सम्पादकीय

सियासी खामियों के ढेर

Rani Sahu
11 Aug 2023 6:26 PM GMT
सियासी खामियों के ढेर
x
By: divyahimachal
हिमाचल में राजनीति हमेशा अस्थिर होकर अपना भविष्य खोजती रही है और यही इतिहास प्रदेश के नेतृत्व में बेडिय़ां खोजता रहा है। हो सकता है छोटे प्रदेश की सियासी निशानियों में ऐसा स्वाभाविक दोष रहता है, फिर भी हिमाचल राजनीतिक अस्थिरता के दलदल में फंसा नहीं। कम से कम इसका आकार, जनता का आधार और सामाजिक निगरानी की परंपराओं ने प्रदेश को अस्थिर राजनीति का शिकार नहीं होने दिया। बेशक सियासी नेतृत्व ने एक हद तक जिम्मेदारी ओढ़ी या लगातार प्रभुत्व में बने रहने के संस्कारों ने नेताओं के खास सरोकार पैदा किए, फिर भी पूरे प्रदेश की परिपाटी में कमोबेश हर सरकार में कुछ नेता नगीने, तो कुछ बेगाने हो जाते हैं। हमेशा सत्तारूढ़ दल की निगाहों में कुछ इलाके खास, तो कुछ आम भी नहीं रह पाते। दरअसल हर सत्ता के शीर्ष से दुआएं मांगती जनता जब फरमाबरदारी में विभक्त हो जाती है, तो उसका सबसे बड़ा आधार सरकार के भीतर चहेते विधायकों का राजपाठ होने लगा है। तमाम सत्ता के पद और सत्ता के लाभ जिस तरह अपने खास पसंद के लोगों में बंटते हैं या सियासी दोस्तियों में सरकारें चलने लगी हैं, उसके कारण खामियों की विरासत का भी ढेर लग जाता है। यह सत्ता और विपक्ष के बीच भी आपसी प्रहार का अवसर बन जाता है, जहां विरोध के लिए ऐसी खामियों के ढेर कुरेदे जाते हैं। विडंबना यह कि हर सरकार की खामियों का ढेर कांगड़ा की नसीहतों में पलने लगा है और हर बार का विपक्ष इसे कुरेदता है। कुछ इसी तरह वर्तमान सत्ता की सीढिय़ों पर जहां कांग्रेस का सूरज चमक रहा है, वहीं कांगड़ा में सरकार की पैमाइश विपक्ष कर रहा है।
इस बहाने कांगड़ा को तपाया जाने लगा है, फिर भी प्रश्र यह कि क्या इस भूगोल को तपाना इतना आसान है या यह भी कि हमेशा सरकार बनाने वाला यह इलाका अपने ही नेताओं की दुर्गति का मजाक देख कर संयम की राजनीति परोसता रहेगा। भाजपा की ओर से कांगड़ा की कमान थामे पूर्व मंत्री एवं विधानसभा अध्यक्ष रहे विपिन सिंह परमार, पार्टी के महामंत्री त्रिलोक कपूर व कांगड़ा के विधायक पवन काजल ने एक अभियान के तहत क्षेत्र की अनदेखियों को लेकर सीधा हमला बोला है। ये नेता कांगड़ा-चंबा संसदीय क्षेत्र की संवेदना पर अगर सरकार से सवाल पूछ रहे हैं, तो यह आगामी चुनाव का मसाला व बहाना भी हो सकता है, लेकिन इस राजनीतिक गणना में कहीं सुरों का मसला तो कहीं लय का प्रश्र तो उठेगा ही। भाजपा के सवालों में मुख्यमंत्री का शीतकालीन प्रवास, कांगड़ा से कम मंत्रियों की पड़ताल और धर्मशाला सचिवालय की अहमियत में आया रिसाव भी है, लेकिन यह रूठी घंटियों का ऐसा व्यवहार है जो हर सरकार में यहां के राजनीतिक किरदार को नीचा दिखाता है। बेशक पिछली सरकार में मंत्रियों की संख्या मात्रात्मक दृष्टि से बेहतर थी, लेकिन दिग्गज नेताओं से सरदारी छीनी जरूर गई थी। रमेश धवाला, किशन कपूर व विपिन सिंह परमार का मंत्री पद पर न होता, कुछ तो सालता रहा होगा। इस बार भी सुधीर शर्मा का मंत्रिमंडल में न होना, इज्जतबख्श फैसला कतई नहीं माना जाएगा। हो सकता है शिकवे हों, लेकिन क्षेत्रीय मलाल में अगर नेताओं की हैसियत व हसरत डूब जाए तो राजनीतिक पाप को पुण्य तो नहीं बताया जा सकता। कहना न होगा कि राजनीति की रिवायतों में अगर प्रदेश अपनी सत्ता की महत्त्वाकांक्षा में कांगड़ा के नेताओं को माइनस करके खुश है, तो भाजपा नेताओं की हलचल केवल कांग्रेस से ही नहीं पूछ रही, बल्कि सवाल तो भाजपा की सीढिय़ों और पीढिय़ों से भी हैं। इस सियासी खेल में कांगड़ा के तमाम नेता न भाजपा से प्रसन्न हैं और न ही कांग्रेस से संतुष्ट, भले ही सरकारों के मातहत कुछ पद, कुछ तमगे और कुछ तिलक हर बार सरकारों के गठन में भीख पा जाते हैं, लेकिन जज्बात की मेहंदी पर आक्रोश का रंग भी अब रिवायती तौर पर हर बार मिशन रिपीट के चूल्हे पर होली को ही जला देता है।सियासी खामियों के ढेर
