सम्पादकीय

नायक, खलनायक और खिलवाड़

Rani Sahu
27 Oct 2021 4:36 PM GMT
नायक, खलनायक और खिलवाड़
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मुंबई ड्रग्स केस बॉलीवुड के फिल्म जैसा हो गया है

अरुण भगतमुंबई ड्रग्स केस बॉलीवुड के फिल्म जैसा हो गया है। क्रूज पर नशे की पार्टी का कथित आयोजन, एक नामचीन अभिनेता के बेटे की गिरफ्तारी, कुछ अन्य सितारों की संतानों तक जांच की आंच, छापेमारी करने वाले अधिकारी का हीरो बनना और अब उसे खलनायक साबित करने की कोशिश, यानी फंतासी के तमाम रूप इस पूरे घटनाक्रम में हैं। जाहिर है, इसने पूरे मामले को परिहास का भी विषय बना दिया है।

पिछले कुछ महीनों की घटनाएं देखें, तो महाराष्ट्र पुलिस की कई आंतरिक गड़बड़ियां उजागर होती हैं। ये समस्याएं अलहदा भी नहीं हैं। कुछ भ्रष्ट राजनेताओं और पुलिसकर्मियों का यह ऐसा नापाक गठजोड़ है, जो पूरे तंत्र की छीछालेदर करवा रहा है। यह गठबंधन वसूली करने के लिए चुपके से एक-दूसरे की मदद करता है। इसकी जड़ें काफी गहरी प्रतीत हो रही हैं। इसका नुकसान यह होता है कि बड़े से बड़ा अधिकारी भी, जो अपने महकमे का सबसे जिम्मेदारी भरा पद संभाल रहा होता है, इस दाग से मुक्त नहीं हो पाता। उसकी छवि भी धूमिल हो जाती है। उस पर भी तमाम तरह के आरोप उछाले जाते हैं। फिर चाहे वह न जाने कितने वर्षों से अपनी सेवा दे रहा हो!
यह प्रवृत्ति वाकई गौर करने लायक है कि जो अधिकारी अपने काम-काज से समाज में आदर्श का एक मानक गढ़ता है, उसी पर इस तरह के आरोप लगते हैं कि न सिर्फ उसकी, बल्कि पूरे विभाग की कार्यशैली शक के घेरे में आ जाती है। ऐसे मामलों में कितनी सच्चाई होती है, इसे गुजरात के इशरत जहां एनकाउंटर से भी समझा जा सकता है। इशरत जहां और उसके तीन साथियों को सन् 2004 में एक पुलिस मुठभेड़ में मार गिराया गया था। तब इस मुठभेड़ को लेकर खूब हाय-तौबा मचाई गई। पुलिस के उस दावे को खारिज करने की पूरी कोशिश हुई कि मारे गए चारों लोग लश्कर-ए-तैयबा के सदस्य थे और आतंकी वारदात की साजिश में शामिल थे। पर अब सीबीआई अदालत ने भी मान लिया है कि इशरत लश्कर-ए-तैयबा से जुड़ी हुई थी।
यहां इसका यह अर्थ नहीं निकालना चाहिए कि कानून लागू करने वाली इन एजेंसियों में सब कुछ साफ-सुथरा है। भ्रष्टाचार यहां भी गहरी पैठ बना चुका है। मगर इसकी मूल वजह सरकार और सत्ता द्वारा असांविधानिक तरीके से अपनी ताकत का इस्तेमाल करना है। अपने हित के लिए राजनेता परदे के पीछे से अधिकारियों पर दबाव बनाने की हरसंभव कोशिश करते हैं। कुछ इसमें सफल होते हैं, तो कुछ को मुंह की खानी पड़ती है। समीर वानखेड़े के मामले में केंद्र और राज्य, दोनों दो दिशा में काम करते दिख रहे हैं। ऐसा महसूस हो रहा है कि राज्य सरकार केंद्रीय एजेंसी के कामकाज में दखल देना चाहती है। समीर भारतीय राजस्व सेवा के अधिकारी हैं, इसलिए वह केंद्र सरकार के अधीन काम कर रहे हैं। मगर उन पर मुंबई के सत्तारूढ़ दल के मंत्री