगड़ी नहीं पहनती, लेकिन जो 'अमृतधारी' होती हैं, वे लड़कों की तरह पगड़ियां पहनती हैं.
'अमृतधारी' होने का अर्थ यह है कि उसने दीक्षा लेते हुए सख्ती से खालसा के सिद्धांतों के पालन के लिए विशेष प्रतिज्ञा ली है, हालांकि सभी सिखों के लिए यह अनिवार्य नहीं है, ज्यादातर सिख केवल इसलिए सिख माने जाते हैं क्योंकि उन्होंने सिख परिवार में जन्म लिया है, जैसा कि दूसरे समुदायों में भी होता है. इसलिए किसी 'अमृतधारी' को अपनी पगड़ी उतारने के लिए कहना, बिल्कुल सही नहीं माना जाता है और यह संबंधित व्यक्ति के लिए बेहद आपत्तिजनक हो सकता है.
अनिवार्य प्रथा
10 फरवरी को कर्नाटक हाईकोर्ट ने सभी धर्मों के लिबास पर अस्थायी तौर पर पाबंदी लगा दी. छात्रों को कहा गया कि वे भगवा गमछे, स्कार्फ और हिजाब न पहनें. इस पर कुछ छात्राओं ने कहा, "यदि हमें हिजाब पहनने से रोका जा रहा है तो दूसरे धर्मों की छात्राओं, जिनमें सिख छात्राएं भी शामिल हैं, को भी उनके धार्मिक संकेतों को पहनने से रोका जाए." Mount Carmel PU College की एडमिनिस्ट्रेटर सिस्टर जेनेवीव ने बताया, "हाईकोर्ट के अंतरिम आदेश के बाद, हमने इनका पालन शुरू किया.
हमने हिजाब पहनने वाली छात्राओं से कहा कि कक्षा में प्रवेश के लिए वे इसे उतार दें. इस दौरान कुछ छात्राओं को एक सिख छात्रा द्वारा पगड़ी पहनने पर ऐतराज था." उन्होंने आगे बताया, "हमने इस सिख छात्रा से निवेदन किया कि वह अपनी पगड़ी निकाल दे ताकि छात्राओं के बीच समानता लाई जा सके. इसके बाद उसने हमें बताया कि उसने इसकी दीक्षा ली है और वह इसे नहीं उतार सकती, तो फिर हमने इसकी अनुमति दे दी."
मुस्लिम लड़कियों ने कोर्ट से कहा कि 'हिजाब' पहनना उनका मौलिक अधिकार है जो उन्हें भारतीय संविधान से प्राप्त होता है और यह इस्लाम की अनिवार्य प्रथा में से एक है. उनका तर्क था कि यह सिखों के पगड़ी, हिंदू महिलाओं की चूड़ियों और घूंघट और ईसाइयों के क्रॉस चिन्ह से अलग नहीं है. कर्नाटक के एडवोकेट-जनरल ने हाई कोर्ट को बताया कि जो लोग इस फैसले को चुनौती दे रहे हैं वे यह साबित करने में कामयाब नहीं हो पाए कि 'हिजाब' एक अनिवार्य धार्मिक प्रथा है. वास्तव में हिजाब एक अनिवार्य धार्मिक प्रथा नहीं है. इसलिए, हिजाब और पगड़ी के बीच समानता स्थापित करना, न्यायसंगत नहीं है. खास तौर पर सिखों के लिए, क्योंकि पगड़ी उनकी सबसे बड़ी पहचान होती है, लेकिन हिजाब विवाद में इसे अनावश्यक रूप से घसीटा गया.
खत्म होती परंपराएं
भारत में पगड़ी पहनना, एक तरह का स्टेटस सिंबल भी माना जाता है. आध्यात्मिक गुरू भी इसे पहनते थे, इनमें गुरू नानक समेत नौ दूसरे गुरू भी शामिल हैं. पगड़ी धारण करने की परंपरा करीब 4 हजार साल पुरानी है. दक्षिण और मध्य एशिया के साथ उत्तरी और पश्चिमी अफ्रीका के लोग भी इसे पहनते थे. पगड़ी के पहनने के अलग-अलग तरीके और कारण होते हैं. पगड़ी कोई भी पहन सकता है, हालांकि सिख ही वे लोग हैं जिन्होंने इसे अपनी वास्तविक पहचान बनाई.
हालांकि, पगड़ी के भीतर अपने बिना कटे बालों को छोड़कर, कई सिख पूरे '5K' की मर्यादा का पालन करना भी भूल गए हैं. इनमें कृपाण, कच्छा, कड़ा और कंघा अप्रचलित हो रहा है. सिख को केवल उसकी पगड़ी से ही पहचाना जा रहा है. ऐसा भी नहीं है कि सभी सिख पगड़ी पहनते हों. यह चिंता का विषय है कि कई युवा सिखों ने पगड़ी की अनिवार्यता पर सवाल खड़े करने शुरू कर दिए हैं. यहां तक कि इसे लेकर परिवार के भीतर भी मतभेद रहता है.
अपने तरह की विशिष्ट पहचान के अपने नुकसान भी होते हैं. जिन लोगों की एक विशिष्ट पहचान होती है, वे स्पष्ट रूप से नजर आ जाते हैं और अक्सर उन्हें इसी पहचान से जाना जाता है. एक अल्पसंख्यक होने के नाते, कई बार वे नस्लीय टिप्पणियों का शिकार भी बनते हैं. यह एक ऐसे धर्म के लोगों के लिए एक कड़वे सच की तरह है, जिसका आधार गुरु नानक देव जी के उपदेश हैं, जिन्होंने समावेशी शिक्षा दी थी. उन्होंने जाति और धर्म के आधार पर लोगों के विभाजन को खारिज किया और वे जहां भी गए वहां के लोगों से घुलमिल गए. गुरू नानक ने हिंदू और मुस्लिमों के बीच की दीवार को भी तोड़ने का प्रयास किया, लेकिन इनके मानने वालों ने खुद ही अपने चारों ओर ऐसी दीवारें खड़ी कर लीं. गुरु नानकजी का कहना है, "सत्य जिनका व्रत है, संतोष जिनका तीर्थ है, आध्यात्मिक ज्ञान जिनका स्नान है, दया जिनका भगवान है और क्षमा जिनकी प्रार्थना है, वे लोग सबसे उत्तम लोग होते हैं."
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