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मदद और मंशा

Triveni
18 May 2021 2:15 AM GMT
मदद और मंशा
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दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा है कि राजनेताओं को जरूरी दवाओं की जमाखोरी राजनीतिक उद्देश्य से नहीं करनी चाहिए। अदालत ने कहा कि अगर वे जनता की मदद करना चाहते हैं,

दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा है कि राजनेताओं को जरूरी दवाओं की जमाखोरी राजनीतिक उद्देश्य से नहीं करनी चाहिए। अदालत ने कहा कि अगर वे जनता की मदद करना चाहते हैं, तो दवाओं को केंद्रीय स्वास्थ्य सेवा निदेशालय को सौंप सकते हैं, ताकि सरकारी अस्पतालों में उनका इस्तेमाल हो सके। पूर्वी दिल्ली से सांसद और पूर्व क्रिकेट खिलाड़ी गौतम गंभीर ने यह घोषणा की थी कि एंटीवायरल दवा फेविपिराविर या फैबिफ्लू उनके कार्यालय में उपलब्ध है और लोग वहां से मेडिकल परची दिखाकर इसे ले सकते हैं। दिल्ली पुलिस ने अदालत को बताया कि वह दवा जब्त कर ली गई है और उसे सीजीएचएस को सौंप दिया जाएगा। ऐसे और भी उदाहरण हैं। गुजरात भाजपा अध्यक्ष ने यह घोषणा की थी कि रेमडेसिविर इंजेक्शन सूरत में पार्टी कार्यालय में मिल सकता है। उनके विरुद्ध भी मामला गुजरात हाईकोर्ट में उठा है। महाराष्ट्र में भी कई नेताओं पर आरोप लगे कि उन्होंने रेमडेसिविर अपने रसूख से हासिल किए और बांटे। दरअसल, रेमडेसिविर इंजेक्शन की कोरोना संक्रमण में बहुत मांग है और देश भर से इसे पाने के लिए मारामारी की खबरें आ रही थीं। इसी वजह से केंद्र सरकार ने इसका वितरण अपने हाथों में ले लिया और यह तय किया कि इसे सिर्फ सरकारी तंत्र के जरिये ही बेचा जाएगा।

यह राजनेताओं की जिम्मेदारी होती है कि वे मुसीबत में लोगों की यथासंभव मदद करें और तमाम नेता कमोबेश ऐसा करते भी हैं। कुछ नेता तो सचमुच मन से और पूरी ताकत से मददगार बनने की कोशिश करते हैं, कुछ काम कम करते हैं, और प्रचार ज्यादा करते हैं। इस महामारी के दौर में भी तमाम राजनेता अपने-अपने तरीके से मदद कर रहे हैं या मददगार दिखने की कोशिश कर रहे हैं। चूंकि महामारी के जोर से व्यवस्था चरमराई हुई है, संसाधनों की कमी है, इसलिए समर्थ लोगों से मदद की दरकार भी ज्यादा है। कई मददगार लोगों की कहानियां इस वक्त लोगों की जुबान पर हैं और समाज में उनके प्रति कृतज्ञता का भाव भी है। पर यही बात उन लोगों के बारे में नहीं कही जा सकती, जो दुर्लभ दवाएं बांटकर मददगार होना या दिखना चाह रहे हैं। अगर उनमें से कुछ की नीयत भली भी रही हो, तब भी उनका तरीका गलत था। जैसे, गौतम गंभीर की आलोचना होती रही कि जब दिल्ली में कोरोना का कहर जोरों पर था, तब वह आईपीएल में कमेंट्री करने में व्यस्त थे। फिर अचानक उन्होंने फैबिफ्लू बांटने का फैसला किया। यह वायरस-रोधी दवा है, पर कोरोना में इसके इस्तेमाल का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है, न ही किसी मान्य चिकित्सा संगठन ने कोरोना में इसके इस्तेमाल को सही ठहराया है। ऐसी दवा को बांटने से मरीजों का कुछ भला नहीं होना था, और यह कानूनन भी सही नहीं था। इसके बजाय गौतम गंभीर किसी विशेषज्ञ डॉक्टर से सलाह लेकर उस पैसे को अन्य काम में लगाते, तो हर तरह से बेहतर होता। रेमडेसिविर के निजी वितरण पर सरकार जब रोक लगा चुकी थी, तब तो नेताओं को इसे बांटकर लोकप्रियता हासिल करने की कोशिश करनी ही नहीं चाहिए थी। ज्यादा अच्छा यह होता कि वे अपने रसूख का इस्तेमाल रेमडेसिविर की आपूर्ति बढ़ाने और उसका वितरण व्यवस्थित करवाने के लिए लगाते। मदद करने के और भी तरीके हैं। जो सबसे चमकीला हो, वह अक्सर सबसे अच्छा नहीं होता।


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