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फाइल फोटो
देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस में बदलाव के बावजूद हालात पहले जैसे ही दिखते हैं.
जनता से रिश्ता वेबडेस्क | देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस में बदलाव के बावजूद हालात पहले जैसे ही दिखते हैं. बीते महीनों में कांग्रेस ने लीक से हटते हुए कुछ अलग करने की कोशिश की है. इसने गांधी परिवार से बाहर के व्यक्ति को अध्यक्ष चुना है तथा स्थायी रूप से प्रतीक्षारत अध्यक्ष राहुल गांधी साढ़े तीन हजार किलोमीटर लंबी भारत जोड़ो यात्रा कर रहे हैं. वे यात्रा कार्यक्रम पर टिके हुए हैं तथा उन्हें पार्टी समर्थकों से अभूतपूर्व समर्थन मिला है. देश-विदेश के आदतन सामाजिक कार्यकर्ता भी फोटो खिचवाने के लिए उनकी पीठ पर चढ़े हुए हैं.
पार्टी छोड़ने के मामलों में कमी आयी है, लेकिन पार्टी को अब भी गांधी परिवार ही संचालित करता है, यह धारणा बनी हुई है. मल्लिकार्जुन खरगे पार्टी प्रमुख हैं, पर हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में सुखविंदर सिंह सुक्खू के चयन से स्पष्ट है कि परिवार ही अंतिम निर्णय लेता है. उनके शपथ ग्रहण कार्यक्रम में राहुल और प्रियंका की उपस्थिति से इस धारणा को बल मिला है. पार्टी के नीति के अनुसार एक व्यक्ति एक ही पद पर रह सकता है.
पार्टी अध्यक्ष के रूप में सोनिया गांधी की पहली पसंद अशोक गहलोत को जब एक पद चुनने को कहा गया, तो उन्होंने मुख्यमंत्री बने रहना चुना, लेकिन खरगे ने अभी तक राज्यसत्ता में नेता विपक्ष के पद से इस्तीफा नहीं दिया है. सोनिया गांधी के उत्तराधिकारी के रूप में वे अपने बारे में खुद फैसला नहीं कर सकते हैं.
यह मामला कांग्रेस के लिए मुश्किल हो सकता है. अगले साल के शुरू में कर्नाटक में चुनाव होगा. पार्टी में ऐसी चर्चा है कि गांधी परिवार अपने पसंदीदा दलित चेहरे को हटाने को लेकर असमंजस में है. वह ऐसे निष्ठावान व्यक्ति की तलाश में है, जो भाजपा द्वारा दिये गये लालच में न फंसे. ऐतिहासिक रूप से राज्यसभा में पार्टी ने ऊंची जाति के व्यक्ति को शायद ही नेता बनाया है.
जनता पार्टी के शासन काल में कमलापति त्रिपाठी आखिरी ऐसे व्यक्ति थे. उसके बाद यह पद दलित या अल्पसंख्यक नेताओं को मिला है. मनमोहन सिंह 1998 से 2004 तक इस पद पर रहे थे. साल 2014 में भाजपा से बड़ी हार के बाद लोकसभा में खरगे और राज्यसभा में गुलाम नबी आजाद ने विपक्ष का नेतृत्व किया. जब खरगे को राज्यसभा में नेता बनाया गया, तो वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं को बड़ा अचरज हुआ था.
पार्टी के उपनेता आनंद शर्मा को वह पद नहीं दिया गया. कांग्रेस के पास दिग्विजय सिंह, पी चिदंबरम, प्रमोद तिवारी और राजीव शुक्ला जैसे बड़े नेता हैं, पर वे या तो अभिजात्य हैं या ऊंची जातियों से आते हैं. परिवार खरगे की जगह मुकुल वासनिक या केसी वेणुगोपाल को नेता बना सकता है. स्पष्ट है कि भरोसेमंद सांसद के गुणों, जैसे प्रतिभा और योग्यता, का गांधी परिवार की कार्य-शैली में कोई स्थान नहीं है.
हिमाचल प्रदेश की हार ने डबल इंजन की सरकार के भाजपा के नारे की हवा निकाल दी है. बेहतर विकास के लिए केंद्र और राज्य में एक ही दल को वोट देने का आग्रह भाजपा करती रही है. पार्टी के भीतर इस चुनावी सूत्र के घटते असर पर चर्चा होने लगी है. सबसे बड़ा सवाल यह है कि कौन-सा इंजन पार्टी को जीत दिलाने में असफल रहा. प्रधानमंत्री मोदी वास्तव में इसके सबसे ताकतवर इंजन हैं. ऐसा लगता है कि उन्होंने प्रचार में अधिक समय दिया होता, तो हिमाचल में जीत मिल जाती.
