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भारतीय जनतंत्र एवं जाति के संबंध लगातार बदलते रहे हैं, किंतु इन बदलावों को समग्रता में समझने में हम कई बार सफल होते हैं
बद्री नारायण, निदेशक, जीबी पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान।
भारतीय जनतंत्र एवं जाति के संबंध लगातार बदलते रहे हैं, किंतु इन बदलावों को समग्रता में समझने में हम कई बार सफल होते हैं, तो कई बार असफल भी हो जाते हैं। जब भारतीय संविधान के माध्यम से भारतीय जनतंत्र का नक्शा गढ़ा गया था, तब यह परिकल्पना की गई थी कि जातिगत असमानता से जूझ रहे समाज की असमानता जनतांत्रिक अवसरों व लाभों के बंटवारे से कम होगी और धीरे-धीरे भारतीय समाज जाति मुक्त समरस समाज में बदल जाएगा। शायद इसीलिए भारत में जाति व्यवस्था की आलोचना के एक महत्वपूर्ण सिद्धांतकार बाबा साहेब आंबेडकर ने 'जाति के निर्मूलन' का सिद्धांत व आकांक्षा विकसित की थी।
हालांकि, भारतीय जनतंत्र के विकास के कुछ दिनों बाद ही यह लगने लगा था कि इसकी चुनावी व्यवस्था के अंतर्निहित अंतर्विरोधों के कारण 'पारंपरिक जातिबोध' नए-नए ढंग से अविष्कृत एवं अवतरित हो समाज में नए-नए रूपों में व नए-नए अवसरों पर प्रकट होने लगा है। भारतीय समाज में जनतंत्र और विकास के बढ़ते अवसरों के कारण 'गतिशीलता' की जो प्रक्रिया 'संस्कृतिकरण' के रूप में देखी गई थी, वह 'विसंस्कृतिकरण' के रूप में आने लगी। भारतीय जनतंत्र में जातियां मुखरित ही नहीं हुईं, बल्कि वे सरकारी खाद-पानी पा पलने-बढ़ने लगीं। भारतीय जन में एक ऐसा सत्ता प्रेरित आत्मबोध पैदा हुआ, जिसमें नागरिक बोध व जाति बोध साथ-साथ विकसित होने लगे।
ऐसे में, भारतीय जनतंत्र एवं जाति के संबंधों में एक नया मोड़ आया, जहां जनतांत्रिक लाभों में हिस्सेदारी संख्या बल के आधार पर मांगी जाने लगी। राममनोहर लोहिया और कांशीराम इस विचार के प्रखर सिद्धांतकार बन कर उभरे। पिछड़ा मांगे सौ में साठ का जो दर्शन राम मनोहर लोहिया ने प्रस्तुत किया, कांशीराम ने उसे जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी के नारे से आगे बढ़ाया। ये प्रयोग सन 1960 के आस-पास शुरू हुए और लगभग अभी तक चल रहे हैं। इन प्रयोगों ने यह दिखाया कि जाति भाव एक तरफ सीमांत के समूहों के लिए क्षणिक मुक्तिदायी तो प्रतीत होता है, किंतु अपने दीर्घकालीन प्रभाव में जातिभाव आधारित सशक्तीकरण अपने भीतर एक 'नव-आधिपत्य' का सृजन भी करता है। समानता की चाह एवं नव-आधिपत्य के कारण सतत उत्पादित हो रही असमानता एक-दूसरे के साथ अंतर्विरोधी संबंध रचते हुए भारतीय जनतंत्र में एक बड़ा विरोधाभास पैदा कर रहे हैं।
पिछडे़ एवं बहुजन आंदोलन से जो जनतांत्रिक राजसत्ता उभरी, उसमें भी हम सबने महसूस किया कि इन सामाजिक समूहों के कुछ खास वर्ग जो संख्या में बड़े थे, जिनके पास आकांक्षा की चाह उन्हीं समूहों की अन्य जातियों से पहले आ गई थी, उन्हीं को जनतांत्रिक अवसरों का ज्यादा लाभ मिल पाया। इन्हीं सामाजिक समूहों की ज्यादातर जातियां जिनका संख्या बल कम है, अपने ही समूह की कुछ प्रभावी जातियों से आकांक्षा और प्रतिनिधित्व की चाह को मुखरित करने में पीछे रह गईं, उन तक सामाजिक न्याय की परियोजना पहुंच ही नहीं पा रही है। फलत: सामाजिक न्याय के अवसरों के भी समान बंटवारा का प्रश्न उठने लगा।
