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- नफरत और उन्माद : कट्टर...
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घृणा और व्यामोह वे साधन नहीं हैं, जिनके द्वारा शांतिपूर्ण और समृद्ध समाजों का पोषण या निर्माण होता है।
श्रीलंका के मानवविज्ञानी एस.जे. ताम्बिया ने 1980 के दशक में अपने देश के नस्लीय संघर्ष के बारे में लिखते हुए सिंहलियों को 'अल्पसंख्यक ग्रंथि से ग्रस्त बहुसंख्यक' के रूप में वर्णित किया। जबकि सिंहलियों की आबादी सत्तर फीसदी से अधिक है, वे देश की राजनीति को नियंत्रित करते हैं और नौकरशाही तथा सेना में उनका वर्चस्व है। उनका बौद्ध धर्म देश का आधिकारिक धर्म है, उनकी सिंहला भाषा को अन्य भाषाओं की तुलना में आधिकारिक रूप से उच्च दर्जा हासिल है और इस सबके बावजूद सिंहली पीड़ित होने की भावना से ग्रस्त थे।
उन्हें तमिल अल्पसंख्यकों से खतरा महसूस हो रहा था, उनकी शिकायत थी, कि तमिल कहीं बेहतर शिक्षित हैं, क्योंकि जब यह द्वीपीय देश ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के अधीन था तब उनके साथ पक्षपात किया गया, वे आक्रामक थे, क्योंकि उन्हें भारत (ऐसा देश जो बड़ा होने के साथ ही सैन्य रूप से श्रीलंका की तुलना में ताकतवर है) का समर्थन था, और यदि उनकी आक्रमता को नहीं रोका गया, तो तमिल सिंहलियों को उनकी अपनी भूमि से बाहर कर देंगे।
एक अखबार में उडुप्पी शहर में कुछ नागरिकों और पेजावर मठ के स्वामी की मुलाकात से संबंधित खबर पढ़ते हुए मुझे श्रीलंका के बारे में ताम्बिया की यह संकल्पना याद आ गई। उडुपी हाल के वर्षों में कट्टर हिंदुत्व के लिए कर्नाटक की प्रयोगशाला के रूप में उभरा है। यह वही शहर है, जहां एक कॉलेज ने एक भाजपा विधायक के उकसावे पर हिजाब पर प्रतिबंध लगा दिया। इससे पूरे राज्य में और देशभर में विवाद भड़क गया, जिसके कारण सांप्रदायिक शांति भंग हुई। पेजावर मठ उन आठ धार्मिक संस्थानों में से एक है, जो कि संयुक्त रूप से उडुपी के प्रसिद्ध कृष्णा मंदिर का संचालन करते हैं, जहां काफी सारे लोग आते हैं।
हिजाब पर प्रतिबंध लगवाने की अपनी सफलता के बाद- जिसकी वजह से अनेक छात्राओं को शिक्षा के उनके अधिकार से वंचित किया गया- उडुपी के हिंदुत्व के कट्टरपंथियों ने आसानी से प्रशासन को हिंदू मंदिरों और उत्सवों के मौके पर मुस्लिम दुकानदारों पर रोक लगाने के लिए राजी किया है, जबकि वे पिछले कई वर्षों से सभी धर्म के आस्तिक और यहां तक कि नास्तिक ग्राहकों की सेवा कर रहे थे। यह जानकर कि उन्हें राज्य सरकार, या कोर्ट से कोई राहत नहीं मिल सकती, नागरिकों के एक समूह ने, जिसमें मुस्लिम भी शामिल थे, पेजावर मठ के प्रमुख से आग्रह किया कि वह मुस्लिम व्यापारियों पर लगाए गए प्रतिबंध के खिलाफ हस्तक्षेप करें और सांप्रदायिक सौहार्द बढ़ाने में मदद करें।
स्वामी ने उनसे कहा कि हिंदू समाज ने अतीत में काफी कष्ट सहे हैं। अखबार ने उन्हें यह कहते हुए उद्धृत किया, जब कोई समाज या समूह निरंतर अन्याय का सामना करता है, तब उसकी हताशा और गुस्सा फूट पड़ता है। हिंदू समाज अन्याय से तंग आ चुका है। गौर कीजिए कि स्वामी ने इतिहास के आह्वान के साथ शुरुआत करते हुए दावा किया कि हिंदू समाज ने 'अतीत में बहुत कुछ सहा था'। मुझे लगता है कि यहां संदर्भ मुस्लिम राजाओं का है, जिन्होंने मध्यकाल में भारत के अधिकांश हिस्सों पर शासन किया।
ऐसे संदर्भ अब हिंदुत्व के शोर-शराबे में सर्वव्यापी हैं, जैसा कि उत्तर प्रदेश में हाल के महीनों में प्रधानमंत्री, केंद्रीय गृहमंत्री और राज्य के मुख्यमंत्री के भाषणों में देखा गया। 2022 में लखनऊ या उडुपी में रह रहे कामकाजी मुस्लिम वर्ग का दूर-दूर तक अतीत के इन मुस्लिम शासकों से संपर्क नहीं है, फिर भी उनके साझा धर्म को उन्हें धमकाने और उन्हें शर्मिंदा करने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। सदियों पहले मुगलों या फिर टीपू सुलतान ने जो कुछ किया (या न भी किया) उसके लिए आज भारतीय मुस्लिमों को दोषी महसूस करवाना नुकसानदेह प्रथा है।
