सम्पादकीय

हैरिस का 'उपदेश' और भारत की अहमियत; अमेरिकी उप-राष्ट्रपति कमला के बयान में क्या कुछ छिपा था?

Rani Sahu
28 Sep 2021 12:11 PM GMT
हैरिस का उपदेश और भारत की अहमियत; अमेरिकी उप-राष्ट्रपति कमला के बयान में क्या कुछ छिपा था?
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यह बताना आसान है कि भारत की हमेशा अहमियत रही है और 21वीं सदी में और ज्यादा है

शेखर गुप्ता। यह बताना आसान है कि भारत की हमेशा अहमियत रही है और 21वीं सदी में और ज्यादा है। ऐसे में यह सवाल उठाना अनुचित लग सकता है कि जब भारत के वैश्विक संबंध अब तक के लिहाज से सबसे मजबूत और निर्णायक हैं, तब उसकी अहमियत को अधिक या कम क्या बनाता है? हमने 'अब तक के लिहाज से' कहा, बेशक इसमें सोवियत संघ के साथ 1971 की शांति, मैत्री और सहयोग की संधि को अपवाद मान लें।

सोवियत संघ के विघटन के बाद भारत वैश्विक सत्ता के शून्य में नज़रों से दूर रहा। इसके बाद फिर से जुड़ने की कोशिश शुरू हुई। चार प्रधानमंत्रियों ने इसमें पहल की- पी.वी. नरसिम्हा राव, अटल बिहारी वाजपेयी, मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदी। मोदी के लिए यह एक मौका है। सवाल यह है कि क्या उनका भारत इसके लिए तैयार है? यह हमें भारत के प्रति आकर्षण के उन तीन कारणों पर ले आता है जिन्हें मोदी प्रायः तीन 'डी' (डेमोग्रेफी (जनसंख्या), डेमोक्रेसी (लोकतंत्र), डिमांड (मांग) बताते हैं।
आज इन तीनों 'डी' पर संकट दिख रहा है। जनसंख्या अब चुनौती बन गई है, क्योंकि बेरोजगारी बढ़ रही है। मांग को हमारी आर्थिक स्थिति के कारण जद्दोजहद करनी पड़ रही है। सरकार भी इससे इनकार नहीं कर सकती। और तीसरे 'डी' यानी लोकतंत्र ऐसा मोर्चा है जिस पर भारत को तीखी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। बैठक से पहले मोदी व अमेरिकी उप-राष्ट्रपति कमला हैरिस ने मीडिया के सामने जो बयान दिए उन पर गौर कीजिए। हैरिस के बयान में एक-दो बातें काबिले-गौर हैं।
उन्होंने कहा कि दुनियाभर में लोकतंत्र खतरे में है और 'यह जरूरी है कि हम अपने देश में लोकतांत्रिक सिद्धांतों और संस्थाओं की रक्षा करें...' अमेरिकी उप-राष्ट्रपति भारत के प्रधानमंत्री को उपदेश तो नहीं दे रही थीं? हैरिस ने संदेह की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी, 'व्यक्तिगत अनुभवों से मैं जानती हूं कि भारत के लोग लोकतंत्र में कितनी आस्था रखते हैं... इसलिए हम यह सोचना शुरू कर सकते हैं कि लोकतांत्रिक सिद्धांतों और संस्थाओं के बारे में हमारी कल्पनाएं क्या हैं, और तब हम उन्हें अंततः हासिल कर सकते हैं।'
ट्रम्प के दौर से यह दौर कितना अलग है, यह स्पष्ट हो गया है। मोदी के लिए पहला मौका था जब किसी विदेशी वार्ताकार ने सार्वजनिक तौर पर ऐसी बात कही। मोदी बिना खीज दिखाए आगे बढ़ गए, यह उनके कूटनीतिक कौशल को दर्शाता है। सवाल यह है कि क्या वे इस बात पर मंथन करेंगे कि किन गलत कदमों के कारण यह बात कही गई? ट्रम्प-पेंस से लेकर बाइडेन-हैरिस तक अमेरिका कई तरह से बदल गया है और नहीं भी बदला है। जो भी हुआ हो, बाइडेन सरकार चीन की चुनौती के बारे में खुलकर बोल रही है।
