सम्पादकीय

वारिस और वसीयत

Rani Sahu
1 Jun 2023 6:19 PM GMT
वारिस और वसीयत
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वक्त बदलने के साथ-साथ बातों का अर्थ, जीने का अंदाज, प्रेमालाप का तरीका तक कुछ इस कद्र बदल गया है कि हम पहचान ही नहीं पाते कि क्या यह हमारा वही संसार है जिसमें हम तन कर हमेशा ‘सही को सही’ और ‘गलत को गलत’ कहते रहे। तब की बात और थी हुज़ूर। तब हम सच के हक में आवाज उठाते थे, तो दस लोग हमारी हां में हां मिलाने के लिए खड़े हो जाते थे। हां में हां मिलाने वालों की तो आज भी कमी नहीं, लेकिन जमाने ने सच के अर्थ और यथार्थ के सन्दर्भ ही बदल दिए, इसलिए हां में हां मिलाने वाले अब किसी सत्कार्य के लिए खड़े होने वाले नहीं, बड़े आदमी की चाटुकारिता में अर्थ तलाशने वाले हो गए। जी यह इस अर्थ का मतलब समझने वाला नहीं, मतलब साधने वाला है। अर्थ वहीं कालमता साहिब, कि जिसके लिए पहले कहा जाता था, ‘तेरी गठरी में लागा चोर, मुसाफिर जाग जरा।’ लेकिन आज जब मुसाफिरों को कहीं जाने की जरूरत नहीं तो भला उन्हें जागने की क्या जरूरत? मानते हैं कि चुनाव करीब हैं। अब सुदामा के सत्तुओं की पोटली का महत्व बढ़ सकता है। वोट मांगने के लिए तुम्हारी पोटली की थाह लेने तेरे द्वार तक दोबारा सत्ताधीश बनने की चाह रखने वाले आयेंगे। जो इनके नीचे से कुर्सी खिसका दें, ऐसे विपक्षी भी तेरा द्वार खटखटायेंगे।
भला तेरी सत्तुओं की पोटली में इतनी कुव्वत है कि वह आधी-आधी बंट कर दोनों का पेट भर सके। अजी क्या गये बीते जमाने की बातें करते हो? पेट तो देखो इन भद्रजनों के भरे-भराये हैं। वे तेरे सत्तू बांटने नहीं, तुझे अपने सपने के एक टुकड़े की खैरात देने आये हैं। पिछली बार पांच साल पहले सपनों की आमद का भ्रम जाल बिछा तेरे मतपत्रों का जिंदाबाद ले गये थे। फिर तुझे या तेरी पोटली या उसमें बंधे सत्तू भूल अपनी साइकिलों को आयातित गाडिय़ां बनाने में लगे रहे। अब चुनाव युग आने की घंटी टनटनायी तो फिर तेरी सुदामा का सुदामा रह जाने और उसकी पोटली के और भी फट जाने की याद आयी। अब उसकी उधडऩ सीने के लिए नारों के नये सूई धागे के साथ सपनों का नया टुकड़ा भी लाए हैं। देखो, हर हाथ को काम देने का वायदा था, उसकी सुध नहीं ली। उस वायदे के चेहरे पर ‘अपना हाथ जगन्नाथ’ और ‘स्वरोजगार’ की सफेदी की पुताई करते रहे। अब फिर तेरे वोट मांगने का समय आया तो तेरी पोटली मुंह बाये है। इस बीच तो इसका मुंह और भी खुल गया। बीच के चार दांत भी गायब हो गये। नेता जी क्या जवाब दें? गरीब की पोटली तो वैसे ही रहनी थी।
अब क्या इस फेर में हर दिन अपनी भारी-भरकम होती जा रही गठरी को भी गंवा दें? देखिये रोग की दहशत से मुसाफिर घरों में बंद हो गए, तो पर्यटन करवाने वालों के वाहन उखड़ कर ठेलागाड़ी बन गए, होटल से लेकर चाट-पकौड़ी बेचने वाले तक वीराने में चले गए। नहीं साहिब, चाहे सब कुछ बंटाधार हो जाए, लेकिन देश की लोक संस्कृति, लोक जीवन और लोकतंत्र पर आंच नहीं आने देनी है। पहले भी नहीं आने दी थी। देख लो शिक्षा क्रांति हो गई और युवा पीढ़ी भी एक दर्जा ऊपर चली गई। यह महिला सशक्तिकरण का जमाना है और तुम लोग उनकी आर्थिक दुर्दशा की बात करने लगे। अरे समझदारों ने कैसे-कैसे हल निकाल लिये। बड़े आदमियों ने सामाजिक अंतर रखना है। स्पर्श सुख को देश निकाला मिल गया, लेकिन महामारी है कि लौट-लौट कर आती है। जिंदगी मौत का भरोसा नहीं। समस्या है अपनी अगाध सम्पदा की वसीयत किसके नाम लिखें? यारों के पास इसका समाधान है। किराये की कोख लेकर बिना नजदीक गये अपने लिए वारिस पैदा करवा लीजिये। स्वचालित हो काम करने का जमाना आ गया। अपने वारिस और वसीयत की समस्या यूं हल कर लीजिये। फिर गरीबों की पोटलियों की सुध लेने का वक्त आएगा। उन्हें अपने नारों और वायदों से भर दीजिये। बस एक पंथ दो काज हो गये। देश की सेवा हो गई और आपकी अगली पीढ़ी भी संवर गई।
सुरेश सेठ

By: divyahimachal

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