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जनता से रिश्ता वेबडेस्क : इंसान अक्सर जोखिम भरा बर्ताव करता है, ख़तरों से खेलता है. जैसे कि नुक़सान पता होने के बावजूद स्मोकिंग करना या फिर पेट भरने के बावजूद ज़्यादा खाना. बिना एहतियात बरते सेक्स करना.डॉक्टर हमेशा कहते हैं कि इलाज से बचाव बेहतर है. यानी किसी मर्ज़ को होने से ही रोका जाए.लेकिन, जब बात हिंसक बर्ताव की आती है, तो, इससे निपटने का एक ही तरीक़ा लोग बताते हैं, क़ानून सख़्त बना दो. जैसे हाल ही में 12 साल से कम उम्र की बच्ची से बलात्कार पर मौत की सज़ा का प्रावधान. या फिर भीड़ की हिंसा से निपटने के लिए सख़्त क़ानून बनाने पर हमारे देश में विचार चल रहा है.
हिंसा को इंसान का जन्मजात बर्ताव मान लिया गया है, जिसे बदला नहीं जा सकता. सोच यही है कि जो लोग हिंसा करते हैं, उन्हें सही रास्ते पर नहीं लाया जा सकता. इसलिए सख़्त क़ानूनों की बात ही की जाती है.लेकिन, सख़्त क़ानूनों से बात बनती होती, तो कब की बन जाती. सऊदी अरब और ईरान में कई जुर्मों के लिए मौत की सज़ा है. मगर अपराध तब भी नहीं रुकते. भारत में भी कई अपराधों के लिए मौत की सज़ा मिलती है. मगर वो जुर्म अब भी होते हैं.स्कॉटलैंड पुलिस की विश्लेषक कैरिन मैकक्लस्की ने 2005 में एक रिपोर्ट तैयार की थी. इस रिपोर्ट में ये कहा गया था कि पुलिस के तौर-तरीक़ों से अपराध कम नहीं हो रहे थे.बढ़ते अपराधों की बड़ी वजह ग़रीबी, ग़ैर-बराबरी, मर्दाना दिखने की सोच और शराबनोशी थी. और केवल पुलिस का रवैया सख़्त करने से इन समस्याओं से नहीं निपटा जा सकता.
मैक्क्लस्की के साथ काम करने वाले विल लिंडेन कहते हैं कि पुलिस शराब की लत तो छुड़ा नहीं सकती.इसके बाद कैरिन, लिंडेन और उनकी टीम ने अपराध को कम करने के दूसरे तौर-तरीक़ों की तलाश शुरू की.विल लिंडेन बताते हैं कि इसी मुहिम के तहत स्कॉटलैंड में वायोलेंस रिडक्शन यूनिट (VRU) की स्थापना हुई. 2005 में VRU की स्थापना के बाद से स्कॉटलैंड में अपराध की दरों में लगातार कमी आनी लगे. आज की तारीख़ में वहां हत्या की घटनाओं में 60 फ़ीसद से ज़्यादा की कमी आई है.क्रिस्टीन गुडाल के अस्पताल में हिंसा से हुए ज़ख़्मों का इलाज कराने वालों की तादाद हज़ार से घटकर पांच सौ तक आ गई है. वीआरयू ने हिंसा को क़ानून-व्यवस्था के मसले जैसा समझने के बजाय, इसे सार्वजनिक स्वास्थ्य की चुनौती के तौर पर लिया.इसके पीछे जो लोग हैं, उनका मानना है कि हिंसक बर्ताव एक महामारी है, जो छुआछूत की बीमारियों की तरह एक इंसान से दूसरे इंसान में फैलती है.
जो लोग हिंसा के पीड़ित होते हैं, उनके हिंसा करने की आशंका बढ़ जाती है. मतलब साफ़ है कि अगर किसी इलाक़े में गोलीबारी और छुरेबाज़ी की घटनाएं ज़्यादा हिंसा को महामारी मानने की ज़रूरत क्यों हैहो रही हैं, तो भले ही उसी जैसा कोई और इलाक़ा हो, वहां पर हिंसा पीड़ित कम हैं, तो अपराध कम ही रहेंगे.विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक़, "हिंसा को ठीक उसी तरह रोका जा सकता है, जैसे गर्भधारण से जुड़ी चुनौतियां, काम के दौरान लगने वाली चोटों या संक्रामक बीमारियों को रोका जाता है."दिक़्क़त ये है कि दुनिया भर में हिंसा से सख़्ती से निपटने की सोच हावी है. इसलिए हिंसक घटनाओं पर हंगामा होते ही, नेता हों या जनता, सख़्त क़ानून की मांग करने लगते हैं. फिर स्कॉटलैंड में वीआरयू ने कैसे जनता और सरकार का समर्थन हासिल कर के ग्लासगो में अपराध कम किए?इसकी प्रेरणा उन्हें अमरीका के शहर शिकागो से मिली थी.