इसका प्रमाण यह है कि उसने 'ऑकस' जैसी संधि पर मुहर लगाने में देर नहीं की, जो साफ तौर पर चीन-केंद्रित सैन्य संधि है। लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं व अल्पसंख्यकों, खासकर मुसलमानों के प्रति व्यवहारों के मामलों में अपने विचार के कारण वह अलग है। इसे ऐसे देखें। सभी नेता अपनी राजनीतिक जरूरतों के हिसाब से काम करते हैं। ट्रम्प मुसलमानों की चिंता इसलिए नहीं कर सकते थे कि वे उन्हें वोट नहीं देते थे। बाइडेन-हैरिस उनकी फिक्र इसलिए करते हैं कि वे उनको वोट देते हैं।
जैसे बड़े देश मुख्यतः अपने हित के लिए काम करते हैं, राजनीतिक नेता भी वैसा ही करते हैं। अगर दोनों के हित समान हो गए तो यह उनके लिए बेहतर है। इसलिए यह सच से सामना करने की घड़ी है जब मोदी को अपनी घरेलू, चुनावी राजनीति पर विचार करना है। क्या वे भारत के व्यापक रणनीतिक हित के विपरीत हैं? अफगानिस्तान में उथल-पुथल और उसके बाद की घटनाएं दर्शाती हैं कि हम दुनिया के जिस हिस्से से जुड़े हैं वह इस्लामी आतंकवाद से दूर हो चुका है।
चीन ने इस्लामी आतंकवाद को दुनिया के लिए खतरा मानना छोड़ दिया है। अमेरिकी चिंतक फ्रांसिस फुकुयामा इसके बारे में कुछ समय से चेतावनी दे रहे थे कि अब दुनिया के लिए नया रणनीतिक खतरा है चीन, न कि इस्लामी आतंकवाद। इसलिए, अफसोस है कि तालिबान अफगानियों के साथ जो कर रहे हैं उसकी किसी को परवाह नहीं। आप पूछेंगे कि पाकिस्तान जब 'अप्लाई, अप्लाई, नो-रिप्लाई' का युद्धनृत्य कर रहा है तो बाइडेन इमरान खान को फोन क्यों नहीं कर रहे?
इसकी वजह यह है कि पाकिस्तान अहमियत नहीं रखता। अगर अफगानिस्तान को किस्मत के भरोसे छोड़ सकते हैं, तो इसका अर्थ है पाकिस्तान रणनीतिक महत्व खो चुका है। वह चीन के मातहत के रूप में अलग-थलग पड़कर काबुल में जीत पर खुश होता रह सकता है। इसके विपरीत, भारत की अहमियत और बढ़ गई है, इसलिए नहीं कि वह इस्लामी आतंकवाद के खिलाफ जंग में सहयोगी है।
बल्कि इसलिए कि वह ताकतवर देश है, फौजी दृष्टि से मजबूत और चीन का सामना करने को तैयार। उसने अपनी रणनीतिक हिचक भी तोड़ दी है। 'फ्रीडम हाउस' संस्था अगर भारत को 'आंशिक रूप से स्वाधीन' का दर्जा देता है, तो यह भारत के तीन 'डी' में सबसे अहम 'डेमोक्रेसी' को नुकसान पहुंचाता है।
यह मोदी के लिए मौका
भारत की अहमियत बढ़ गई है, इसलिए नहीं कि वह आतंक के खिलाफ जंग में सहयोगी है। बल्कि इसलिए कि वह ताकतवर है। मोदी के लिए ऐतिहासिक मौका है कि वे देश को एक नई, अधिक सुरक्षित रणनीतिक स्थिति में पहुंचा दें। यह वे पूर्ण लोकतांत्रिक देश के रूप में ही ऐसा कर सकते हैं। वे इस मौके का फायदा उठा सकते हैं या घरेलू राजनीति के आकर्षणों में पड़कर इसे गंवा सकते हैं।


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