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एनके सिंह : बीते दिनों इंटरनेट मीडिया पर एक फोटो वायरल हुई, जिसमें बिहार के एक गांव में एक झोपड़ी के बाहर स्वास्थ्य उप-केंद्र का कटा-फटा बोर्ड लगा है और वहां कुछ जानवर बंधे हैं। यह उप-केंद्र यहां पिछले 30 वर्षों से है। यहां की जनता ने आधा दर्जन से ज्यादा बार देश और राज्य की सरकारें चुनीं, कई बार अपना ग्राम प्रधान, ब्लॉक प्रमुख और जिला पंचायत चुना, लेकिन इस केंद्र की बदहाली, डॉक्टर या दवा का न उपलब्ध होन कभी भी मुद्दा नहीं बना। उत्तर भारत के किसी अन्य गांव की भी कमोबेश यही स्थिति है। देश की राजधानी से सटे गाजियाबाद के इंदिरापुरम इलाके में भी एक सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र गांव के एक किराये के मकान में है, जहां जाने का रास्ता दुर्गम है। सरकारी योजनाओं में कागजों पर जारी त्रि-स्तरीय चिकित्सा सेवा के तहत देशभर में डॉक्टरों की नियुक्ति तो है, पर वे छठे-छमाही दर्शन देते हैं, बाकि समय घर पर प्रैक्टिस करते हैं।