लगातार आरोप लगा रहे हैं। यह एक नई प्रवृत्ति है, जो अप्रत्याशित है। इससे काम-काज में रुकावट पैदा होती है। आलम यह है कि इस मामले में जिन लोगों को नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो (एनसीबी) ने पकड़ा है, उनकी धार्मिक पहचान बताई जा रही है और यह साबित करने की कोशिश हो रही है कि धर्म विशेष के प्रति अधिकारी ने दुराग्रह के तहत कार्रवाई की है। आरोपियों को तंत्र का 'शिकार' बताया जा रहा है।
जबकि, इन आरोपों में शायद ही दम है। समीर चूंकि राजस्व सेवा में हैं, इसलिए राज्य सरकार को उनके खिलाफ कार्रवाई करने या 'काउंटर केस' का अधिकार नहीं है। निस्संदेह, अदालत भी इस बिंदु पर गौर करेगी और राज्य को चेता सकती है कि यह उसका विषय नहीं है या वह इसके लिए जिम्मेदार नहीं है। समीर अगर आंतरिक जांच में दोषी भी पाए जाते हैं, तो उन पर विभाग स्वयं कार्रवाई करेगा। अनुशासन समिति उनका भाग्य तय करेगी। राज्य सरकार का इससे कोई लेना-देना नहीं होना चाहिए। फिर, उनके परिवार को भी कठघरे में खड़ा करने की कोशिश हो रही है, जिससे अंतत: विभाग के मनोबल पर नकारात्मक असर पड़ता है। जूनियर अधिकारी यही समझते हैं कि रसूखदारों से टकराने का 'खामियाजा' उनके वरिष्ठ को भुगतना पड़ रहा है।
रही बात रिश्वतखोरी के आरोपों की, तो इसकी सच्चाई अभी साबित होनी है। कहा जा रहा है कि फोन पर लेन-देन की सहमति बनी, आमने-सामने कोई मुलाकात नहीं हुई। यह काफी उलझन भरा आरोप लगता है। ऐसे आरोप आमतौर पर मूल मामले से ध्यान भटकाने के लिए भी उछाले जाते हैं। आखिर कौन अधिकारी एक हाई-प्रोफाइल केस में इस तरह से रिश्वत मांगने का जोखिम लेगा? गवाह के हलफनामे की हकीकत भी अभी सामने आनी बाकी है। अगर इस मामले में एनसीबी के हाथ खाली होते, या जान-बूझकर आर्यन खान को फंसाने की जरा सी भी कोशिश की गई होती, तो अदालत इतने दिनों तक आर्यन को सलाखों के भीतर नहीं रखती। उसे बार-बार मौका दिया गया और हर बार नए सिरे से पूरे मामले को परखा गया। अगर यह मान भी लें कि समीर वानखेड़े ने इस पूरे मामले में आर्यन को जबरन फंसाया है, तो क्या अदालत को भी 'मैनेज' किया जा रहा है? कतई नहीं। निश्चय ही, अदालत के सामने कोई खास खुबूत पेश किया गया होगा।
बहरहाल, इस पूरे मामले का अंतिम अंजाम जो भी हो, लेकिन पूरे महकमे के भ्रष्ट अथवा दागी होने जैसी आम धारणा को तोड़ने का वक्त अब आ गया है। समीर अगर दोषी पाए जाते हैं, तो निश्चय ही उन पर कानून सम्मत कार्रवाई होनी चाहिए, लेकिन साथ-साथ इस प्रवृत्ति पर भी चोट करने की जरूरत है कि आखिर क्यों एक नायक को खलनायक बनाने का हरसंभव प्रयास किया जाता है? और, इसके लिए जरूरी है, भ्रष्ट राजनेता और भ्रष्ट पुलिसकर्मियों का गठजोड़ तोड़ना। इस दिशा में यदि हम आगे बढ़ें, तो कहीं बेहतर सांविधानिक व्यवस्था कायम कर सकेंगे।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)


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