By: divyahimachal Aug 11th, 2023 12:05 am
हिमाचल में राजनीति हमेशा अस्थिर होकर अपना भविष्य खोजती रही है और यही इतिहास प्रदेश के नेतृत्व में बेडिय़ां खोजता रहा है। हो सकता है छोटे प्रदेश की सियासी निशानियों में ऐसा स्वाभाविक दोष रहता है, फिर भी हिमाचल राजनीतिक अस्थिरता के दलदल में फंसा नहीं। कम से कम इसका आकार, जनता का आधार और सामाजिक निगरानी की परंपराओं ने प्रदेश को अस्थिर राजनीति का शिकार नहीं होने दिया। बेशक सियासी नेतृत्व ने एक हद तक जिम्मेदारी ओढ़ी या लगातार प्रभुत्व में बने रहने के संस्कारों ने नेताओं के खास सरोकार पैदा किए, फिर भी पूरे प्रदेश की परिपाटी में कमोबेश हर सरकार में कुछ नेता नगीने, तो कुछ बेगाने हो जाते हैं। हमेशा सत्तारूढ़ दल की निगाहों में कुछ इलाके खास, तो कुछ आम भी नहीं रह पाते। दरअसल हर सत्ता के शीर्ष से दुआएं मांगती जनता जब फरमाबरदारी में विभक्त हो जाती है, तो उसका सबसे बड़ा आधार सरकार के भीतर चहेते विधायकों का राजपाठ होने लगा है। तमाम सत्ता के पद और सत्ता के लाभ जिस तरह अपने खास पसंद के लोगों में बंटते हैं या सियासी दोस्तियों में सरकारें चलने लगी हैं, उसके कारण खामियों की विरासत का भी ढेर लग जाता है। यह सत्ता और विपक्ष के बीच भी आपसी प्रहार का अवसर बन जाता है, जहां विरोध के लिए ऐसी खामियों के ढेर कुरेदे जाते हैं। विडंबना यह कि हर सरकार की खामियों का ढेर कांगड़ा की नसीहतों में पलने लगा है और हर बार का विपक्ष इसे कुरेदता है। कुछ इसी तरह वर्तमान सत्ता की सीढिय़ों पर जहां कांग्रेस का सूरज चमक रहा है, वहीं कांगड़ा में सरकार की पैमाइश विपक्ष कर रहा है।
इस बहाने कांगड़ा को तपाया जाने लगा है, फिर भी प्रश्र यह कि क्या इस भूगोल को तपाना इतना आसान है या यह भी कि हमेशा सरकार बनाने वाला यह इलाका अपने ही नेताओं की दुर्गति का मजाक देख कर संयम की राजनीति परोसता रहेगा। भाजपा की ओर से कांगड़ा की कमान थामे पूर्व मंत्री एवं विधानसभा अध्यक्ष रहे विपिन सिंह परमार, पार्टी के महामंत्री त्रिलोक कपूर व कांगड़ा के विधायक पवन काजल ने एक अभियान के तहत क्षेत्र की अनदेखियों को लेकर सीधा हमला बोला है। ये नेता कांगड़ा-चंबा संसदीय क्षेत्र की संवेदना पर अगर सरकार से सवाल पूछ रहे हैं, तो यह आगामी चुनाव का मसाला व बहाना भी हो सकता है, लेकिन इस राजनीतिक गणना में कहीं सुरों का मसला तो कहीं लय का प्रश्र तो उठेगा ही। भाजपा के सवालों में मुख्यमंत्री का शीतकालीन प्रवास, कांगड़ा से कम मंत्रियों की पड़ताल और धर्मशाला सचिवालय की अहमियत में आया रिसाव भी है, लेकिन यह रूठी घंटियों का ऐसा व्यवहार है जो हर सरकार में यहां के राजनीतिक किरदार को नीचा दिखाता है। बेशक पिछली सरकार में मंत्रियों की संख्या मात्रात्मक दृष्टि से बेहतर थी, लेकिन दिग्गज नेताओं से सरदारी छीनी जरूर गई थी। रमेश धवाला, किशन कपूर व विपिन सिंह परमार का मंत्री पद पर न होता, कुछ तो सालता रहा होगा। इस बार भी सुधीर शर्मा का मंत्रिमंडल में न होना, इज्जतबख्श फैसला कतई नहीं माना जाएगा। हो सकता है शिकवे हों, लेकिन क्षेत्रीय मलाल में अगर नेताओं की हैसियत व हसरत डूब जाए तो राजनीतिक पाप को पुण्य तो नहीं बताया जा सकता। कहना न होगा कि राजनीति की रिवायतों में अगर प्रदेश अपनी सत्ता की महत्त्वाकांक्षा में कांगड़ा के नेताओं को माइनस करके खुश है, तो भाजपा नेताओं की हलचल केवल कांग्रेस से ही नहीं पूछ रही, बल्कि सवाल तो भाजपा की सीढिय़ों और पीढिय़ों से भी हैं। इस सियासी खेल में कांगड़ा के तमाम नेता न भाजपा से प्रसन्न हैं और न ही कांग्रेस से संतुष्ट, भले ही सरकारों के मातहत कुछ पद, कुछ तमगे और कुछ तिलक हर बार सरकारों के गठन में भीख पा जाते हैं, लेकिन जज्बात की मेहंदी पर आक्रोश का रंग भी अब रिवायती तौर पर हर बार मिशन रिपीट के चूल्हे पर होली को ही जला देता है।
Next Story