अमरीका के संक्रामक रोग विशेषज्ञ गैरी स्लटकिन ने 1980 और 1990 के दशक में काफ़ी वक़्त सोमालिया में गुज़ारा था. वो वहां पर टीबी की महामारी की रोकथाम के लिए गए डॉक्टरों की टीम का हिस्सा थे.गैरी और उनकी टीम ने सोमालिया के टीबी प्रभावित इलाक़ों से जुड़े तमाम आंकड़े इकट्ठा किए. जैसे किस इलाक़े में बीमारी ज़्यादा फैल रही है या लोगों के किस बर्ताव या आदत की वजह से ये बीमारी बढ़ रही है. फिर गैरी और उनकी टीम ने इसकी रोकथाम के लिए ज़रूरी क़दम उठाए.अक्सर कुछ बीमारियों के पीछे आदतें और कुछ की वजह हालात होते हैं. जैसे कि डायरिया. जो साफ़-सफ़ाई की कमी और संक्रामक पानी की सप्लाई से होता है. अगर हम पानी की सप्लाई को दुरुस्त कर लें. साफ़-सफ़ाई रखें, तो, डायरिया होने की आशंका कम हो जाती है. इस बड़े सुधार के दौरान डायरिया के शिकार लोगों को ओआरएस का घोल देकर उनकी जान बचाई जा सकती है.लोगों के बर्ताव में बदलाव लाकर हम कई चुनौतियों को जड़ से ख़त्म कर सकते हैं. जैसे सुरक्षित सेक्स के लिए लोगों को कंडोम के इस्तेमाल के लिए राज़ी कर के एड्स को रोका जा सकता है. साफ़-सफ़ाई की आदत से डायरिया जैसी बीमारी को रोका जा सकता है.ये क़दम तब और असरदार हो जाते हैं, जब एक पीड़ित, दूसरे की मदद करता है. वो अपने ख़ुद के तजुर्बे साझा कर के लोगों का भरोसा जीत सकते हैं. जैसे कोई सेक्स वर्कर दूसरे सेक्स वर्कर के पास जाकर कंडोम के फ़ायदे समझाए या टीबी-हैजा के मरीज़ रहे लोग इसके शिकार लोगों के बीच काम करें.
1990 के दशक के आख़िर में जब गैरी स्लटकिन अमरीका लौटे, तो बीमारियों और इलाज से दूर जाना चाहते थे. लेकिन, जब वो शिकागो पहुंचे, तो देखा कि वहां हिंसक घटनाएं बेक़ाबू हो रही थीं. हत्या की दर बहुत तेज़ी से बढ़ रही थी.गैरी ने हिंसा की बीमारी के इलाज की ठानी. उन्होंने बंदूक और हिंसक घटनाओं से जुड़े आंकड़े इकट्ठे किए. ठीक उसी तरह, जैसे उन्होंने बीमारी से जुड़े आंकड़े जमा किए थे.गैरी बताते हैं कि बीमारी की तरह हिंसक घटनाएं भी एक शख़्स से दूसरे शख़्स तक पहुंच रही थीं. ठीक उसी तरह जैसे सर्दी लगने पर दूसरों को हो जाती है. फ्लू होने पर आस-पास के लोगों को भी हो जाता है. इसी तरह हिंसा से और हिंसा फैल रही थी.गैरी स्लटकिन की ये सोच हिंसा को लेकर परंपरागत सोच से बिल्कुल अलग थी. वो हिंसा करने वालों को बुरा मानने के आम नज़रिए से अलग सोच रहे थे. हिंसा करने वालों को सज़ा देने के बजाय उन्हें सुधारने की सोच रहे थे, ताकि हिंसा की संक्रामक बीमारी को रोक सकें.
सोर्स-bbc
Admin2
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