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- हे हुए, तुम...

हे जन नायक, आप जब से माननीय सदन के माननीय सदस्य 'हुए' हैं, आपके इला़के की जनता आपके दीदार के लिए उसी तरह तरस रही है, जैसे सहरा में प्यासे पानी के लिए भटकते हैं। आप 'हुए' ही हैं क्योंकि आदमी बनता तो मेहनत से है। यह मात्र 'होना' ही है, जो दुर्घटनावश या चमत्कार से घटित होता है। नहीं तो अब्दुल कलाम दोबारा राष्ट्रपति चुने गए होते। अब सदन की बात करें तो जनता-जनार्दन कभी रत्न या प्रेमजी को जिता कर सदन नहीं भेज सकती क्योंकि उसे तो आपके जैसे उस गड़रिये की रहनुमाई चाहिए, जो भेड़ों को रिकॉर्डड आवाज़ के ज़रिए हाँकने में माहिर हो और खुद राजधानी में आबंटित निवास, होटल या सरकारी डाक बंगले में शराब, शबाब और कबाव का आनंद लेने में माहिर हो। ज़ाहिर है कि माननीयों की चमड़ी धूप में तपने के लिए नहीं होती। यह काम तो उन नसीब वालों का है जो मज़दूरी के लिए दर-दर भटकते हैं और अगर नसीब हो जाए तो अपनी चमड़ी और बाल दोनों धूप में पकाते हैं। कई बार लगता है कि जीतने के लिए अब जुगाड़ की ज़रूरत भी नहीं। अगर अवाम किसी चुनाव का बहिष्कार भी कर दे, तो क्या होगा?
