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- मदद वह जो मजबूत बनाए
श्रुति शर्मा; एक अच्छा शिक्षक उसे माना जाता है जो बच्चों को हर सवाल और समस्या का हल बता दे। कुछ शिक्षक बच्चों पर दया करते हैं कि बच्चों को ज्यादा परेशान न होने दिया जाए… इसे अगर सवाल का जवाब बता दिया जाएगा तो इससे उसे आसानी हो जाएगी। कई बार हम बच्चों को खुश करने के लिए भी सवाल का जवाब बता देते हैं। ऐसा घरों में आमतौर पर होता है।
इस मामले को एक अन्य मिसाल के जरिए बेहतर तरीके से समझा जा सकता है। एक बार एक व्यक्ति ने देखा कि पेड़ पर लटके किट के प्यूपा के खोल को फाड़ कर उसमें से तितली बाहर निकलने का भरसक प्रयास कर रही थी।
खोल के अंदर का जीव तितली बन कर बाहरी दुनिया को देखने के लिए जद्दोजहद कर रही थी कि इस बीच उस व्यक्ति को तितली पर दया आ गई और उसने बड़े प्यार और सावधानी के साथ तितली को बाहर निकाल दिया। लेकिन इससे असल में क्या हुआ? तितली का स्वाभाविक विकास बाधित हुआ, उसकी क्षमता का विकास नहीं हो सका।
अगर हम शिक्षक प्रशिक्षणों पर नजर दौड़ाएं तो वहां भी इसी तरह की बातें देखने को मिलती हैं। आमतौर पर हमारे शिक्षक प्रशिक्षण शिक्षकों को स्वतंत्र रूप से चिंतन करने के अवसर ही नहीं देते। वे केवल सूचनाओं को स्थानांतरित ही करने का काम करते हैं। बल्कि शिक्षक प्रशिक्षण की सफलता इसी को मान लिया जाता है कि शिक्षकों को माड्यूल में लिखी गई जानकारियों को परोस दिया गया और अगर इतना हो गया तो मान लिया जाता है कि फतह हो गई।
समझना मुश्किल है कि हम जिस आजाद भारत में रहते हैं और जिन संवैधानिक मूल्यों को विकसित करने की बात करते हैं, वहीं हम सोचने के स्तर पर विचार नहीं करते कि यह विकसित कैसे होता है। चाहे बच्चे हों या फिर उन्हें शिक्षित करने वाले शिक्षक, उन्हें खुद से सोचने के अवसर न के बराबर देते हैं। स्कूलों में जाकर देखा जा सकता है वहां सब कुछ है, मसलन, शिक्षक से लेकर बेहतर भवन, कक्षा, बैठने के डेस्क, बोर्ड, पानी वगैरह। मगर वहां का माहौल भावनात्मक बुनियाद पर टिका होता है।
एक तरफ लड़कियों पर विशेष दया दिखाई जाती है। उन्हें उनके मुश्किल काम करने में मदद की जाती है या वह करके दे दिया जाता है। किसी समस्या का हल ऐसे बताया जाता है, जो आसान हो। आखिर वे लड़कियां हैं। यही पहलू लड़कियों को कमजोर बनाता है और पितृसत्तात्मक संरचना के मूल्यों की ओर ले जाता है। पितृसत्ता के संजाल इतने बारीक हैं कि कई बार किसी महिला या लड़की का भला करते हुए हमें पता भी नहीं चलता है कि हमने उस संजाल को कितना और घना कर दिया।
बहरहाल, समस्या यह है कि बच्चों को हम प्रारंभ से ही सोचने और दिमाग लगाने की ओर प्रेरित नहीं करते। स्कूलों में अगर देखें तो आजादी के सत्तर वर्ष बीत जाने के बाद भी ज्ञान को शिक्षक के द्वारा दिए गए एक उपहार के रूप में देखा जाता है। ज्ञान को उपहार के रूप में देने वाला बेशक ज्ञानी होता है और लेने वाला 'अज्ञानी'। एक तरफ से यही व्यवस्था बच्चों को दब्बू और शोषित बनाती है।
एक प्रसिद्ध चीनी कहावत है- 'अगर कोई भूखा है तो उसे मछली मारकर देने के बजाय मछली मारने के तरीके सिखाए जाएं।' अगर मछली मारकर दी जाएगी तो कभी भी वह आत्मनिर्भर नहीं बन पाएगा। यों सोचने और करने को लेकर हमारी शिक्षा व्यवस्था में बहुत ही कम जगह बनी हुई है। इसे और कैसे विस्तार दिया जा सकता है, इस पर जल्दी ही सोचने की आवश्यकता है।
एक तरफ हम कहते हैं कि संविधान में उल्लिखित मूल्य बच्चों में विकसित हो, यह शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य है। दूसरी ओर एक ऐसी प्रक्रिया अपनाई जा रही है शिक्षा में जो इन मूल्यों के विकास में रोड़ा बनती है। इस बारे में गिजुभाई का विचार है- 'पूछ कर काम कराने से बालक में पूछ कर ही काम करने की वृत्ति पैदा होती है। इस कारण बालक अपनी स्वतंत्र-वृत्ति को खो बैठता है।
स्वतंत्र-वृत्ति से रहित बालक गुलाम होता है ओर गुलाम का अपना दिमाग नहीं होता। गुलाम अपनी बुद्धि का इस्तेमाल करने से इनकार करता है, क्योंकि वह दिमाग को काम में लाने से डरता है। दिमाग को काम में न लाने से फिर काम में लाने का उसमें अविश्वास भर जाता है और अविश्वास के कारण पराधीनता आती है।'