सम्पादकीय

हे हुए, तुम जल्दी-जल्दी आना!

Rani Sahu
13 Dec 2021 7:01 PM GMT
हे हुए, तुम जल्दी-जल्दी आना!
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हे जन नायक, आप जब से माननीय सदन के माननीय सदस्य ‘हुए’ है

हे जन नायक, आप जब से माननीय सदन के माननीय सदस्य 'हुए' हैं, आपके इला़के की जनता आपके दीदार के लिए उसी तरह तरस रही है, जैसे सहरा में प्यासे पानी के लिए भटकते हैं। आप 'हुए' ही हैं क्योंकि आदमी बनता तो मेहनत से है। यह मात्र 'होना' ही है, जो दुर्घटनावश या चमत्कार से घटित होता है। नहीं तो अब्दुल कलाम दोबारा राष्ट्रपति चुने गए होते। अब सदन की बात करें तो जनता-जनार्दन कभी रत्न या प्रेमजी को जिता कर सदन नहीं भेज सकती क्योंकि उसे तो आपके जैसे उस गड़रिये की रहनुमाई चाहिए, जो भेड़ों को रिकॉर्डड आवाज़ के ज़रिए हाँकने में माहिर हो और खुद राजधानी में आबंटित निवास, होटल या सरकारी डाक बंगले में शराब, शबाब और कबाव का आनंद लेने में माहिर हो। ज़ाहिर है कि माननीयों की चमड़ी धूप में तपने के लिए नहीं होती। यह काम तो उन नसीब वालों का है जो मज़दूरी के लिए दर-दर भटकते हैं और अगर नसीब हो जाए तो अपनी चमड़ी और बाल दोनों धूप में पकाते हैं। कई बार लगता है कि जीतने के लिए अब जुगाड़ की ज़रूरत भी नहीं। अगर अवाम किसी चुनाव का बहिष्कार भी कर दे, तो क्या होगा?

आप तो अपने एक वोट से भी सदन में जीत कर पहुँच सकते हैं। 'हुए' शब्द इसीलिए भी ज़रूरी है क्योंकि अगर जनता अपनी समझबूझ से ईवीएम से पीं की आवाज़ निकालने में माहिर होती तो कब से आपकी पीं बोल चुकी होती। 'विनाश काले विपरीत बुद्धि' का मुहावरा तो बना ही जनता के लिए है। अगर मतदान करते व़क्त परमात्मा उनकी बुद्धि का हरण न करें तो आपके जैसे घसियारे, धूर्त और मक्कार, जिनकी प्रतिष्ठा पहले से ही समाज में कूड़े के ढेर की तरह दुर्गन्ध मारती हो, सदन तक कैसे पहुँचेंगे? ईमानदार आदमी तो वैसे भी इलेक्शन लड़ने की सोच भी नहीं सकता। राजनीतिक दलों द्वारा निगोड़ों के सिर पर हाथ का रिवाज़ तो कब का खतम हो चुका है। हाँ, अगर कोई ऐसा संत हो जिस पर यौन शोषण के दो-चार आरोप हों, जिसमें बाँझों को पुत्र वरदान देने की सक्षमता हो या जिसका शहर के बीचोंबीच हज़ारों एकड़ में फैला आश्रम हो, वह भी आपकी तरह 'हुए' को प्राप्त हो सकता है। जब आप पहली बार मंत्री हुए थे; आपकी बिरादरी के लोगों ने आपकी ़काबिलियत को सलाम करते हुए कहा था, 'जिस आदमी से अपने ट्रक नहीं चल सके, अब वह परिवहन मंत्रालय दौड़ाएगा। ज़ाहिर है अगर आप मेहनती और ईमानदार होते तो कहीं फटीचर ज़िंदगी गुज़ारते। लेकिन टैक्स चोरी या घूस देने में माहिर होने पर कहीं अपने कारोबार में रम जाते। वैसे मोह तो वही आदमी पालता है जो मेहनत करता है।
फिर आप में तो कुछ बनने से पहले ही लोगों को बनाने की जन्मज़ात योग्यता होती है। जो कसर बा़की होती है, वह आप सदन पहुँच कर हासिल कर लेते हैं। आपकी दयानतदारी और अनुभव की गहराई आपके द्वारा हर रोज़ दिए जाने वाले बयानों और भाषणों से ज़ाहिर होती रहती है। आपकी ईमानदारी और चरित्र के बारे में मीडिया हर दिन कुछ न कुछ बताता रहता है। इसके बावजूद आप मुसलसल इलेक्शन जीतते आ रहे हैं। यह जीतना ही आपके 'होने' को सार्थक करता है। आज तक कोई नहीं समझ पाया कि हर दो साल में आप सदन में ध्वनि मत से अपने वेतन और भत्ते बढ़ा लेने के बावजूद जन सेवक कैसे कहलाते हैं? आप पर सरकारी कर्मचारियों की तरह नए और पुराने की परिभाषा भी लागू नहीं होती। आप जब भी 'हुए', पैंशन के ह़कदार हो जाते हैं। बाबू बनने पर सत्ता के अनुरूप न चलने की ना़काबिलियत के चलते कर्मचारी ज़बरदस्ती रिटायर कर दिए जाते हैं। आप तो बस इतना बता दीजिए कि कुछ न करने और खाकर डकार न मारने के बावजूद आप सदा जनता के परम सेवक कैसे बने रहते हैं।
पी. ए. सिद्धार्थ
लेखक ऋषिकेश से हैं
Rani Sahu

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