बाबा साहेब आंबेडकर ने जिस जाति मुक्त समाज की कल्पना की थी, उत्तर भारत में दलित मुक्ति के सबसे बड़े प्रयोक्ता कांशीराम ने उससे हटकर 'जाति से जाति को काटो' के सिद्धांत पर काम करना शुरू किया। उनका मानना था कि अनुसूचित समूहों में जाति भाव जगाकर उनकी राजनीतिक गोलबंदी कर पारंपरिक आधिपत्य को चुनौती दी जा सकती है। उन्होंने इस प्रयोग को उत्तर भारत, विशेषकर उत्तर प्रदेश में बहुत सफलता से लागू किया। किंतु इस क्रम में उन्होंने देखा कि इसी प्रक्रिया में आधिपत्य के नए रूप उभर गए हैं, जिनसे उनकी टकराहट बढ़ती जा रही है। इन जनतांत्रिक टकराहटों को वे किसी निष्कर्ष पर पहुंचा पाते, तब तक उनका देहावसान हो गया।
कांशीराम बहुजन आंदोलन के सामने एक बड़ा नैतिक प्रश्न छोड़ गए कि भारतीय जनतंत्र एवं इन सभी मुक्तिकारी आंदोलनों में जिनकी संख्या भारी है, उन्हें तो मौका मिल रहा है, किंतु उनका क्या होगा, जिनकी संख्या छोटी है? हम सब यह जानते हैं कि पिछडे़ एवं अनुसूचित समूहों में मुश्किल से 10 के आस-पास ही ऐसे जाति-समूह हैं, जिन्हें अब तक भारतीय जनतंत्र व जनतांत्रिक राजनीति में हिस्सेदारी मिलती दिख रही है। शेष दोनों ही संवर्गों में लगभग 40 से ज्यादा जाति समूह आज भी भारतीय जनतंत्र में अदृश्य जनसंख्या की तरह वास कर रहा है। ऐसे में, 'जाति से जाति को काटो' प्रयोग की असफलता हम साफ देख रहे हैं।
जाति आधारित जनगणना की मांग करने वाले कुछ राजनेताओं, पत्रकारों और बौद्धिकों का तर्क है कि इससे राज्य संचालित परियोजनाओं के वितरण में संख्या बल के आधार पर बराबर की हिस्सेदारी देने में मदद मिलेगी, दूसरा, जाति आधारित जनगणना से अगर भारतीय समाज में जाति भाव प्रखर होता है, उथल-पुथल मचता है, तब भी अंतत: सामाजिक समरसता ही विकसित होगी। वैसे ये दोनों मकसद समाजवादी आंदोलन और बहुजन आंदोलनों में भी पूरे नहीं हुए हैं और हमारे जनतंत्र के समक्ष बडे़ नैतिक प्रश्न खड़े हो गए हैं।
हमें अपनी सफलताओं से कम और विफलताओं से ज्यादा सीखना चाहिए। हमें जो मिल रहा है, संभव है, वह हमारे ही समूह के सभी को न मिल रहा हो। ऐसी अनुभूति बाबा साहेब आंबेडकर व महात्मा गांधी, दोनों ने ही की थी, इसीलिए बाबा साहेब चाहते थे कि सामाजिक न्याय के अवसर जिन लोगों तक पहुंच रहे हैं, वे उसके लाभ को अपने ही समूह के अन्य भाइयों तक भी पहुंचाएं। शायद तभी महात्मा गांधी ने जनतंत्र के लाभों व अवसरों को समाज के सबसे अंतिम आदमी तक पहुंचाने की कामना की थी।
सच में सामाजिक न्याय के अवसरों का वंचितों तक पहुंचाने, मध्यम वर्ग के स्वार्थ में कमी आने और अंतत: जाति भाव के मिटने से ही भारत में जनतंत्र सबल होगा। इसके लिए जरूरी है कि नव-शक्तिवान समूहों के ओपिनियन मेकर्स के घटाटोप से बचते हुए सीमांत पर बसे समूहों की चिंता ज्यादा की जाए। साथ ही, जाति निर्मूलन की जो परियोजना कमजोर होती जा रही है, उसे मजबूत किया जाए। स्थिति यह है कि जो अब तक जाति निर्मूलन की बात करते थे, वे भी यदा-कदा जाति के पक्ष में नजर आने लगे हैं। ऐसे में, हमें बार-बार बाबा साहेब और उनकी वैचारिक स्मृति को जगाए रखने की जरूरत पड़ेगी। हो सकता है, उनकी याद ही जातिगत चेतना के उभार को रोककर भारतीय समाज को जाति निर्मूलन की दिशा में ले जाए।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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