हालांकि, ध्यान दें कि पेजावर स्वामी खुद हिंदुओं के 'लगातार अन्याय का सामना करने' की बात कहकर लगभग निर्बाध रूप से वर्तमान में चले गए। आखिर किससे और कैसे? जनसांख्यिकीय दृष्टि से, भारत में हिंदुओं का प्रभुत्व श्रीलंका में सिंहलियों की तुलना में कहीं अधिक है। राजनीतिक प्रक्रिया और कानून-व्यवस्था के प्रशासन पर उनका आधिपत्य लगभग पूरा हो चुका है। कर्नाटक में मुस्लिम, राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से पूरी तरह से शक्तिहीन हैं। विधायिका, नागरिक प्रशासन तथा पुलिस, न्यायपालिका और अन्य पेशों में उनका कम प्रतिनिधित्व है। उनकी आर्थिक स्थिति बदहाल है। यही नहीं, कर्नाटक और देश में उस पार्टी की सरकारें हैं, जो कि पूरी तरह से हिंदू वर्चस्व के प्रति समर्पित है।
फिर भी, पेजावर के स्वामी हिंदुओं को भेदभाव और अन्याय का पीड़ित बताते हैं। जब एक प्राचीन, अत्यंत सम्मानित और प्रभावशाली धार्मिक संस्था के प्रमुख इस तरह से बोलते हैं, तो हम जान सकते हैं कि हम वहां पहुंच चुके हैं, जहां बहुसंख्यक अल्पसंख्यक ग्रंथि से ग्रस्त हैं। वे कैसा महसूस करते हैं, हिंदुत्व के तहत हिंदुओं के अल्पसंख्यक ग्रंथि से ग्रस्त बहुसंख्यक बनने का खतरा है, जो व्यामोह और उत्पीड़न की भावना से ग्रस्त हैं।
हालांकि, वे जिस तरह से कार्य करते हैं उसमें हिंदुत्व के तहत हिंदुओं के बहुसंख्यक ग्रंथि के साथ बहुसंख्यक होने का खतरा है। अपने संख्याबल के दम पर वे अपने नियंत्रण वाले राज्य, प्रशासन, मीडिया यहां तक कि न्यायपालिका के एक वर्ग के जरिये निर्ममता से उन लोगों पर अपनी इच्छाएं थोपते हैं जो कि हिंदू नहीं हैं। हिंदुत्व समूहों द्वारा हिजाब, हलाल मटन और अजान पर प्रतिबंध की कोशिशें इस बर्बर बहुसंख्यकवाद के हाल के उदाहरण हैं। हालांकि भारतीय मुस्लिमों का अन्य तरह से भी दमन और उत्पीड़न हो रहा है।
भारतीय मुस्लिमों पर हिंदुत्व के हमले के दो, शायद आपस में एक-दूसरे से जुड़े हुए, आयाम हैं। पहला आयाम राजनीतिक है, हिंदुत्व की छतरी के अंदर दलितों और ओबीसी के एक महत्वपूर्ण वर्ग को जोड़ कर और उनमें मुस्लिमों पर सांस्कृतिक और सामाजिक श्रेष्ठता की भावना जगाकर, एक विजयी 'हिंदू' वोट बैंक बनाने का सफल शैतानी प्रयास। चूंकि अधिकांश राज्यों में मोटे तौर पर 80 फीसदी मतदाता हिंदू हैं, यदि भाजपा हिंदू पहले और मुस्लिमों के बहिष्कार के इस नारे के सहारे साठ फीसदी तक वोट हासिल कर लेती है, तो उनके लिए कुछ भी नहीं रह जाएगा। (यह उस जगह की स्थिति है जहां भाजपा के विरोध में सिर्फ एक बड़ा राजनीतिक दल है, जिन राज्यों में अनेक दलों की दावेदारी है, वहां भाजपा की जीत के लिए पचास फीसदी हिंदू वोट ही पर्याप्त होगा।)
अल्पसंख्यकों पर हिंदुत्व के हमले का दूसरा आयाम वैचारिक है, यह दृढ़ विश्वास है कि हिंदू ही इस भूमि के सच्चे, प्रामाणिक, विश्वसनीय नागरिक हैं और भारतीय मुस्लिम (और कुछ हद तक भारतीय ईसाई भी) को अविश्वसनीय और गैरभरोसेमंद माना जाता है, क्योंकि (सावरकर की कुख्यात मान्यता) उनकी पुण्यभूमि उनकी पितृभूमि से दूर है। भूमि के एकमात्र सच्चे मालिक होने की यह भावना हिंदुत्व कार्यकर्ताओं को भारतीय मुस्लिमों को उनकी पोशाक, उनके भोजन, उनके रीति-रिवाजों, उनकी आर्थिक आजीविका के साधन आदि के बारे में लगातार उकसाने और ताना मारने के लिए प्रेरित करती है।
सिंहलियों द्वारा श्रीलंका में तमिलों पर दोषारोपण, पाकिस्तान में सुन्नियों द्वारा हिंदुओं, ईसाइयों, अहमदियों और शियाओं पर दोषारोपण, म्यांमार में बौद्धों द्वारा रोहिंग्याओं पर दोषारोपण, ये सब इसी तरह की कोशिशें हैं। ये तीनों देश यदि धार्मिक बहुसंख्यकवाद की विचारधारा के बंधक नहीं बनते तो आज कहीं बेहतर स्थिति में होते। घृणा और व्यामोह वे साधन नहीं हैं, जिनके द्वारा शांतिपूर्ण और समृद्ध समाजों का पोषण या निर्माण होता है।
सोर्स: अमर उजाला
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