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मंत्रियों से संतरियों तक हिमाचल की बेडि़यां हर अनुभव की शाख पर लटकीं, किस्से बन जाती हैं
divyahimachal.
मंत्रियों से संतरियों तक हिमाचल की बेडि़यां हर अनुभव की शाख पर लटकीं, किस्से बन जाती हैं या सरकारों के हर दौर में सुशासन की नसीहत को यूं ही बेदखल होना पड़ता है। अब सवाल मेहनत का सामने आया तो मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर को भी मानना पड़ा कि कुछ मंत्री मेहनत करें, तो जीतने की जिद्द दिखाई देगी। सरकारें जब सत्ता के आईने में खुद को देखती हैं, तो अपनी ही बेडि़यां समझ आती हंै। जाहिर है प्रदर्शन कभी नकाब पहनकर सामने नहीं आता, बल्कि सत्ता का साम्राज्य अपनी चुगली खुद करता है। विडंबना यह है कि हमारे जनप्रतिनिधि केवल सत्ता की डोर में खुद को सक्षम पाते हैं और इसी विभ्रम में वोट की राजनीति करते हैं। सुशासन पर राजनीतिक प्राथमिकताएं भारी हो सकती हैं, लेकिन सुशासन तंत्र को राजनीतिक अंगुलियों पर नचाने से केवल कठपुतलियां ही दुहाई देंगी। ऐसे में बड़ा मंत्री वह नहीं जिसके इशारे पर कठपुतलियां नाचने लगें, बल्कि वह हो सकता है जो कठपुतलियों में मानवीय संवेदना भर दे।
मुख्यमंत्री अगर यह कह रहे हैं कि कुछ मंत्रियों को मेहनत करनी होगी, तो यह स्पष्ट है कि सरकार के रिपोर्ट कार्ड में छेद हैं। दूसरी ओर सुशासन की तहजीब में सरकार कार्रवाई करती हुई और प्रशासन प्रदर्शन करता हुआ नजर आना चाहिए। सुशासन अपने आप में शासन की सामान्य परिस्थिति है, जिसका हर कर्मचारी और अधिकारी तब तक आपूर्ति कर सकता है, जब तक इसके कंधों पर राजनीतिक प्राथमिकताओं की बंदूक सवार नहीं होती। आश्चर्य तब होता है जब सत्ता के प्रभाव में सरकारी कार्यसंस्कृति अपनी चाल भूल जाती है और मंत्री अपने पद की गरिमा को अपने ही विधानसभा क्षेत्र में जोत देता है। हर मंत्री अगर पारदर्शिता से यह खुलासा कर दे कि उसके विभाग ने उसके विधानसभा क्षेत्र के लिए क्या किया और शेष हिमाचल के लिए कितनी योजनाएं-परियोजनाएं बनाई तो मालूम हो जाएगा कि मेहनत की फसल कहां काटी जाएगी। हिमाचल का हर मंत्री अपने विधानसभा क्षेत्र के मुकाबले अन्य 67 को अछूत या लावारिस बना दे, तो प्रदेश के लिए 68 मंत्री होने चाहिएं। बेशक मंत्री मेहनत कर रहे हैं, लेकिन खेल मंत्री को अपने क्षेत्र में ही स्टेडियम बनाना है तो उद्योग मंत्री को अपने मतदाताओं के बीच नया उद्योग केंद्र बसाना है। ग्रामीण विकास की योजनाएं, पशुपालन की संभावना और मत्स्य पालन की दृष्टि में मंत्री के हक और मंत्री के वर्चस्व की तस्वीर अगर अपना विधानसभा क्षेत्र रहेगा, तो मेहनत का दृष्टिकोण असंतुलित माना जाएगा। कृषि और बागबानी की फाइलें देखें या बाजार में सीधी मूली के टेढ़े दाम अदा करें। हर दिन प्रदेश में लाखों की संख्या में ब्रेड और बेकरी उत्पाद आते हैं, तो बाहरी राज्यों से आ रहे दूध के थैले नचाते हैं, लेकिन हमारी विभागीय क्षमता खुश है। हमें सेब का रस भी अब कोई बाहरी कंपनी पिलाती है, तो मिनरल वाटर की बोतलें न जाने कहां का पानी ढो कर हमें शुद्ध बनाती हैं। आश्चर्य होता है कि हमारा सांस्कृतिक दर्शन दरअसल सत्ता का दर्शन हो जाता है। सत्ता की धूम में ऊना के समारोह से बड़ा हरोली उत्सव हो जाता है।
सिर्फ एक बार मसरूर मंदिर परिसर में धरोहर उत्सव मनाकर विभाग के पास योजनाएं खत्म हो जाएं या हिमालय उत्सव की शुरुआत में नोबल शांति पुरस्कार से अलंकृत दलाईलामा को सम्मानित किया जाता है, वह अंततः राजनीति के दरबार में क्यों हार जाता है। आखिर हर साल कितने ही जिला व राज्य के नए समारोह जुड़ जाते हैं, लेकिन अतीत से चल रहे पीछे छूट जाते हैं। अभी हाल ही में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघ चालक मोहन भागवत महामहिम दलाई लामा से मिले, तो राष्ट्र के विषय खुल गए, लेकिन क्या इस महान हस्ती को खुद से जोड़ कर हिमाचल ने अपना ब्रांड एंबेसेडर चुना। पूरे प्रदेश की छिंजें जिला व राज्यस्तरीय हो गईं, लेकिन किसी मंत्री ने कभी यह सोचा कि हिमाचल के पहलवानों को कैसे राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पटल तक ले जाया जाए। क्यों मेडिकल कालेज के स्तर पर पहुंचा हिमाचल चिकित्सा सेवाओं में आज भी पिछड़ा है। आखिर कब तक मंत्री अपने-अपने क्षेत्रों की ताजपोशी में पूरे प्रदेश को किनारे लगाएंगे। हर मंत्री अगर प्रदेश के लिए कम से कम बारह योजनाओं का भी शृंगार कर दे, तो सरकार की सफलता का यह पैमाना सार्थक होगा। इसी परिप्रेक्ष्य में उन संदर्भों को भी पढ़ना होगा जो नादौन के एसएचओ को इतना 'पावरफुल' बना देते हैं कि वह सरेआम रिश्वत की टोकरी के नीचे साक्ष्यों को ही कुचल देना चाहता है। आखिर यह एसएचओ किसी नीति, प्राथमिकता या पसंद के तहत ही स्थानांतरित होकर नादौन में आबाद हुआ होगा। क्या कोई जनप्रतिनिधि या बड़ा नेता ऐसे लोगों की एसएचओ पद की तैनाती पर अफसोस जाहिर करते हुए यह मेहनत करेगा कि आइंदा उसका कोई चहेता ऐसा गुल न खिला सके।
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