सम्पादकीय

स्वस्थ संवाद जरूरी: लोकतांत्रिक व्यवहार नहीं सत्र टालना

Gulabi
17 Dec 2020 10:42 AM GMT
स्वस्थ संवाद जरूरी: लोकतांत्रिक व्यवहार नहीं सत्र टालना
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पक्ष-विपक्ष के गहन-सार्थक संवाद से देश के समक्ष मौजूदा चुनौतियों का सर्वमान्य हल तलाशना किसी भी लोकतंत्र की खूबसूरती

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। पक्ष-विपक्ष के गहन-सार्थक संवाद से किसी देश के समक्ष मौजूदा चुनौतियों का सर्वमान्य हल तलाशना किसी भी लोकतंत्र की खूबसूरती ही कही जा सकती है। कई बार दुविधा की स्थिति में अलग राय मिलकर नई राह निकाल देती है। ऐसे में संवाद व सवालों से कतराना स्वस्थ लोकतांत्रिक परंपरा कदापि नहीं कही जा सकती। बल्कि यही कहा जायेगा कि सरकार विचार-विमर्श से कतरा रही है। निस्संदेह देश में कोरोना संकट की चुनौती है, लेकिन हकीकत यह भी है कि इसकी मारक क्षमता में लगातार गिरावट आ रही है। कमोबेश इस समय स्थिति मानसून सत्र के दौरान के हालात बेहतर हैं।

ऐसे में संक्रमण के खतरे की दलील देते हुए संसद के शीतकालीन सत्र को आहूत न करना सरकार की नीयत के प्रति संशय पैदा करता है।  दरअसल, संसद सत्र के दौरान देश के जनमानस और मीडिया को विपक्ष के संवाद, नये तथ्यों व दृष्टिकोणों से रूबरू होने का एक मंच मिलता है। खासकर ऐसे समय में जब कृषि सुधारों के खिलाफ देशव्यापी आंदोलन जारी है और बड़ी संख्या में किसान दिल्ली की दहलीज पर धरना-प्रदर्शन कर रहे हैं। वे कृषि क्षेत्र में सुधार को लाये गये कानूनों को निरस्त करने की मांग कर रहे हैं। यही वजह है कि कांग्रेस समेत कई विपक्ष दल इस मुद्दे पर शीतकालीन सत्र आहूत करने की मांग करते भी रहे हैं। यही नहीं देश की सीमाओं पर व्याप्त चुनौती कम नहीं हुई। चीन से जारी सात माह पुराना गतिरोध अभी खत्म नहीं हुआ है।

रक्त जमाती सर्दी में देश के सुरक्षाबलों को गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। निस्संदेह, कोरोना संकट बड़ा है लेकिन देश के सामने अन्य चुनौतियां भी गंभीर हैं। देश की अर्थव्यवस्था बड़ी चुनौती से जूझ रही है। बेरोजगारी रिकॉर्ड तोड़ रही है। महंगाई का संकट भी सामने है। इन गंभीर चुनौतियों के समाधान के लिये सार्थक संवाद जरूरी था। ऐसे में शीतकालीन सत्र को टालने के औचित्य पर सवाल उठते हैं। एक अंतर्विरोध यह भी है कि बिहार के हालिया चुनाव और राज्यों के स्थानीय निकाय चुनावों के दौरान राजनीतिक सक्रियता से सत्तारूढ़ राजग को कोई परहेज नहीं रहा है।

निस्संदेह कोविड-19 का संकट बड़ा है, लेकिन इसके संक्रमण में आ रही गिरावट भी अच्छी बात है। साथ ही देश में कोविड वैक्सीन लगाये जाने की तैयारियों को भी अंतिम रूप दिया जा रहा है। ऐसा भी नहीं है कि सरकार को महामारी के दौरान संसदीय कार्यवाही चलाने का अनुभव बिलकुल नहीं है। देश में मानसून सत्र सितंबर में आयोजित किया गया था। उस समय देश में कोरोना संकट की स्थिति भयावह थी, यह अकेला दौर 26 लाख से अधिक संक्रमण के मामलों का गवाह था, जो कुल मौजूदा संक्रमण की संख्या का एक-चौथाई से अधिक है।

इसके अलावा इस दौरान करीब तैतीस हजार लोग काल का ग्रास बने। उस दौर में सत्र के दौरान कोविड प्रोटोकॉल का सख्ती से पालन किया गया था। संयोग से सत्र को सर्वाधिक कार्यशील सत्र के रूप में प्रतिष्ठित किया गया था। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि दिसंबर माह में पहले जैसे उपायों को लागू करके शीतकालीन सत्र को सुचारु रूप से क्यों नहीं चलाया जा सकता? वह भी ऐसे में जबकि संक्रमण की स्थिति पहले के मुकाबले ज्यादा नियंत्रित है।

निस्संदेह यह पक्ष-विपक्ष की हार-जीत का विषय नहीं है। लोकतंत्र में संवाद के लिये दरवाजे खुले रखना ही बेहतर होता है। हाल ही में नये संसद भवन की आधारशिला रखते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संवाद के महत्व को रेखांकित भी किया था। इसकी जीवंतता के लिये भारतीय लोकतंत्र की सराहना भी की थी।

भले ही चाहे सत्तापक्ष और विपक्ष में तल्ख बहस हो, उससे सर्वसम्मत समाधान के लिये सरकार की मंशा उजागर होती। यही किसी लोकतंत्र की खूबसूरती भी है। सत्र टालने से यही संदेश जायेगा कि सत्तापक्ष विपक्ष से संवाद करने से कतरा रहा है जो किसी भी लोकतंत्र की प्रगति के लिये अच्छा संकेत कदापि नहीं कहा जा सकता। महत्वपूर्ण यह नहीं है कि संसद नये भवन से संचालित होती है या पुराने भवन से, महत्वपूर्ण यह है कि लोकतंत्र के मंदिर में स्वस्थ संवाद के लिये कितनी जगह है।


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