इससे संकेत मिलता है कि जयराम ठाकुर मुख्यमंत्री के रूप में दमदार दूसरे इंजन नहीं थे. दूसरी ओर भाजपा ने गुजरात में लगातार सातवीं बार जीत हासिल की है. मुख्यमंत्री भूपेंद्र पटेल दूसरे इंजन नहीं थे. वहां मोदी ही वाहन को तेजी से चला रहे थे, लेकिन गुजरात मॉडल हर जगह लागू नहीं हो सकता है. मोदी की दूसरी बड़ी जीत के बावजूद उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और असम के अलावा डबल इंजन का आख्यान कई राज्यों में कारगर नहीं हुआ है.
केसरिया खेमा महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में सरकार नहीं बना सका तथा हरियाणा, कर्नाटक और गोवा में उसे बहुमत नहीं मिला. उसे दिल्ली में दो बार और बिहार में एक बार हार मिली. भाजपा पश्चिम बंगाल के मतदाताओं को डबल इंजन पर नहीं रिझा सकी. पंजाब में तो उसे बड़ा धक्का लगा. विधानसभा चुनाव में मतदाता अपने राज्य को आगे बढ़ाने वाला इंजन चुनते हैं.
उनके लिए मोदी राष्ट्रीय अभियान के पहले इंजन हंै, जो शक्तिशाली हैं. मतदाता स्थानीय नेताओं पर ऐसा भरोसा नहीं करते. साल 2024 के चुनाव से पहले एक दर्जन से अधिक राज्यों में चुनाव हैं. इसमें डबल इंजन आख्यान को आगे ले जाना भाजपा के लिए बड़ी चुनौती होगी. जब तक भाजपा मोदी की क्षमता जैसा दूसरा इंजन नहीं खोजती, जीत पाना बहुत कठिन होगा.
सत्ता के गलियारों की सुगबुगाहट से परिचित लोग अनुमान लगा रहे हैं कि मोदी कुछ मंत्रियों की छुट्टी कर सकते हैं, जो ठीक से काम नहीं कर पा रहे हैं या फिर मोदी पर बहुत अधिक निर्भर हैं. भाजपा समर्थकों में ऐसी धारणा है कि कुछ मंत्री सक्षम नहीं हैं और जमीनी सच्चाई से कटे हुए हैं. फेर-बदल के बाद कैबिनेट का स्वरूप कैसा होगा, उसके बारे में कह पाना मुश्किल है. क्या कैबिनेट में राज्यसभा के अत्यधिक प्रतिनिधित्व में कटौती होगी?
राज्यसभा में भाजपा के 91 सदस्यों में से 10 के पास वित्त, विदेश, पेट्रोलियम, वाणिज्य, दूरसंचार, स्वास्थ्य, शिक्षा और उद्योग जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालय हैं. तीन मंत्रियों की पृष्ठभूमि सेना की है और उनके पास व्यावहारिक राजनीति का मामूली अनुभव है. उनमें से कुछ को हटाकर लोकसभा सांसदों को मंत्री बनाया जा सकता है, जिन्हें जल्दी ही लोगों के बीच पार्टी के लिए वोट मांगने जाना है.
प्रधानमंत्री कार्यालय ने एक विशेष इकाई का गठन किया है, जिसका जिम्मा हर मंत्री के कामकाज की निगरानी करनी है. मंत्रियों का सोशल मीडिया पर लगे रहने और चाटुकारिता की प्रतिस्पर्धा करने से किसी को कैबिनेट में जगह नहीं मिलेगी. हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के लिए सुविधा से गढ़ी गयी प्रतिबद्धता वाले नेताओं को किनारे किया जा सकता है. साल 2024 के लिए 'एक बार और मोदी' का नारा है. मोदी ऐसे दूसरे प्रधानमंत्री और पहले गैर कांग्रेसी नेता होना चाहते हैं, जिसने स्वतंत्रता के बाद लगातार तीन चुनाव जीता हो. यह रिकॉर्ड बनाने के लिए उन्हें पहले अपनी टीम में बोझ बने लोगों से छुटकारा पाना होगा.
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Triveni
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