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अच्छा होगा कि हम इन नारों को हकीकत में बदलें।
हरियाणा के हिसार जिले के राखीगढ़ी गांव में खुदाई का कार्य चल रहा है। वहां से हड़प्पा कालीन सभ्यता के कई साक्ष्य मिले हैं। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की टीम का कहना है कि ये हमारी विरासत है। इससे भारतीय इतिहास व संस्कृति को नई दिशा मिलेगी। देश दुनिया से पुरातत्व शास्त्री भी हिसार पहुंच रहे हैं। राखीगढ़ी की खुदाई ने विरासत संरक्षण के मुद्दे को फलक पर ला दिया।
विरासत एक व्यापक अवधारणा है, जिसमें भौतिक संरचनाओं के साथ सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों व प्राकृतिक भू-दृश्यों का भी उतना ही योगदान है। बल्कि यूं कहें कि भौतिक स्थिति इन्हीं सांस्कृतिक गतिविधियों का सह उत्पाद है। किंतु हमारी सरकार व संस्थाएं यहां तक कि शिक्षण संस्थान भी केवल मंदिर, किलों व हवेलियों तक ही सीमित हैं। उनके लिए सांस्कृतिक विरासत और प्राकृतिक भू-दृश्य गैरजरूरी हैं।
यूनेस्को अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय महत्व की धरोहर को संरक्षित रखने के लिहाज से हर वर्ष 18 अप्रैल को विश्व धरोहर दिवस के रूप में मनाता है। हर वर्ष एक थीम चुनी जाती है। इस वर्ष की थीम विरासत व जलवायु को रखा गया है। विश्व विरासत संधि वैश्विक महत्व के प्राकृतिक, पर्यावरणीय स्थान को संरक्षित करने के उद्देश्य से प्रारंभ की गई। भारत ने इस पर 1976 में हस्ताक्षर किए।
हम विरासत के संरक्षण को लेकर कितने संवेदनशील और कर्मठ हैं, ये तो हमारे रवैये से ही पता चल जाता है। इसका बहुत कुछ विरासत संरक्षण से जुड़ी संस्थाओं की कार्यप्रणाली से भी स्प्ष्ट हो जाता है। राजस्थान सरकार ने बावड़ियों व ऐतिहासिक कुओं के संरक्षण के लिए पिछले दिनों 22 करोड़ का बजट अनुमोदित किया है। साथ ही कहा है कि इनको हेरिटेज लुक दिया जाएगा और पर्यटन से जोड़ा जाएगा।
दिक्कत यहीं से शुरू होती है। एक तो बावड़ी, कुएं व झीलों को बनाने में बंजारा समुदाय रहा है। आज भी वे लोग जोहड़ खोदते हैं। यदि उनको इस कार्य से जोड़ते तो बावड़ी भी बचती, बंजारा संस्कृति भी बचती और ये विरासत भी सहेजी जाती। यहां दूसरी दिक्कत ओर है। हेरिटेज लुक देने में बावड़ियों की संरचनाओं को बदला जाएगा। इससे पानी के रास्ते, उनके प्राकृतिक स्रोत व शिल्प विज्ञान छिन्न-भिन्न होंगे।
शोरगर समुदाय सदियों से शोरे से बारूद बनाने का काम करता रहा है। राजे-रजवाड़ों के समय सेना का असला गोला बारूद के जखीरे को संभालता था। आजादी के बाद वे लोग आतिशबाजी बनाने में जुटे हैं। उनकी जीवन व संस्कृति शोरे के इर्द-गिर्द बुनी है। हम शोरगर की जीवन संस्कृति देखना नहीं चाहते, जबकि विरासत का संरक्षण करना चाहते हैं।
हमें अपने राजे-रजवाड़ों से सीखना चाहिए। वे वर्तमान अफगानिस्तान-ईरान से शोरगर लोगों को अपने साथ लेकर आए थे। उनको रजवाड़ों में बसाया था, उनकी सभी आवश्यकताओं को पूरा किया। उनकी जीवन संस्कृति को उनके अनुसार चलने दिया। इस वजह से शोरगर संस्कृति फली-फूली।
विरासत के अंतर्गत विविध प्रकार के भू दृश्य शामिल होते हैं। पहाड़, झरने, झीलें, रेगिस्तान, पठार, भू स्मारक, दलदली व आद्र भूमि, नदी, जीव जंतु व पेड़ पौधे इत्यादि। किंतु ये हमारे लिए महज पर्यटन के उपकरण मात्र हैं। या भूख को शांत करने का जरिया। यदि पहाड़ हमारे लिए विरासत होते, तो हम पहाड़ों को समतल बनाकर उनसे हाई-वे नहीं निकालते।
भारत सरकार 2019 में एक नई राष्ट्रीय खनिज नीति लेकर आई, जिसने 2008 की नीति को बदल दिया। इसे देखकर लगता है कि सरकार केवल खनिज और खनन क्षेत्र से अर्थव्यवस्था को मजबूत करने में ही दिलचस्पी ले रही है। अगली पीढ़ी को भूगर्भीय इतिहास से परिचित कराने में उसकी कोई रुचि नहीं है।
मध्य प्रदेश सरकार राज्य के सभी आदिवासी ब्लॉक में रामायण पाठ आयोजित करवा रही है। रंगमंच के कलाकारों की बाकायदा टीमें बनी हुई हैं। कितना अच्छा होता यदि हम उस आदिवासी बहुल क्षेत्र में उन समुदायों के गीत संगीत को सहेजते। उनको बढ़ावा देते। उनके परंपरागत उत्पादों को लोक जीवन के साथ मुख्यधारा के जीवन में स्थान दिलाने की संभावना को तलाशते।
विरासत कोई अजूबे नहीं हैं, जिनको देखकर हम आश्चर्य प्रकट करें। न ही ये कोई तेल-साबुन बेचने के अड्डे हैं, बल्कि ये हमारे पुरखों के हजारों वर्षों के सीखे हुए ज्ञान की अभिव्यक्ति हैं, जो आने वाली पीढ़ी को अपनी ज्ञान की परंपरा से परिचित करवाती हैं। अपनी धरोहर को जानने-समझने का अवसर देती हैं। उन जीवन संस्कृतियों से उस भू-दृश्य के बारे में बताती हैं, जिसने न जाने इतिहास के कितने रंग रूप देखे हैं। अच्छा होगा कि हम इन नारों को हकीकत में बदलें।
सोर्स: अमर उजाला
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