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स्थानीय नीति, खतियान आधारित नियोजन नीति और पेसा कानून को लागू करने की मांग आदिवासियों में बढ़ते आक्रोश की बुनियाद है
Faisal Anurag
स्थानीय नीति, खतियान आधारित नियोजन नीति और पेसा कानून को लागू करने की मांग आदिवासियों में बढ़ते आक्रोश की बुनियाद है. संतालपरगना के अनेक गांवों में राज्य सरकार के पुतले ग्रामीणों ने जलाए हैं और जला रहे हैं. सरहुल शोभायात्रा के दौरान भी रांची और अन्य स्थानों पर भी अनेक ऐसे दृश्य देखने को मिले जो बता रहे हैं कि सवाल निरंतर गंभीर हो रहे हैं. झारखंड की राजनीति में जो तूफान है, उससे जाहिर है कि यह किसी भी सरकार के लिए चिंता का सबब होना जरूरी है. एक ओर जहां गठबंधन की सरकार के भीतर भी सब कुछ सहज नहीं दिख रहा है. वहीं दूसरी ओर आक्रोश के मुद्दों को लेकर गठबंधन के घटक दलों में भी अलग अलग राय है.
खतियान आधारित नियोजन नीति एक ऐसा राजनैतिक सवाल है जिसे केवल कानूनी दावंपेंच के संदर्भ में नहीं देखा जाना चाहिए. एक ओर आदिवासी-मूलवासी समाज अपनी अस्मिता और अधिकार के लिए खतियान आधारित नियोजन नीति को जरूरी मान रहा है तो दूसरी ओर झारखंड में ऐसे भी समूह मौजूद हैं जिनके लिए यह मांग उनके अस्तित्व के लिए खतरे की घंटी मानी जा रही है. इस सवाल पर झारखंड मुक्ति मोर्चा, भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के अंदर भी एक राय नहीं बन पा रही है. झामुमो का सबसे बड़ा आधार समूह इन्हीं मांगों के समर्थकों के बीच है तो भाजपा के वोट आधार के लिए यह मांग अस्वीकार्य है.
कांग्रेस और भाजपा के भीतर इस सवाल को एक लेकर सहमति बनाना आसान नहीं है. कांग्रेस के कुछ नेताओं का असंतोष सार्वजनिक हो चुका है. इसमें एक मंत्री बन्ना गुप्त की पूर्व मुख्यमंत्री रघुवर दास के घर जाना और प्रसन्न मुद्रा में एक दूसरे की दोस्ताना तस्वीर को साझा करने के राजनैतिक संदेश को दीवारों पर लिखे इबारत की तरह पर भी पढ़ा जा सकता जा सकता है. कांग्रेस ने अपने मंत्रियों और नेताओं को दिल्ली तलब किया है. कांग्रेस ने न्यूनतम साझा कार्यक्रम को बनाने की मांग पर जोर दिया है. कांग्रेस के प्रभारी ने इसे सरकार की स्थिरता के लिए जरूरी बता कर भी संदेश दिया है.
आदिवासी नेताओं का तर्क है कि स्थानीय नीति, खतियान आधारित नियोजन नीति और पेसा कानून को लागू करने की मांग झामुमो की बुनियादी प्राथमिकता और प्रतिबद्धता पिछले 22 सालों से रही है. अब जब झामुमो की सरकार राज्य में है तो तकनीकी कारणों का हवाला दे कर इन मांगों को टाला नहीं जाना चाहिए. यही तर्क मूलवासी नेता भी दे रहे हैं. हालांकि भाजपा सहित किसी दल ने अभी तक ऐसा नहीं कहा है कि वह जब सरकार में आएगी तो स्थानीय नीति, खतियान आधारित नियोजन नीति और पेसा कानून को लागू करने की मांग को लागू कर देगी.
भाजपा ने झारखंड में सबसे ज्यादा समय शासन किया है, लेकिन कभी भी उसने इस सवाल को संबोधित करने का प्रयास नहीं किया. रघुवर दास के समय जो नियोजन नीति बनायी गयी उसे झारखंड के मूलवासियों ओर आदिवासियों ने कभी स्वीकार नहीं किया. कांग्रेस तो देश के अन्य राज्यों की तरह झारखंड में भी दुविधाग्रस्त है.वर्तमान में यह हकीकत है कि झामुमो कांग्रेस के समर्थन पर ही टिकी हुई है, लेकिन पिछले चुनाव में एक गठबंधन के तौर पर इन दलों ने चुनाव जीता.
इन दोनों दलों के चुनावी घोषणा पत्र में भी अनके ऐसे संदर्भ हैं जो एक दूसरे के विपरीत नजरिए को प्रकट करते हैं. झारखंड में कांग्रेस तय ही नहीं कर पायी है कि वह आखिर किस तबके के हित का प्रतिनिधित्व करती है. कांग्रेस के आदिवासी समर्थक भी इस दुविधा से खिन्न हैं. गीताश्री उरांव का इस्तीफा कांग्रेस की दुविधा को ही स्पष्ट करता है. गीताश्री उरांव अकेली नहीं हैं. कांग्रेस के आदिवासी नेता भी तय नहीं कर पा रहे हैं कि इस माहौल में वे कोन सी लाइन लें.
झामुमो के अंदर भी जिस तरह के बगावती स्वर सुनायी पड़ रहे हैं,उन्हें अनसुना नहीं किया जा सकता. ऐसे हालात में चौराहे पर खड़ा होने के बजाय झामुमो के नेतृत्व को फ्रंटफुट से निदान निकालने की जरूर है. सोरेन परिवार के भीतर का असंतोष सड़कों पर आ गया है,पार्टी के अंदर विरोध के स्वर तेज हैं और गठबंधन में भी संशय बढ़ रहा है. इस हालात में ज्यादा विलंब संकट को और गहरा करेगा. खतरे की घंटी को सुनने का यही वक्त है.
TagsHemant Soren

Rani Sahu
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