सम्पादकीय

Hijab Controversy : हिजाब विवाद में कर्नाटक हाईकोर्ट ने स्‍वतंत्रता की जगह प्रतिबंधों को मान्‍य ठहराया

Gulabi Jagat
18 March 2022 5:49 AM GMT
Hijab Controversy : हिजाब विवाद में कर्नाटक हाईकोर्ट ने स्‍वतंत्रता की जगह प्रतिबंधों को मान्‍य ठहराया
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इनमें से किसी पर भी हेडस्कार्फ या हिजाब पर प्रतिबंध लगाने की कोई आवश्यकता या मांग नहीं की गई है
भारत में 1,248 केंद्रीय विद्यालय हैं, जो केंद्र सरकार द्वारा संचालित हैं, उनका ड्रेस कोड (Dress Code) स्पष्ट रूप से मुस्लिम लड़कियों को हेडस्कार्फ़ पहनने की अनुमति देता है. इसी प्रकार के नियम, स्‍पष्‍ट तौर पर या दूसरे अन्‍य तरीकों से, अनगिनत अन्य शैक्षणिक संस्थानों के अंदर देश भर में हैं. इनमें से किसी पर भी हेडस्कार्फ या हिजाब (Hijab) पर प्रतिबंध लगाने की कोई आवश्यकता या मांग नहीं की गई है. फिर भी, कर्नाटक (Karnataka) में एक कॉलेज के प्रिंसिपल ने ऐसा करना जरूरी समझा. जैसे ही प्रतिबंध एक विवाद में बदल गया, गरमागरम बहस में कई मुद्दे सामने आएं. हालांकि, उनमें से सबसे महत्वपूर्ण यह था कि क्या प्रतिबंध अल्पसंख्यकों को उनकी जगह दिखाने के लिए एक खुला कदम है?
जब मामला कर्नाटक उच्च न्यायालय के सामने आया, तो फुल बेंच ने जो कहा वह "पूरे मामले का समग्र दृष्टिकोण" है. लेकिन दुर्भाग्य से यह कुछ और है. अदालत ने अपना ध्यान चार सवालों तक सीमित रखा: मुख्य रूप से (1) क्‍या हिजाब धार्मिक रिवाज का हिस्सा है और (2) क्‍या यह प्रतिबंध मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है. दूसरी बात, (3) क्‍या सरकार के पास प्रतिबंध लगाने का अधिकार है, और (4) क्‍या हिजाब पहनने वाली लड़कियों को कक्षाओं में जाने से रोकने वालों के खिलाफ कोई कार्रवाई की जानी चाहिए?
कर्नाटक फैसले में पहले 'अनिवार्यता' का परीक्षण किया गया
फैसला (1) पर टिका है, यानी 'आवश्यक धार्मिक अभ्यास परीक्षण' – यह मापदंड सुप्रीम कोर्ट ने तय किया है, जिसके जरिए उन मामलों को अलग करने के लिए तैयार किया गया जो शास्‍त्रों या अन्य अथॉरिटीज के हिसाब से धर्म के अभिन्न अंग हैं और सेक्‍युलर डोमेन में हैं या किसी तरीके से धर्म के साथ जुड़े हुए हैं. इसमें पहले उल्‍लेखित बात का सम्‍मान होना चाहिए, दूसरी बातों में नॉन रिलीजियस अथॉरिटीज दखल कर सकती हैं. कर्नाटक फैसले में पहले 'अनिवार्यता' का परीक्षण किया गया, फिर बताया गया कि इस्लाम में हिजाब एक अनिवार्य प्रथा नहीं है. इसके समर्थन में यह कहता है, "शास्त्र के भीतर पर्याप्त सामग्री है जो इस बात का समर्थन करता है कि हिजाब पहनना केवल अनुशंसात्मक है, जो धार्मिक रूप से अनिवार्य नहीं है, इसलिए उसे सार्वजनिक आंदोलन या अदालत में भावुक तर्कों से धर्म का विशिष्‍ट पहलू नहीं बनाया जा सकता है."
यह बात सच है कि कई बार धर्मग्रंथों की भी अलग-अलग व्‍याख्‍या होती है. हिजाब पहनना इस्‍लाम का अनिवार्य अंग नहीं है, भारतीय अदालतों और विदेशी कोर्ट के ऐसे फैसले हैं जो इस तथ्‍य को मानते हैं. इस धर्म के ऐसे बहुत से अनुयायी हैं जो इसे जरूरी मानते हैं और इस रिवाज के खिलाफ कई मजबूत तर्क भी हैं. लेकिन बहुत से ऐसे भी हैं, जो हिजाब को धर्म का हिस्‍सा मानते हैं, ठीक उन्‍हीं लोगों की तरह जो इसे धार्मिक प्रथा नहीं मानते हैं. वे कहते हैं कि यह उनके अधिकार और पहचान का मसला है. क्‍या ऐसा नहीं होना चाहिए कि ये उनकी इच्‍छा पर ही छोड़ दिया जाए – तब तक कि इससे समाज को कोई खतरा नहीं है? आखिरकार यह उनकी आस्‍था का विषय है और हम कौन होते हैं किसी की आस्‍था को जज करने वाले.
हम में से कुछ हमेशा "सार्वजनिक आंदोलनों के माध्यम से" और "अदालत में भावुक तर्कों के द्वारा" शोर मचाने के लिए उत्सुक रहते हैं कि ये "आस्‍था का मामला" है और अदालतों को इसका निर्णय नहीं करना चाहिए – बशर्ते कि इसका संबंध बहुसंख्यकों से जुड़ा हो. 1991 में भाजपा के लालकृष्ण आडवाणी और 1991 में आरएसएस के मनमोहन वैद्य से यही तर्क सुना गया था. तब कोई 'आवश्यकता' के परीक्षण की बात नहीं की गई थी. उन लोगों के लिए जो मानते हैं कि हिजाब एक मुस्लिम महिला होने का एक अभिन्न अंग है, अगर (ए), यानी, 'अनिवार्यता परीक्षण' अस्पष्ट परिणाम देता है. अब हम आगे बढ़ सकते हैं (बी), यानी, यह एक महिला के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है, अगर उसे हिजाब हटाने के लिए कहा जाता है – क्या यह इस्लाम का अभिन्न अंग है या नहीं?
हिजाब ने अब तक भारत में कहीं भी अराजकता नहीं फैलाई है
उस प्रश्न पर न्यायालय का उत्तर, जो कि फैसले का बहुत ही महत्‍वपूर्ण हिस्‍सा है, "उचित प्रतिबंधों" की ओर झुक रहा है. अमेरिका और उसकी पूर्ण स्वतंत्रता के विपरीत, भारतीय संविधान ने मौलिक अधिकारों और स्वतंत्रता पर "उचित प्रतिबंध" लगाए. यह एक और बहस है कि क्या इस तरह की सीमाओं पर पुनर्विचार करने का समय आ गया है, क्योंकि उन्हें इतिहास में एक कठिन चरण में पेश किया गया था जब राष्ट्र लोकतंत्र में छोटे कदम उठा रहा था और विभाजन की स्थितियों के लिए एक मजबूत राज्य की आवश्यकता थी. लेकिन, हां, "उचित प्रतिबंध" संवैधानिक हैं और अदालत ने उन्हें यहां लागू करने के लिए चुना है. तो, क्या इस मामले में मौलिक अधिकारों को कम करने का कोई औचित्य है? अदालत कई पेशकश करती है, जिन पर आप केवल तभी सहमत होंगे जब आप प्रतिबंध को सही ठहराने के लिए बेचैन हों.
पहला स्‍पष्‍टीकरण यह है कि मुस्लिम लड़कियों को हिजाब पहनने की अनुमति देना अनुशासनहीनता को जन्म देगा और अराजकता में बदल सकता है. हालांकि, हिजाब ने अब तक भारत में कहीं भी अराजकता नहीं फैलाई है. (हालांकि, लोगों को अनुशासित करने की खुजली इसे जन्म दे सकती है.) इस तथ्य के खिलाफ कि केंद्रीय विद्यालयों और अन्य जगहों पर हिजाब ठीक है, अदालत का कहना है कि संघीय ढांचे के तहत केंद्र सरकार यह तय करने के लिए स्वतंत्र है कि वह क्या उचित समझती है. दूसरे शब्दों में, हिजाब-अराजकता समीकरण अब तक कहीं भी नहीं है, लेकिन संघीय ढांचे में, अन्य दोनों को जोड़ने के लिए स्वतंत्र हैं.
तर्क और घटनाक्रम को पलटकर देखने पर जो कड़ी जुड़ती है और जो निकलकर आता है वो है, "कुछ कट्टरपंथी मुस्लिम संगठनों द्वारा छात्रों का ब्रेनवॉश किया जा रहा है." जाहिर है, वही "अनदेखे हाथ" दिसंबर के प्रतिबंध आदेश के बाद काम कर रहे हैं; "सामाजिक अशांति फैलाने और सौहार्द खराब करने के लिए." जवाब इस बात पर निर्भर करता है कि हम प्रश्न को कैसे फ्रेम करते हैं. हम सद्भाव बिगड़ने को एक कारण या एक प्रभाव के रूप में मान सकते हैं. हम दूसरों की धार्मिक भावनाओं का सम्मान कर सकते हैं, ताकि हम खतरनाक अहंकार, जहरीले षड्यंत्र जैसी कमजोरियों से पार सकें.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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